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धरती बचाने की अधूरी इच्छा

पेरिस समझौते में विकसित देशों के पक्ष में पलड़ा झुका हुआ है। जलवायु न्याय की बातें हैं, समता-समानता की चर्चा है लेकिन उसके लिए बाध्यकारी प्रावधान नहीं
धरती बचाने की अधूरी इच्छा

पेरिस में जलवायु परिवर्तन की मार से धरती को बचाने के लिए  194 देश जमा हुए। जलवायु परिवर्तन पर इस 21वें सम्मेलन के अंत में पेरिस समझौता सामने आया और इस पर एक हिस्से में, खासतौर से खाए-पिए, संपन्न-विकसित खेमे में जबर्दस्त राहत व्यक्त की गई, कहा गया, हमने पृथ्वी को बचाने का रास्ता निकाल लिया है या यह ऐतिहासिक समझौता है, बेहतरीन समझौता है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसे दुनिया के लिए निर्णायक मोड़ बताया। लेकिन दूसरा खेमा इससे नाखुश है और उसने साफ कहा कि इस सम्मेलन के ऊपर तेजी से गरम हो रही पृथ्वी को बचाने का जिम्मा था, जो उसने नहीं किया। सिर्फ सुंदर बातें कीं, अच्छे शब्द रखे, लेकिन कोई जिम्मेदारी नहीं तय की।

इस सम्मेलन ने यह तय किया कि धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा। यह कैसे किया जाएगा, कौन देश कितना ग्रीनहाउस उत्सर्जन कम करेगा इसका कोई रोडमैप नहीं दिया गया है। यानी बड़ा लक्ष्य तय कर दिया गया है लेकिन वह कैसे होगा इस पर कोई चर्चा नहीं की गई। हरेक देश को अपना लक्ष्य खुद ही तय करने को कहा गया है। इस हिसाब से इस लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार चीन और अमेरिका सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करते हैं, क्रमश: 24 फीसदी और 14 फीसदी। अब पेरिस समझौते में यह नहीं बताया गया है कि ये देश पृथ्वी का तापमान बढ़ाने वाली इन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कितना कम करेंगे और कब तक, ये नहीं तय किया गया।

इसी तरह से पेरिस समझौते में कई दिलचस्प यू-टर्न हुए, जिनसे विकसित देशों का दबाव खुलकर सामने आता है। समझौते के मसौदे में विकसित देशों के लिए जो बाध्यकारी प्रावधान थे, वे फाइनल समझौते में बाध्यकारी नहीं रहे। मिसाल के तौर पर मूल रूप से यह लिखा गया था कि विकसित देश अर्थव्यवस्था में उत्सर्जन रोकने के उपाय करते रहेंगे, इस पंक्ति को फाइनल समझौते में लिखा गया, विकसित देशों को उत्सर्जन रोकने के उपाय करने चाहिए। इस तरह की गड़बड़ियां कई महत्वपूर्ण जगहों पर की गई हैं, जो विकसित देशों को बाध्यकारी प्रावधानों से छूट देने वाली हैं।

वहीं भारत जैसे विकासशील देशों के लिए कोयले के इस्तेमाल पर वित्तीय बाधा खड़ी करने वाली हैं। पेरिस समझौते में यह प्रावधान है कि ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करने और जलवायु के लिए अनुकूल विकास की गारंटी करने के लिए ग्लोबल फंड के प्रवाह को निर्धारित किया जाएगा। भारतीय वार्ताकारों का भी मानना है कि इस प्रावधान का इस्तेमाल विकसित देश भारत के खिलाफ कर सकते हैं। भारत की कोयला ऊर्जा पर आधारित परियोजनाओं पर इसकी गाज गिर सकती है। कोयला आधारित परियोजनाओं को ज्यादा उत्सर्जन करने वाली परियोजना की श्रेणी में रखकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी फंडिग को रोका जा सकता है। इसका विकासशील देशों पर खासतौर से भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। फंडिग नियंत्रण के जरिये विकासशील देश सीधे-सीधे भारत की बांह मरोड़ सकते हैं। जलवायु परिवर्तन के लिए लंबे समय से सक्रिय संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायर्नमेंट (सीएसई) की सुनीता नारायण ने कहा, 'पेरिस समझौता एक कमजोर और अ-महत्वाकांक्षी समझौता है।  विकसित देशों ने वर्ष 2020 तक किसी भी तरह के वित्तीय और उत्सर्जन कटौती करने का कोई वादा नहीं किया। सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इस समझौते ने विकसित देशों के ऊपर से धरती को इतना अधिक प्रदूषित करने, पृथ्वी को गरम करने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने की कोई ऐतिहासिक जिम्मेदारी नहीं डाली। विकसित देशों के ऊपर इसकी जिम्मेदारी डालने और आगे इसका भार उठाने की लंबे समय की मांग को सिरे से पेरिस में नकार दिया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।’

