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बिहार की राजनीति में जाति की ताकत का सच

आजादी के आंदोलन और कांग्रेस की रणनीति और उससे भी बढ़कर पिछड़ा समुदाय की सत्ता से जुडे रहने की चाहत ने उनको कांग्रेस प्रिय बना दिया। जिन्हें कांग्रेस में जाना अच्छा नहीं लगा, वह वामपंथी, समाजवादी पार्टियों से जुड़ने लगे। हर हाल में बिहार में वोट से जाति का रिश्ता जुड़ गया।
बिहार की राजनीति में जाति की ताकत का सच

इस गलतफहमी को खत्म करना जरूरी है कि बिहार एक जातिवादी राज्य है। यह वैसा ही एक राज्य है जैसे कि अन्य राज्य हैं। बिहार के  बारे में एक सच है यह जरूर है कि पिछड़ी जातियां भी यहां उतनी ही आक्रामक हैं जितनी बिहार की सवर्ण जातियां। इस आक्रामकता की जड़ में है खेती और चुनाव में उम्मीदवार बनाना ।


इंग्लिशिया राजपाट में बिहार के कुछ देसी लोगों को मंत्री पद दिया गया। जाहिर है जिन्हे मंत्री पद मिला वह इंग्लिशिया राजपाट के वफादार तो थे ही, दूसरी तरफ शिक्षा के प्रचार में इन लोगों ने बहुत कुछ किया। इनमें ही एक थे बाबू गणेश दत्त सिंह। उनके जिम्मे स्थानीय स्वशासन था। हालांकि उनके खिलाफ 1928 में व्यापक आंदोलन भी हुआ। उन्होंने इंग्लिशिया सरकार को खुश करने के लिए गया जिला परिषद को निलंबित कर दिया था। तब परिषद अध्यक्ष अनुग्रह नारायण सिंह हुआ करते थे। उनको भी हटा दिया गया। गया उस समय अत्यंत ही महत्वपूर्ण जिला था। बिहार जब तक बंगाल से अलग नहीं हुआ था तब तक गया को ही बिहार माना जाता था। उस आंदोलन के नेता श्रीकृष्ण सिंह थे। श्रीकृष्ण सिंह ने उस वक्त की बिहार और ओडिशा विधान परिषद में भी अपने स्वजातीय गणेशदत्त सिंह का भंयकर विरोध किया था। लेकिन राजपूत समुदाय के मन में उस समय यही बात थी कि भूमिहार ने राजपूत को बरखास्त कर दिया। तब से बिहार के सवर्णों में राजपूत- भूमिहार की कड़वाहट और टकराव चल रहा है।
उस समय में जाति की ताकत खत्म करने का काम स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी किया था। वह सर गणेशदत्त सिंह के विरोधी भी माने गए। वह भी  भूमिहार ही थे। उन्होंने किसान सभा की भी स्थापना की थी। जमींदार भूमिहारों ने भी उनका विरोध किया था। माना गया कि यह जमींदार वर्ग के हैं। लेकिन इनमें भूमिहीन भूमिहारों की संख्या काफी थी। यही कारण है भूमिहार बहुल इलाकों में वामपंथी दलों की बढ़त थी। बिहार के बेगूसराय को लेनिन गार्ड भी कहा गया।

 

राजपूत-भूमिहार टकराव
जिला परिषदों का चुनाव आरंभ हो चुका था।  उन चुनावों में संभ्रात पिछड़े समुदाय की हार हुई। जिला परिषदों में चुनाव के बाद पिछड़े समुदाय के यादव, कोयरी और कुरमी समुदाय ने 1934 के आसपास त्रिवेणी संघ बनाया। इसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने 1935 में बैकवर्ड क्लास फेडरेशन का गठन किया। यह समझ लेना जरूरी है कि बिहार में चुनावों के माध्यम से सवर्ण समुदाय और पिछड़े समुदाय में खींचतान बढ़ी। 1937 के विधानसभा के चुनाव में मुसलमानों और दलितों के लिए अलग अलग चुनाव क्षेत्र था। जमींदारों के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र था। 1937 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। इंग्लिशिया सरकार ने महिलाओं के लिए भी अलग चुनाव क्षेत्र बनाया, जैसे पटना सिटी मुसलमान महिला का सामान्य शहरी क्षेत्र और पटना महिलाओं का सामान्य शहरी क्षेत्र बनाया गया। इसी के साथ 1937 के चुनाव में कांग्रेस ने सरकार बनाने से मना कर दिया तो मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी के मोहम्मद यूनुस प्रधानमंत्री  नियुक्त किये गये, उस काल में  मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था और प्रधानमंत्री को प्रीमियर। बहरहाल तीन हफ्तों के बाद  मो. यूनुस को इस्तीफा देना पड़ा और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के प्रधानमंत्री बने। यहीं से बिहार में भूमिहार और राजपूत टकराव भी शुरू हुआ। आजादी के आंदोलन और कांग्रेस की रणनीति और उससे भी बढ़कर पिछड़ा समुदाय की सत्ता से जुडे रहने की चाहत ने उनको कांग्रेस प्रिय बना दिया। त्रिवेणी संघ में भी एकता नहीं रही। जिन्हें कांग्रेस में जाना अच्छा नहीं लगा, वह वामपंथी, समाजवादी पार्टियों से जुड़ने लगे। हर हाल में बिहार में वोट से जाति का रिश्ता जुड़ गया। जाति हिंदू समाज में ही नहीं अन्य समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है। इसका संबंध रोटी और बेटी है।

