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राजनीति की उलटी चाल

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में सीटें भले ही 28 जीती और बहुमत से 8 सीटें कम रह गई मगर प्रचार के साफ-सुथरे और गैरपरंपरागत तरीके अपनाकर महज एक साल पुरानी इस पार्टी ने 15 वर्षों से मजबूती से दिल्ली में जमी शीला दीक्षित सरकार का तंबू तो उखाड़ा, इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी की लहर चल रही है।
राजनीति की उलटी चाल

भारतीय राजनीति में पिछले कुछ सप्ताह आश्चर्यजनक रहे हैं। चीजें इतनी तेजी से बदली हैं कि विश्वास नहीं होता कि यह वही भारतीय राजनीति है जिसमें कोई भी बदलाव महीने भर पहले तक असंभव दिखता था। क्या कोई मान सकता था कि किसी भी राज्य विधानसभा में विधायकों की संख्या के हिसाब से सबसे बड़ी पार्टी सरकार बनाने का मौका मिलने के बावजूद इससे इनकार कर सकती है? क्या किसी को इस बात का भरोसा था कि पिछले चार दशकों से ठंडे बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक, आधा-अधूरा ही सही, संसद के दोनों सदनों से करीब-करीब आम सहमति से पारित हो जाएगा? यही नहीं, किसी दूसरी पार्टी के समर्थन से स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा पार होने के बावजूद कोई पार्टी सरकार बनाने में आनाकानी करे और सरकार बनाने या न बनाने के बारे में आम जनता की राय पूछकर अंतत: सरकार बनाने का फैसला करे। क्या लोग यह सोच सकते थे कि चुनाव लडऩे का खर्च आम लोगों से ही लेकर और बेहद कम खर्च में कोई पार्टी एक राज्य का विधानसभा चुनाव लड़ सकती है? यह सब भारतीय राजनीति के हिसाब से कल्पना लोक की बातें लगती हैं मगर दिल्ली और देश की जनता इस बड़े राजनीतिक बदलाव की साक्षी है।

इस राजनीतिक बदलाव के बीज छिपे हैं 8 दिसंबर को आए दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजों में। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में सीटें भले ही 28 जीती और बहुमत से 8 सीटें कम रह गई मगर प्रचार के साफ-सुथरे और गैरपरंपरागत तरीके अपनाकर महज एक साल पुरानी इस पार्टी ने 15 वर्षों से मजबूती से दिल्ली में जमी शीला दीक्षित सरकार का तंबू तो उखाड़ा, इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी की लहर चल रही है। कांग्रेस के खिलाफ जनता में फैले गुस्से का लाभ उठाने को तैयार भारतीय जनता पार्टी बहुमत से 4 सीटें दूर रह गई। आम हालात में भाजपा सरकार बनाने का दावा करती और 8 सीटें जीतने वाली कांग्रेस या आप में ही सेंधमारी कर बहुमत का आंकड़ा पूरा करती मगर साफ-सुथरी राजनीति के वादे के साथ चुनाव लड़ी आप की जीत ने पार्टी को ऐसा कोई भी कदम उठाने से रोक दिया। इसका अर्थ यह नहीं है कि पार्टी की सोच में कोई आमूल-चूल बदलाव आ गया है बल्कि इसका सिर्फ इतना ही मतलब है कि लोकसभा चुनाव से पहले ऐसे हथकंडे अपना कर पार्टी जनता के बीच अपनी छवि खराब नहीं करना चाहती। वजह जो भी हो, इतना तो तय है कि बड़े राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। तभी तो सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी कहना पड़ता है कि अब हमें आम आदमी पार्टी से कई चीजें सीखने की जरूरत है। भाजपा तथा अन्य पार्टियां भले ही लोकपाल विधेयक पारित होने के लिए अण्णा हजारे के हालिया अनशन को श्रेय दें मगर असलियत यही है कि अगर आम आदमी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐसी सफलता नहीं मिली होती और इसका पूरे देश पर असर पडऩे की उम्मीद नहीं होती तो केंद्र सरकार किसी भी हाल में इस विधेयक को आगे बढ़ाने का फैसला नहीं लेती। भारतीय राजनीति का यह बदलाव शुभ है और इसका निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए।

बॉक्स

दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल

-हरियाणा के हिसार में 1968 में जन्म। कैंपस स्कूल में पढ़ाई और आईआईटी, खडग़पुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग। 

-वर्ष 1995 में भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी। इससे पहले करीब दो साल तक टाटा स्टील में काम किया।

-साल 2000 में उच्च शिक्षा के लिए दो वर्ष का सवैतनिक अवकाश मिला। साल 2003 में अवैतनिक छुट्टी पर गए; साल 2006 में संयुक्त आयुक्त, आयकर के पद से इस्तीफा दिया।