ये चिंताएं पर्यावरणविदों, छोटे देशों के नेताओं और संगठनों ने भी जाहिर की हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया कि पेरिस समझौते में न कोई जीता, न कोई हारा। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेडकर को इस बात का संतोष है कि पेरिस समझौते में जलवायु न्याय जैसे शब्दों को जगह मिली। हालांकि वह भी यह कहने से बच नहीं सके, समझौता और ज्यादा महत्वाकांक्षी हो सकता था। भारत समझौतापरस्त भावना के तहत समझौते में कई चीजों के लिए तैयार हुआ। 'भारत दावा चाहे जिस भी चीज का कर ले लेकिन समता, न्याय और कार्बन स्पेस के मामले में बराबरी की डील समझौते में विकासशील देश नहीं कर पाए।’

विकसित देशों ने यह जरूर अहद किया है कि वे विकासशील देशों की मदद के लिए सालाना 100 अरब डॉलर यानी एक खरब डॉलर के फंड का जुगाड़ करेंगे, लेकिन यह भी बाध्यकारी नहीं है। विकसित देशों और विकासशील देशों के ऊपर जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए उठाए जाने वाले कदमों का बोझ उठाने को लेकर, उसमें हिस्सा बांटने को लेकर लंबे समय से टकराव चल रहा है। विकासशील देशों की मांग रही है कि विकसित देशों को यह बोझ ज्यादा उठाने चाहिए। उत्सर्जन करने के लिए उन्हें ज्यादा कदम उठाने चाहिए, विकासशील देशों को तकनीकी मदद देनी चाहिए ये सारी बातें पेरिस समझौते में एक ठोस रूप में नहीं सामने आई। समझौते में नुकसान का जिक्र तो है लेकिन मुआवजे और जिम्मेदारी का जिक्र नहीं है। विकासशील देशों के लिए एक और नुकसानदेय प्रावधान है, विकसित देशों को एक कार्बन बाजार मिल गया है। इसके चलते वह घरेलू मोर्चे पर उत्सर्जन कम करने के बजाय बाजार से अपने लिए फायदा खरीदेंगे। पेरिस समझौता स्वैच्छिक कार्बन बाजार के लिए सहमति देता है, यानी अमीर और संपन्न देश गरीब देशों से कार्बन पद चिह्न (फुट प्रिंट) खरीद लेंगे।

 इन तमाम सवालों के साथ यह सम्मेलन समाप्त हुआ। राहत इस बात पर व्यक्त की जा सकती है कि कुछ न हाथ लगने के बजाय कुछ तो हाथ लगा। सवाल यह भी बड़ा होकर उभरा कि अगर धरती नहीं बची तो क्या विकसित और क्या विकासशील। तेजी से गरम होती धरती भीषण सूखे, भीषण तूफान, बारिश, बाढ़, जल समुद्र स्तर के बढऩे, द्वीपों के डूबने के खतरों से घिरी है।

