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'आप’ मत बनो वे

क्या मनोविज्ञान का पीटर सिद्धांत व्यक्तियों की तरह संगठनों और राजनैतिक दलों पर भी लागू होता है? पीटर सिद्धांत के अनुसार कोई व्यक्ति अपनी अक्षमता की हद तक ही तरक्की करता है। यानी दक्षता की उस सीमा तक तरक्की जहां से संबद्ध व्यक्ति की अक्षमता का प्रदेश शुरू होता है। अभी तक पीटर सिद्धांत का जिक्र सिर्फ व्यक्ति के संदर्भ में होता था।
'आप’  मत बनो वे

लेकिन आम आदमी पार्टी का वर्तमान कलह चक्र देखकर बरबस संगठनों के संदर्भ में पीटर सिद्धांत का स्मरण हो आया। इस प्रसंग में 1977-79 में विशाल बहुमत से में केंद्र की सत्ता में आकर बिखर जाने वाली जनता पार्टी भी याद आई जिसने तब देश के मतदाताओं में अब की आम आदमी से भी ज्यादा उम्मीदें जगाई थीं। स्वतंत्रता संग्राम और संविधान निर्मातार्ओं की विरासत और मूल्यों से क्रमश: च्युत होती हुई कांग्रेस के भी देश की राजनीति में लगातार गिरते रसूख और औकात की तरफ ध्यान दीजिए, वह गाहे बगाहे सत्ता में भले लौट जाती हो।

दिल्ली की सत्ता प्रचंड बहुमत से हाथ क्या आई, आम आदमी पार्टी बंधन खुल गए ऊन के गोले की तरह लगातार बिखरती जा रही है। देश की राजधानी में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे जमे-जमाए दलों को अपने चुनाव चिह्न झाडू से बुहार डालने के बाद मानो यह पार्टी खुद को ही बुहार बाहर करने में मानो जी-जान से जुट गई है।

वैकल्पिक राजनीति के 'आप’ के दावे पर उक्वमीद की टकटकी लगाए हजारों लोगों के मन में पिछले दिनों का घटनाक्रम एक कड़वाहट घोल गया है। हम इन पंक्तियों में 'आप’ के इस या उस खेमे अथवा इस या उस व्यक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई चर्चा नहीं करना चाहेंगे। हम अपनी चर्चा सिर्फ उन सिद्धांतों से विचलन तक सीमित करना चाहेंगे जिनकी अपेक्षा वैकल्पिक राजनीति के किसी भी दावेदार से नहीं की जानी चाहिए।

पुरानी राजनीति और उसकी विचारधारात्मक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर नई राजनीति की वकालत करने वालों के लिए क्या यह शर्म की बात नहीं है कि वे पुरानी राजनीति के सर्वसत्तावादी सोवियत मॉडल या पिछली सदी के पूर्वाद्ध के जर्मनी एवं इटली की अधिनायकवादी पुलिसिया राज व्यवस्थाओं की तर्ज पर व्यक्ति की निजता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने वाले शक्की निगरानी तंत्र का आसरा लें? 'द हिंदू’ के पत्रकार का फोन उन्हें धोखे में रखकर टेप करना ञ्चया अभिव्यञ्चित अथवा मीडिया की स्वतंत्रता और व्यञ्चित की निजता के आदर की लोकतांत्रिक परंपरा में कमजोर निष्ठा का उदाहरण नहीं है? इस पुलिसिया अलोकतांत्रिक मानसिकता के बीज उस सर्वग्राही जनलोकपाल विधेयक के कुछ प्रावधानों में भी छिपे दिखाई पड़ते थे जिसका प्रारूप वर्तमान आम आदमी पार्टी के संस्थापकों ने रचा था, जिसके लिए उन्होंने एक जन आंदोलन छेड़ा था और जिसके लिए 'आप’ ने अपनी 49 दिनों की सरकार तक छोड़ी थी। उस विधेयक या उस आंदोलन की भ्रष्टाचार के प्रति लड़ाई की संजीदगी और उसके पीछे के अच्छे इरादों पर हम कोई शंका नहीं कर रहे। लेकिन अंग्रेजी की एक कहावत है, 'द वे टू हेल इज पेव्ड विथ गुड इनटेंशंस’ यानी नरक का रास्ता अच्छे इरादों से पटा पड़ा है। सही बात खरी-खरी कहने और उसके लिए जमकर संघर्ष करने का आत्मविश्वास कहीं 'हम ही सही हैं, बाकी सब गलत’ के अहंकार में न बदल जाए, इसके प्रति सतर्क रहना ही असली लोकतांत्रिक कसौटी है। अहंकार ही तानाशाही और सर्वसत्तावाद को जन्म देता है। गांधी की कितनी ही बातों से कोई कितना ही सहमत या अहसहमत हो, गांधी का नाम जपने वाली 'आप’ का ध्यान हम एक मार्के की बात की तरफ  दिलाना चाहेंगे: अत्याचार, गुलामी, भ्रष्टाचार, असमानता आदि के प्रति अवज्ञा जरूरी है लेकिन तभी लोकतांत्रिक है जब 'सविनय’ हो और विचारधारा के मूलभूत तत्वों को छोड़ कर साथियों की असहमतियों का आदर करते हुए उनके साथ सहअस्तित्व रखती हो।