रोटी– बेटी के साथ चुनाव का रिश्ता जुड़ गया। आज भी बिहार  के अनेक नेता अपनी बेटी के विवाह के लिए स्वजातीय हो जाते हैं। यही गठबंधन वोट वादी भी हो जाता है। कांग्रेस की रणनीति ने संभ्रांत  पिछड़ों के आंदोलन के प्रतीक त्रिवेणी संघ को कांग्रेसी बना दिया। त्रिवेणी संघ में यादव, कुरमी, कुशवाहा थे। सबसे पहले यादव, फिर कुरमी और तब कुशवाहा कांग्रेस से जुड़े। कुशवाहा जाति के मन में यह कसक बनी रही कि उसे पिछड़ी  जाति का सिरमौर नहीं माना गया। 

कांग्रेस की आंतरिक राजनीति ने भी इसे और बढ़ाया। अब हम साठ के दशक में आ चुके हैं। इसके पहले आजादी के आंदोलन के समय कांग्रेस ने यह जान लिया था कि जाति के बल पर कैसे चुनाव जीता जा सकता है। आजादी के बाद चुनाव लड़ने वालों को यह पता था कि कौन कौन से चुनाव क्षेत्र मुस्लिम बहुल हैं। दलितों के लिए अलग से चुनाव क्षेत्र पहले भी था, आजादी के बाद भी बना रहा। रही सही कही कसर सवर्ण समुदाय की इस मानसिकता की थी कि सवर्ण बहुल क्षेत्र के वोटर को कैसे विवश किया जाए कि वह कांग्रेस या सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में ही वोट दे। नतीजतन 1962 तक बिहार में जातिवाद आज की तरह सिर चढ़ कर नहीं बोलता था। मगर पिछड़ा समुदाय मन ही मन में उबल रहा था। आमतौर पर उस वक्त के पिछड़े नेता किसी न किसी सवर्ण नेता से जुड़े होते थे। एक सच और तथ्य उभर रहा था कि चाहे सवर्ण हो या अवर्ण सब के सब भूमिहार नेतृत्व को नापसंद करते थे।

1961 में श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल ने अपना नेता मैथिल ब्राह्मण विनोदानंद झा को चुना, वह ठेठ मिथिला के नहीं थे, बल्कि आज के झारखंड क्षेत्र से चुनाव जीतते थे। यह अकारण नहीं था कि श्रीबाबू के देहांत के बाद कांग्रेस पार्टी ने एक राजपूत दीपनारायण सिंह को अवसर दिया कि वह मुख्यमंत्री पद की शपथ लें। वह 1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी तक मुख्यमंत्री बने रहे यानी कांग्रेस को अपना नया नेता चुनने में लगभग दो हफ्ते लगे। यह एक तथ्य है कि भूमिहार समुदाय में श्रीबाबू के उत्तराधिकारी माने जाने वाले महेश प्रसाद सिंह 1957 में विधानसभा का चुनाव हार चुके थे। अनुग्रह बाबू का पहले ही निधन हो चुका था। तब तक उनके पुत्र विधानसभा में नहीं थे। वह बिहार में मंत्री ही 1961 में बने। अब तक राजपूत और भूमिहार का द्वंद सतह पर था। नतीजतन झा मुख्यमंत्री बने। दिसंबर 1963 में कामराज योजना के तहत उन्होंने इस्तीफा दिया। उस समय कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के लिए पहली बार दो गैर ब्राह्मण के बीच टकराव हुआ। बिहार में पहली बारपिछड़ा समुदाय कुरमी के बीरचंद पटेल के मुकाबले में सवर्ण समुदाय के गैरब्राहमण कायस्थ कृष्णवल्लभ सहाय के बीच मुकाबला हुआ। पटेल वास्तव में राजपूत समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। आखिरी क्षणों में इस समुदाय के नेता सत्येंद्र नारायण सिंह ने अपना समर्थन सहाय को दे दिया। बाद में सिंह ने इसे माना भी और अपनी आत्मकथा में भी इसका जिक्र किया। इस तरह रोटी बेटी वाला जाति का नाता जो चुनाव तक ही सिमटा रहता था, वह बिहार के रोज के जीवन में घुस चुका था।

 

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