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भक्त मचाए शोर

इलाहाबाद हाईकोर्ट के ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने संबंधी फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने धार्मिक...
भक्त मचाए शोर

इलाहाबाद हाईकोर्ट के ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने संबंधी फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने धार्मिक और सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर के अनधिकृत प्रयोग पर पाबंदी लगा दी है। इससे जितनी खुशी याचिकाकर्ता मोतीलाल यादव को मिली, उतना ही मैं भी खुश हुआ। सरकार के फैसले से पहले एक रात मुझे इसका बुरा अनुभव हुआ। गाजियाबाद में 6-7 जनवरी को मेरे पड़ोस में एक जागरण-कीर्तन का आयोजन किया गया था। कानफोड़ू आवाज में लाउडस्पीकर बजाए जा रहे थे। लोग अपने देवी-देवताओं की पूजा से अधिक पड़ोसियों को यह दिखाने के लिए जोर-जोर से चिल्ला रहे थे कि वे कितने धार्मिक हैं। आयोजकों ने दूसरे लोगों को सोने नहीं दिया। मैंने देर रात लगभग पौने तीन बजे 100 नंबर पर डायल किया। उसके बाद एक पुलिस वाले ने कीर्तन वाली जगह का पता जानने के लिए मुझे फोन किया। लगभग 20 मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा। लेकिन फिर लाउडस्पीकर से शोरगुल होने लगा। जिस पुलिस वाले ने मुझसे कीर्तन वाली जगह का पता लिया था, उसने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया। इससे भी बुरा यह हुआ कि 100 नंबर और अन्य हेल्पलाइन पर अब फोन नहीं लग रहा था।

मैंने इंटरनेट से एसपी ऑफिस का नंबर खोजा और फोन करने पर सोती हुई आवाज में एक पुलिस वाले ने पुलिस मुख्यालय में बात करने की सलाह दी और मैंने वहां भी कॉल किया। 

कुछ देर बाद कीर्तन वाली जगह का पता पूछने के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन से मेरे पास फोन आया। सुबह पांच बजे के बाद ही लाउडस्पीकर की आवाज थोड़ी कम हो सकी, लेकिन वह तब भी बज रहे थे।

यह न्यू इंडिया है। यह उत्तम प्रदेश है। अपनी रैली या सफर से सिर्फ नेता ही आपको परेशान नहीं करते, बल्कि कोई धार्मिक दबंग भी आपके जीवन को कष्टकर बना सकता है। दरअसल, उनकी धार्मिकता उनके धन और बल के दिखावा के सिवा कुछ नहीं है। ऐसा लगता है जैसे वे कह रहे हों, देखो मैंने अपने भगवान को खुश करने के लिए कितना पैसा खर्च किया। अगर तुम इसमें बाधा पहुंचाते हो और पुलिस को फोन करते हो तो वह उन्हें उनकी ड्यूटी करने से रोकने का भी इंतजाम कर सकता है। पुलिस वाले भी आश्वस्त हो जाते हैं कि अरे भगवान का नाम ही तो ले रहे हैं। फिर वे अपने धन-बल की नुमाइश करते हैं।  

जैसे तड़क-भड़क वाले आयोजनों पर पैसों की बारिश करना ही धार्मिकता का मापदंड हो। दूसरा मापदंड आवाज है-आवाज जितनी तेज होगी, उतनी ही अधिक उनकी भक्ति होगी। आप उनसे बहस नहीं कर सकते। यहां तक कि आप आग्रह भी करते हैं तो आपकी तरफ तिरस्कार से देखते हुए उसे खारिज कर दिया जाएगा।

शोरगुल से बुजुर्ग, बीमार, छात्रों, गृ‌हिणियों और ऐसे ही तमाम तरह के लोगों को तकलीफ और कई परेशानियां हो सकती हैं, लेकिन उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी प्रतिक्रिया यही रहती है कि, “ये बंद नहीं होगा, ऐसे ही चलेगा।” ऐसा वर्षों से चला आ रहा है। हालांकि इसके कायदे-कानून हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का आदेश है, लेकिन आयोजन करने वालों के लिए शायद उसका खास अर्थ नहीं होता।

हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने 20 दिसंबर को अनधिकृत लाउडस्पीकरों के खिलाफ कार्रवाई की जानकारी मांगी थी। पीठ ने इस आदेश का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ की गई कार्रवाई की भी रिपोर्ट मांगी थी। स्थाई रूप से लगे लाउडस्पीकर के सर्वे और बिना मंजूरी के उनका इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी करने के लिए 10 पन्नों का आदेश जारी किया गया। प्रमुख सचिव (गृह) अरविंद कुमार के मुताबिक सार्वजनिक जगहों पर लगे लाउडस्पीकरों का ध्वनि स्तर 10 डेसिबल और निजी आयोजनों में यह पांच डेसिबल से अधिक नहीं हो सकता है।

ब्रिटैनिका इनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक, किसी साउंडप्रूफ कमरे में आप 10 डेसिबल शोरगुल सुनते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सभी धार्मिक जगहों पर लगे लाउडस्पीकर काफी शोरगुल मचाते हैं और ध्वनि प्रदूषण के नए मानकों का उल्लंघन करते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात है कि अगर कोई धार्मिकता के अतिरेक का विरोध करे, तो उसको भला-बुरा सुनना पड़ता है। पिछले साल अप्रैल में गायक सोनू निगम ने ‘अजान’ के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल के खिलाफ ट्वीट किया था। उन्हें तुरंत मुस्लिम-विरोधी ठहरा दिया गया। इसी तरह, जब मैंने एक स्थानीय वाट्सऐप ग्रुप में गुस्से वाला पोस्ट डाला तो मुझे हिंदू-विरोधी कहा गया, क्योंकि मैंने ध्वनि प्रदूषण का विरोध किया था। इस ‘न्यू इंडिया’ में पूजा को लाउडस्पीकर से जोड़ा जाता है और पाखंड को विश्वास के साथ।

सबसे मजेदार बात यह है कि मैंने अपने इलाके में जिन-जिन लोगों से बात की सबने मेरा समर्थन किया। उनकी भी तकलीफदेह रात गुजरी और लाउडस्पीकर से परेशान थे। मैं चकित था कि भला सभी ने वाट्सऐप पर क्यों मुझे फटकार लगाई। शायद इसलिए कि तथाकथित 'संस्कारी' लोग सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय हैं और आम हिंदू इंटरनेट को ज्यादा महत्व नहीं देता है या उस पर ज्यादा सक्रिय नहीं रहता। ऐसा लगता है कि आम हिंदुओं को पाखंडी संस्कारियों के शिकंजे से अपनी आस्था को आजाद कराने की जरूरत है।

(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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