यदि ऐन चुनावों से पहले  'आप’ के एक संस्थापक सदस्य बुजर्ग शांति भूषण के विवादास्पद बयान को उनके प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के किसी अरविंद केजरीवाल विरोधी षड्यंत्र का परिचायक मान भी लें तो कथित स्टिंग ऑपरेशन करके कई महीनों के इंतजार के बाद सही मौका ताड़कर वार करना क्या वैसे ही षड‍्यंत्र का परिचायक नहीं है? वैकल्पिक राजनीति के दावेदार षड्यंत्रों के आरोप -प्रत्यारोप में नहीं पड़ते। उन्हें असहमतियों के बीच संवाद और निर्णय की एक नई भाषा गढ़नी होगी तभी उनके वैकल्पिक राजनीति के दावे को प्रमाणिक माना जाएगा। विकल्प की राजनीति के लिए वैकल्पिक राजनीतिक भाषा भी उतनी ही आवश्यक है। 

एक जमाना था जब भारत के लोकप्रिय और देश में जनतंत्र की नींव रखने वाले पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन को हटाकर प्रधानमंत्री पद के साथ-साथ पार्टी अध्यक्ष पद भी ले लेने पर गैर लोकतांत्रिक आचरण के आरोप आमंत्रित कर आलोचना के पात्र बने थे। पांच वर्ष के बाद उन्हें कांग्रेस पद छोडऩे के लिए बाध्य होना पड़ा था। जब 1977 में हार के बाद पार्टी विभाजित कर अपने गुट की अध्यक्ष बनीं इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता वापसी के बाद प्रधानमंत्री और पार्टी पद एक साथ संभाले रहीं तो उस आचरण को भी प्रबुद्ध जनमानस ने लोकतांत्रिक नहीं माना। राजीव गांधी का भी वैसा ही आचरण अलोकतांत्रिक माना गया। वह तो संयोग से बाद में सोनिया गांधी के सत्ता नहीं संभालने के कारण प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष पद का लोकतांत्रिक द्वैत कांग्रेस में बहाल हुआ। भारतीय जनता पार्टी के बहुसंख्यकवादी तंत्र थोपने के रुझान की हमेशा अलोकतांत्रिक कहकर आलोचना की गई है पर वहां हमेशा प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष पद अलग-अलग हाथों में रहे। लेकिन विडंबना देखिए कि इन दोनों प्रमुख पार्टियों की राजनीति की आलोचक 'आप’ के कई महत्वपूर्ण नेता एक ही व्यक्ति के हाथ में मुख्यमंत्री पद और राष्ट्रीय संयोजक पद केंद्रित होना सामान्य मानते हैं।

ऊपर की इन बातों के अलावा कई अन्य बातें भी हैं जिनकी चर्चा पार्टी के अंदरूनी लोकपाल एडमिरल रामदास अपने दो टूक पत्र में कर चुके हैं। इसे दोहराना यहां जरूरी नहीं हैं।  इसके पहले अंदरूनी लोकपाल की जांच के बाद 'आप’ ने विगत चुनाव में अपने दो संदिग्ध उक्वमीदवार बदल भी दिए थे। उपर्युक्त सभी तथ्यों और अन्य कई तरह की अफवाहों ने 'आप’  के  हजारों समर्थकों की आशाओं पर पानी फेर कर उन्हें हतोत्साहित किया है। इन सब बातों के आलोक में हम यही आगाह कर सकते हैं:  'आप’  मत बनो वे। बुराई को ही चुनना हो तो डुप्लीकेट और मौलिक में जनता कई बार डुप्लीकेट छोड़ मौलिक चुनती है।    

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