-नौकरी के दौरान संपूर्ण परिवर्तन नाम के स्वयंसेवी संगठन की स्थापना में मदद की जिसने स्वच्छता, आईटी विभाग से भ्रष्टाचार मिटाने और पूर्वी दिल्ली के बिजली विभाग में सुधार की दिशा में काम किया है।

-साल 2000 में भारत डोगरा, शेखर सिंह, अरुणा रॉय, निखिल डे के संपर्क में आए और सूचना के अधिकार बिल का मसौदा तैयार करने के लिए काम किया जो साल 2005 में आरटीआई कानून बन गया।

-परिवर्तन का हिस्सा बने जो अगस्त 2002 में संपूर्ण परिवर्तन से अलग होने के बाद एक जन आंदोलन के रूप में शुरू किया गया था। इस नई टीम ने अरुणा रॉय के एमकेएसएस (मजदूर किसान शक्ति संगठन) के साथ, जो पूर्वी दिल्ली के सुंदर नगरी की झुग्गी-झोपडिय़ों में शहरी विकास कार्यों से जुड़ा था, पहली बार जन सुनवाई का आयोजन किया और एक घरेलू नाम बन गया। इसके अलावा उन्होंने जन वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने की दिशा में काम किया। परिवर्तन 2003 से दिल्ली विधानसभा चुनावों की निगरानी में जुटा है।

-साल 2006 में मैगसायसाय पुरस्कार जीता। पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) का गठन किया।

-साल 2007 में ग्राम स्वराज ( विकेंद्रीकरण की गांधीवादी अवधारणा) और वार्ड सभा (अभिनेता आमिर खान और बाबा रामदेव से समर्थन मांगा) के साथ प्रयोग शुरू किया।

-अरुणा रॉय, निखिल डे, शेखर सिंह और हर्ष मंदर के साथ सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा बने जिसने 2009 के आस-पास लोकपाल विधेयक पर काम करना शुरू किया था। उनसे अलग होकर 2011 में जन लोकपाल बिल बनाने पर काम किया।

- जनवरी 2011 में उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का विचार आया। लोकपाल विधेयक को कानून बनाने की मांग के साथ उसी साल पहले अप्रैल फिर सितंबर में और फिर 2012 में अनशन पर बैठे।

-साल 2012 में अण्णा हजारे से अलग हो गए। प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, संजय सिंह, गोपाल राय, मनीष सिसोदिया, शाजिया इल्मी और कुमार विश्वास के साथ नवंबर, 2012 में आम आदमी पार्टी को एक राजनीतिक संगठन के रूप में शुरू किया। 

-दिल्ली के चुनाव पहला कदम था। दिसंबर, 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी ने 70 में से 28 सीटों पर जीत दर्ज की।

-आईआरएस अधिकारी सुनीता उनकी जीवनसंगिनी हैं और दो बच्चे हैं।

मारक आप

अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने कैसे बदल दिया भारतीय राजनीति को

क्या था जो आप के हक में गया

-साल 2011 में अण्णा हजारे के नेतृत्व में जन लोकपाल आंदोलन और घोटालों से भरी यूपीए की उनके राह में बाधा डालने की कोशिश।

-जंतर-मंतर और रामलीला मैदान आंदोलन के दौरान दिल्ली स्थित मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जबरदस्त समर्थन।

-दिल्ली के एक छोटा राज्य होने के कारण बड़ी दृश्यता, आम स्थानीय भाषा और तकनीक की समझ रखने वाले युवाओं की फौज।

-केंद्र्र में दिल्ली के मुद्दे, जहां मनमोहन सिंह सरकार की नाकामियों को अपना तीसरे कार्यकाल पूरा करने जा रहीं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने छुपा दिया था। 

-प्रमुख विपक्षी दल भाजपा लोकपाल बिल का विरोध करने में कांग्रेस से अलग नहीं थी।

-शहरी मतदाता दिल्ली में जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति से अपेक्षाकृत मुक्त थे जिसने आप को नए चेहरे मैदान में उतारने का अवसर दिया ।

आप ने इसे कैसे संभव बनाया

-भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मूल समर्थकों ने आप में स्वयंसेवकों के रूप में शामिल होकर इसे 4,000 समर्पित लोगों की मजबूत सेना दी।

-कांग्रेस की दाईं तरफ और भाजपा की बाईं तरफ रहकर आप, दोनों ही तरफ के असंतुष्ट मतदाताओं को आकर्षित करने में कामयाब रही।

-राबर्ट वाड्रा और रिलायंस इंडस्ट्री के मुद्दे उठाकर इस उपेक्षित समूह ने साबित किया कि वे मुद्दों को सामने ला सकते हैं और उसपर कार्रवाई को मजबूर भी कर सकते हैं।