 कमजोर और महत्वाकांक्षाविहीन

भारत समेत विकासशील देशों के लिए सबसे अहम मुद्दा यह था कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन की ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारी उठाएं क्योंकि 1850 से लेकर 1980 के दशक तक लगभग सारी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। वे चाहते थे कि आखिरी समझौते में साझी लेकिन विभेदकारी जिम्मेदारियों (सीबीडीआर) का सिद्धांत स्पष्ट रूप से झलके। विकसित और विकासशील देशों के बीच बराबरी नहीं दिख रही। आइए, देखें कि विकसित व विकासशील देशों में किसकी क्या चाहत थी और किसको क्या मिला:

 

विकसित देश

1. समूची अर्थव्यवस्था में उत्सर्जन को घटाने के शुद्ध मानक तय करने होंगे

2. जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील देशों को मदद का वादा

3. हर दो साल में अगले दो सालों में एकत्र की जाने वाली सांकेतिक राशि की जानकारी देनी होगी और यह भी कि उसमें से कितनी सार्वजनिक वित्तीय संसाधनों से उगाही जाएगी

4. विकासशील देशों में क्षमता निर्माण के लिए वित्तीय व प्रौद्योगिकीय समर्थन उपलब्‍ध कराएंगे

 

विकासशील देश

1. उत्सर्जन घटाने की दिशा में धीरे-धीरे बड़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया है

2. स्वेच्छा से जलवायु वित्त में योगदान के लिए प्रोत्साहित किया गया है

3. जलवायु वित्त के लिए उपलब्‍ध राशि की जानकारी हर दो साल में देने के लिए प्रोत्साहित किया गया है

4. जलवायु परिवर्तन के कारण किसी नुकसान या हानि के लिए मुआवजा या हर्जाना नहीं मांग सकेंगे

 

वित्त: इस मुद्दे पर बड़ा घालमेल हुआ है। वर्ष 2009 में विकसित देशों ने जलवायु वित्त के रूप में हर साल सौ अरब डॉलर जुटाने का वादा किया था। इस बार के समझौते में इस राशि का जिक्र नहीं है। इसे फैसलों के मसौदे में रखा गया है। 2025 में ही जाकर इस राशि को बढ़ाने पर विचार होगा। विकसित देशों को इस सौ अरब डॉलर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए रोडमैप तो देना होगा, लेकिन उसकी भी कोई समयसीमा नहीं है।

 कार्बन बाजार: अमीर देश बड़ी आसानी से गरीब देशों से कार्बन फुटप्रिंट खरीद सकेंगे यानी उनकी कोशिश यह नहीं होगी कि वे अपना उत्सर्जन कम करें बल्कि वे चाहेंगे कि गरीब देश विकास न करें और गरीब ही बने रहें ताकि अमीर देश उनसे आगे भी कार्बन फुटप्रिंट खरीदकर अपनी जवाबदेही कम करते रहें। बचे हुए कार्बन स्पेस का इस्तेमाल ऐतिहासिक जिम्मेदारी के आधार पर तय करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है।

 

एनडीसी: यानी राष्ट्रों द्वारा निर्धारित योगदान: पेरिस बैठक से पहले 186 देशों ने वर्ष 2025 या 2030 तक अपने-अपने यहां उठाए जाने वाले जलवायु कदमों की जानकारी दी थी। इन्हें ही एनडीसी कहा गया। हर देश को हर पांच साल में इन कदमों की जानकारी देनी होगी और उनमें उत्तरोत्तर सुधार करना होगा। जिन्होंने 2025 तक के लिए अपने एनडीसी दिए हैं उन्हें 2020 तक नए एनडीसी पेश करने होंगे और जिन्होंने 2030 तक के लिए अपने एनडीसी दिए हैं, वे 2020 में उसमें सुधार कर सकते हैं।

तापमान: सबसे कम विकसित देशों और छोटे द्वीप विकासशील देशों की मांग रही है कि पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की सीमा को औद्योगिक-काल से पहले के तापमान से 1.5 डिग्री सेल्शियस तक ही रखा जाए और उसे 2 डिग्री तक नहीं बढ़ने दिया जाए। समझौते में तापमान को 2 डिग्री से तो नीचे रखने और हो सके तो 1.5 डिग्री से नीचे रखने की कोशिश करने की बात कही गई है।

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