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बिहार से निकलेगी दिल्‍ली की राह?

पुरानी राजनीति में पगे पर्यवेक्षक बार-बार पूछ रहे हैं कि लालू प्रसाद अपने अहम और जनाधार की आशंकाओं को ताक पर रखकर नीतीश के नाम पर राजी कैसे हो गए। लालू के निजी हावभाव भरमाने वाले भले रहे हों, सार्वजनिक तौर पर उनके वक्तव्य पिछले लोकसभा चुनावों में हार के बाद पिछले उपचुनावों के वक्त से ही भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चे के लिए प्रतिबद्धता के रहे हैं।
बिहार से निकलेगी दिल्‍ली की राह?

जब मीडिया वाले सोते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक मानो जागता है। पुराने जनता दल परिवार की पार्टियों के विलय के घोषित इरादे के कुछ माह पूर्व, बकौल मुलायम सिंह यादव, बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों तक स्थगित हो जाने के बाद बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल (यू) और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल के चुनावी गठबंधन की राह में भी अड़चनों की चर्चा मीडियाा में जोर-शोर से होने लगी। इस मीडिया चर्चा के पीछे कुछ तो मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के दिल की हूक बोल रही थी तो कुछ नीतीश और लालू के रिश्तों का एक दशक से कुछ ज्यादा का इतिहास और कुछ दोनों के कुर्मी-यादव या अन्य अति पिछड़ी एवं दलित जातियों के जनाधार के बीच इस दौरान विकसित कटुता भी बोल रही थी। इन चर्चाओं को हवा देने में जद (यू) और राजद के उन नेताओं की कानाफूसी भी थी जो दोनों पार्टियों के मिलकर चुनाव लडऩे की हालत में अपने चुनावी और राजनीतिक भविष्य को लेकर आशंकित थे। ये नेता और विपक्षी भाजपाई क्रमश: अपनी आशंकाओं और मंसूबों में बहकर भले ही अपनी ही आरोपित खबरों पर यकीन करने लग हों और उनसे आमद-रफ्त रखने वाले पत्रकार भी आसन्न लालू-नीतीश गठबंधन और नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने की लालू की घोषणा को लेकर गाफिल रहे हों, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुगालते में नहीं था।

मुलायम सिंह यादव की मौजूदगी में जनता दल परिवार के संयुक्त मोर्र्चे की ओर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी मानने की घोषणा के तीन दिन पहले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बिहार के बक्सर में धुनी रमा दी थी। उनके पास कई जगहों से स्वयंसेवकों, प्रांतीय संघ पदाधिकारियों, वृहद संघ परिवार के कार्यकर्ताओं और भाजपा नेताओं-कार्यकर्ताओं का तांता लगा हुआ था। कहने को संघचालित विद्यालय सरस्वती शिशु मंदिर का समारोह था, लेकिन राजनीतिक व्यूह चर्चा की अंतर्धारा स्पष्ट थी।

बहरहाल, बिहार विधानसभा के लिए दोनों प्रमुख पक्षों के अभियान की प्रकृति इस बार लोकसभा चुनाव के विपरीत है। भाजपा की अब तक तैयारी पुराने ढंग के चुनावों की तरह दिखती रही है यानी आकाशवाणी के वर्षों से चले आ रहे धीमी गति के समाचार बुलेटिन की तरह। थोड़े वक्त के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और जेल से निकल छूटे पप्पू यादव के साथ जोड़-तोड़ एवं जमीनी स्तर पर मजहबी माहौल तथा जातिगत स्तर पर गणित बिठाने की कोशिशों से बोझिल। उधर मुलायम-लालू के श्रीमुखों से अपने नेतृत्व में चुनाव लड़े जाने की घोषणा के साथ ही नीतीश कुमार का हाईटेक चुनाव प्रचार झटके से विद्युत-वेग से शुरू हुआ। ठीक घोषणा के दिन राजधानी पटना के टेंपो, ऑटो रिक्शों पर नीतीश कुमार के पोस्टर छा गए। अगले ही दिन गांवों की सडक़ों पर चलने योग्य 400 गाडिय़ां नीतीश शासन में बिहार के विकास के हाई टेक आख्यान से लैस हो निकल पड़ीं।

इस हाई टेक विकास के आख्यान का एक स्वप्न लक्ष्य है: बिहार 2019 तथा उद्देश्य है विकास के समावेशी बिहार मॉडल को गुजरात के वर्ग-सीमित विकास मॉडल से श्रेष्ठ दिखलाना। इलेक्ट्रॉनिक प्रक्षेपित त्रि-आयामी (3-डी) ऑडियो-वीडियो अनुभव का चुनाव प्रचार और सोशल मीडिया अभियान का इस्तेमाल मानो नवयुग में बिहार के प्रवेश के रूपक के तौर पर किया जाएगा। पिछले लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेता के तौर पर अस्वीकारने के बाद नरेंद्र मोदी से नीतीश ने जो रार मोल ली थी उसे इस बार उनका अभियान प्रधानमंत्री के सालभर से ज्यादा के कार्यकाल में भाजपा के दिखाए चुनावी सपने सब्जबाग साबित करने की परिणति तक ले जाएगा। यानी नीतीश बिहार में दिए अपने शासन के आधार पर आगे के सपने जगाएंगे जिसे वह नरेंद्र मोदी से मतदाताओं के सपने टूटने के आख्यान के बरक्स रखेंगे। यानी नीतीश कुमार इस बार मोदी की रणनीति अपना रहे हैं, लेकिन अपने संदेश की अंतर्वस्तु के मोदीनुमा जगमग माध्यम के रूप में। इसके लिए उनके टेक-सारथी भी वही प्रशांत किशोर हैं जो देश की लोकसभा के चुनाव में मोदी अभियान के खेवनहार थे। उनकी टीम भी वही है। वैसा ही युद्ध कक्ष, कहते हैं के.सी. त्यागी, पवन वर्मा और हरिवंश की समग्र देखरेख में।