-अपना फोकस लगातार व्यक्तिगत मतदाताओं और उनकी समस्याओं, खाद्य वस्तुओं की कीमतों, बिजली दरों आदि पर बनाए रखा।

-सामाजिक और आउटडोर मीडिया का अच्छा इस्तेमाल किया, ऑटो रिक्शा और एफएम रेडियो चैनलों पर कम लागत वाले विज्ञापनों ने गहरा प्रभाव डाला।

-कांग्रेस और भाजपा की महंगी और बड़ी रैलियों का विरोध करने के लिए मोहल्ला सभाएं की।

आप के सामने चुनौतियां

-स्वयंसेवक आंदोलन को संगठनात्मक ढांचे में बदलना। इसमें समय, पैसा और लोग लगेंगे।

-अराजक और आत्मतुष्ट लोकलुभावनवाद के परे एक सशक्त और जिम्मेदार विचारधारा का ढांचा तैयार करना।

-मुख्यधारा की पार्टियों और राजनेताओं की पहचान बन चुके जिस लालच का इतनी उग्रता से विरोध किया उससे बच के रहना।

-इस धारणा को तोडऩा कि इस प्रकार की सैद्धांतिक राजनीति सिर्फ शहरों में चलती है, ग्रामीण भारत में नहीं।

-कश्मीर, धारा 370, माओवाद, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर लोकतांत्रिक दृष्टि बनाए रखते हुए एकात्मक संदेश देना।

-यह साबित करना कि यह सिर्फ कांग्रेस के वोट को विभाजित करने की योजना नहीं थी क्योंकि नरेंद्र मोदी पर हमला करने में अब तक अनिच्छा दिखी है।

यह भारत भर में क्यों काम करेगा

-तेजी से शहरीकृत होते भारत में एक जैसे ही मुद्दे हैं। युवा, प्रवासी, आकांक्षी आबादी मुख्यधारा की राजनीतिक उदासीनता का सामना कर रहे हैं।

-कांग्रेस और भाजपा से ऊब चुकी बदलाव चाहने वाली जनता के लिए आप एक आकर्षण है जो इसे एक मौका देना चाहती है।

-इतने कम समय में आप को मिली सफलता बताती है कि राजनीति में शहरी मध्य वर्ग का स्वैच्छिक रूप से आना उपहास की बात नहीं है।

- कांग्रेस और भाजपा ने भ्रष्टाचार पर मध्य वर्ग के गुस्से और क्रोध, जो हर व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करता है, को संबोधित करने की उत्सुकता नहीं दिखाई।

-भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति के साथ आम नागरिकों की समस्याएं शहरों में एकजुटता ला सकती है क्योंकि यहां वोट बैंक की पहचान अपेक्षाकृत कम होती है।

-ऐसी आर्थिक नीतियां जहां लाखों लोगों को नजरअंदाज न किया जाए, अपनाने वाली सामाजिक लोकतांत्रिक पार्टी के लिए एक जगह है।

साल 2014 में यह क्यों नहीं हो सकता

-इतने कम समय में समान स्तर की ऊर्जा, अखंडता और समर्पण के साथ, 543 अरविंद केजरीवाल की तलाश करना आसान काम नहीं है।

-संसदीय चुनाव बड़े चुनाव क्षेत्रों में फैला होता है जिसके लिए बहुत अधिक पैसा, मानव और अन्य संसाधनों की जरूरत पड़ती है।

- भ्रष्ट कॉर्पोरेटों के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद व्यापारिक घरानों से पैसा हासिल करना या उनसे पैसा स्वीकारना आसान नहीं होगा।

-दिल्ली के विपरीत ज्यादातर शहरी इलाकों में धर्म, जाति, भाषा राजनीतिक वास्तविकता हैं जिन पर अधिकांश मतदाताओं का विश्वास है।

-अगर सिर्फ एक बार सफल होने के लेबल से मुक्त होना है तो आप को जल्द ही भ्रष्टाचार से परे अपने लिए एक जगह तलाशनी होगी।

-स्थानीय जिताऊ मुद्दों के साथ आप दिल्ली-केंद्रित बाधाओं से कैसे पार पाएगी?

इसने कांग्रेस और भाजपा को कहां छोड़ा है

-अब चुनाव की फंडिंग और प्रचार अभियान के खर्च का खुलासा करना पड़ेगा।

-अपेक्षाकृत साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों की खोज करनी होगी।

-एक मौके का इंतजार कर रहे नए मतदाताओं की आकांक्षाओं का जवाब तलाशना होगा।

-बड़ी रैलियां और महंगे विज्ञापन का नकारात्मक प्रभाव पडऩे का खतरा।

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