ऐसा नहीं कि जद परिवार में पुराने ढंग की समाजवादी गोलबंदी नहीं होगी। फॉरवर्ड, बैकवर्ड, यादव, कुर्मी, कोइरी, लवकुश, धातु, तलवार रेजिमेंट, पंडीजी, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, मुसलमान, अति पिछड़ा, महादलित, चर्मकार, मुसहर, पासवान, बिहार की सारी राजनीतिक शब्दावली आप पक्ष-विपक्ष दोनों खेमों में सुन सकते हैं। पुरानी समाजवादी रंगत लिए एक नारा भी सुनाई देगा, भाजपा भगाओ जमीन बचाओ। फिर भी, जनता-समाजवादी परिवार के पुराने धुरंधर के.सी. त्यागी कहते हैं, नीतीश और नरेंद्र मोदी के बीच (क्योंकि भाजपा का मुख्यमंत्री प्रत्याशी शायद अघोषित ही रह जाए) दोनों तरफ से यह 21वीं सदी का चुनाव लड़ा जाएगा जिसमें विकास के मॉडल, कानून-व्यवस्था, अर्थनीति, संघीयता, बिहारी गौरव, राष्ट्रीय स्वाभिमान, सुशासन जैसे जुमलों की हाई टेक झनझनाहट ज्यादा सुनाई देगी। बीते दशक के सांप्रदायिकता, छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का शोर कम सुनाई पड़ेगा।

पुरानी राजनीति में पगे पर्यवेक्षक बार-बार पूछ रहे हैं कि लालू प्रसाद अपने अहम और जनाधार की आशंकाओं को ताक पर रखकर नीतीश के नाम पर राजी कैसे हो गए। लालू के निजी हावभाव भरमाने वाले भले रहे हों, सार्वजनिक तौर पर उनके वक्तव्य पिछले लोकसभा चुनावों में हार के बाद पिछले उपचुनावों के वक्त से ही भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चे के लिए प्रतिबद्धता के रहे हैं। इसका नतीजा उपचुनावों में जद (यू) राजद मोर्चे की जीत में भी दिखा। हाल-हाल तक लालू यही कहते रहे कि समय आने दीजिए जद (यू) व राजद के बीच सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी। दरअसल, नीतीश और लालू दोनों के सामने उनके राजनीतिक अस्तित्व का प्रश्न मुंह बाए खड़ा था जो उन्हें आपस में बहुत हीले-हवाले की जगह नहीं देता था। लालू कानूनन सजायाफ्ता होने के कारण खुद मुख्यमंत्री हो नहीं सकते और अपने बच्चों के राजनीतिक भविष्य की भी उन्हें चिंता है। लेकिन बिहार के इन चुनावों में दांव बिहार की स्थानीय राजनीति से ज्यादा बड़ा है।

देश में वर्षों तक राज करने वाली कांग्रेस और उसके उभरते नेता राहुल गांधी के भी अस्तित्व का सवाल है जो एक नए गठबंधन के उभार पर निर्भर करेगा। लेकिन उससे भी ज्यादा नरेंद्र मोदी के सर्वसत्तावाद से बहिष्कृत और विमुख हो रही देशव्यापी कई तरह की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्तियों के हित बिहार चुनाव में दांव पर लगे हैं। जनता परिवार के सूत्रों की मानें तो भाजपा नीत गठबंधन के कुछ घटक, खुद भाजपा के कई नेता, कई राज्यों के गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों, नरेंद्र मोदी के प्रिय और जेबी पूंजीपतियों के प्रतिस्पर्धी उद्योगपति, अतिशय केंद्रीकरण से सशंकित नौकरशाही का एक तबका, अकादमिक स्वतंत्रता में निष्ठा रखने वाले बुद्धिजीवी, प्रबुद्ध लोकतांत्रिक चेतना वाले मध्यवर्गीय तबके और गणसमाज, वाम-उदारवादी चेतना वाला सामाजिक तबका तथा क्षेत्रीय एवं वाम दलों ने भी नीतीश-लालू गठबंधन की घोषणा पर राहत व्यक्त की। राहुल गांधी समेत उन सबका दबाव गठबंधन की गांठ बांधने के काम आया। जनता दल परिवार में कई वरिष्ठ नेतओं के अनुसार उपरोञ्चत समूह की ओर से आर्थिक, बौद्धिक और मानव संसाधनों का प्रवाह भी इंगित है। इसलिए नीतीश-लालू गठबंधन तो होना ही था और, जैसा राहुल गांधी और अन्य कई का मत था, इसके प्रतीक के तौर पर नीतीश कुमार का विकासोन्मुख चेहरा ही वस्तुगत परिस्थितियों का तकाजा है।

जब बिहार चुनाव के लिए नीतीश के चेहरे पर इतनी तरह की देशव्यापी शक्तियों और समूहों ने दांव  लगाया है तो इसलिए, जैसा नीतीश समर्थक समाज विज्ञानी शैबाल गुप्ता इशारा करते हैं, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश किसी संयुक्त विपक्ष का चेहरा होंगे।

यह खतरा नरेंद्र मोदी, अमित शाह और संघ परिवार के कर्ताधर्ता भी समझते हैं, इसलिए जनता दल परिवार में इतनी तोड़-फोड़ मचाई। पहला चक्र भले ही नीतीश कुमार का रहा, इस मैदान पर नजर रखिए। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उनके शहसवार अभी तेजी से उतरने हैं। देखते हैं, इस मुठभेड़ में जयमाल किसके गले डलती है।

 

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