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जनादेश ’24/ दक्षिण के सितारे: सिनेमा से बनती-बिगड़ती सियासत

फिल्मी सितारों का सबसे ज्यादा प्रभाव राजनीति में अगर कहीं रहा है, तो वह है दक्षिण भारत, खासकर...
जनादेश ’24/ दक्षिण के सितारे: सिनेमा से बनती-बिगड़ती सियासत

फिल्मी सितारों का सबसे ज्यादा प्रभाव राजनीति में अगर कहीं रहा है, तो वह है दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु

चार दशक पहले की बात है। तब आंध्र प्रदेश बंटा नहीं था और 1983 के असेंबली चुनाव होने वाले थे। हरी शेवरले वैन को बदल कर बनाया एक रथ पूरे राज्य में लगातार दौड़ रहा था। कभी-कभार और कहीं-कहीं वह रुक जाता था। उस रथ पर सवार थे नंदमुरी तारक रामा राव यानी लोगों के प्रिय एनटीआर, जिनके चाहने वालों की संख्या लाखों में थी। हर कोई सांस रोके बस इसी इंतजार में होता था कि एक बार अपने प्यारे अन्ना का चेहरा दिख जाए। एनटीआर ने अपनी फिल्मों में कृष्ण, कर्ण और दुर्योधन के किरदार निभाए थे, लेकिन इस चुनाव में उन्हें देखने वालों का तांता किरदारों की लोकप्रियता के कारण नहीं था। उन्होंने दरअसल तभी एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई थी। उसका नाम था तेलुगुदेसम पार्टी और नारा था तेलुगु आत्मसम्मान।

कुल 75000 किलोमीटर की दूरी नापने वाले उस रथ की ताकत से एनटीआर ने सूबे की कांग्रेसी सरकार को उखाड़ फेंका और राजनीति में एक नए युग का आगाज किया। दक्षिण भारत की राजनीति में इससे पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया था।    

करुणानिधि

करुणानिधि

चार दशक बाद एनटीआर के पौत्र और टॉलीवुड के स्टार एनटी रामाराव जूनियर से मिलने जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह हैदराबाद पहुंचे, तो कुछ लोगों ने इसे ‘शिष्टाचार भेंट’ का नाम दिया। लेकिन अधिकतर लोगों को इसमें कुछ अचरज जैसा महसूस नहीं हुआ। भाजपा ने इस मुलाकात के बारे में यह प्रचार कर रखा था कि एसएस राजामौलि की फिल्म आरआरआर में जूनियर के अभिनय की सराहना करने शाह गए थे। इस फिल्म‍ में जूनियर ने एक काल्पनिक पात्र कोमाराम भीम का किरदार निभाया था, जिसे तेलंगाना का सम्मानित आदिवासी नेता बताया गया था। फिल्म इतिहासकारों और आदिवासी कार्यकर्ताओं का कहना था कि इस मुलाकात के पीछे भाजपा द्वारा आदिवासी नेताओं को अपने पाले में खींचने और वोट पाने के लिए टॉलीवुड के सितारों का इस्तेमाल करने की रणनीति है।

आरआरआर का टीजर रिलीज होने के बाद भाजपा के एक आदिवासी सांसद सोयम बापू राव ने इस बात पर एतराज जताया था कि भीम को तावीज, मुस्लिम टोपी और पठानी कुर्ता पाजामा पहने हुए दिखाया गया। उनका दावा था कि ‘‘भीम एक हिंदू था जो इस्लामी शासन के खिलाफ लड़ रहा था।’’ इस इलाके के आदिवासी इस दावे को खारिज करते हैं।

बहरहाल, अमित शाह से मुलाकात के बाद अटकलें लगाई जानी लगीं कि एनटीआर जूनियर भाजपा में आ जाएंगे, लेकिन अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है।

सितारों की सियासत की जमीन

भारत के फिल्म उद्योग पर बात करते वक्ते भले ही मुंबई और बॉलीवुड का जिक्र अपने आप आ जाता हो लेकिन फिल्मी सितारों का सबसे ज्यादा प्रभाव राजनीति में अगर कहीं रहा है, तो वह दक्षिण भारत है, खासकर तमिलनाडु में। वास्तव में छह दशक होने को आए जब इस राज्य में कोई मुख्यमंत्री ऐसा बना हो जिसका सिनेमा से वास्ता न रहा हो। अन्नादुरै, करुणानिधि, एमजीआर, जयललिता और स्टालिन, सभी किसी न किसी रूप से सिनेमा से जुड़े रहे हैं।

एम.जी. रामचंद्रन और जयललिता

एम.जी. रामचंद्रन और जयललिता

फिल्म आलोचक एमके राघवेंद्र कहते हैं, ‘‘यह मानना गलत होगा कि इनकी कामयाबी का विचारधारा से कुछ लेना-देना रहा। उनका अभिनेता होना ही काफी था क्योंकि वे ही स्थानीय जाति समूहों को इतनी बड़ी संख्या में अपनी ओर खींच पाते हैं।’’

संयोग की बात है कि बीसवीं सदी में जातिगत भेदभाव से लड़ने के लिए जिस द्रविड़ आंदोलन ने आकार लिया, उसे सिनेमा में एक स्वाभाविक साझेदार मिल गया। यह एकता इस हद तक रही कि 1967 में न्यू‍यॉर्क टाइम्स ने तमिलनाडु की सियासत में फिल्मी सितारों के दखल पर एक लेख छापते हुए उसे कैलिफोर्निया जैसा बता दिया। इसी साल अन्नादुरै की अगुवाई में द्रमुक किसी राज्य में अपनी सरकार बनाने वाली पहली क्षेत्रीय पार्टी बनी थी।

नेता बने सितारों का निभाया किरदार उनके जनाधार को तैयार करने के काम आया- पहले फिल्मी दुनिया में और बाद में राजनीति में। मसलन, जयललिता ने शक्तिरूपा देवी का किरदार निभाया (आदि पराशक्ति, 1971) तो गरीब किसान की भी भूमिका में नजर आईं (आदिमाई पेन, 1969)। एमजीआर भी एक गरीब मजदूर (तोजिलाली, 1964), रिक्शा चालक की भूमिका में (रिक्शाकरन, 1971) दिखे, जहां वे रोजाना के उत्पीड़न से लड़ रहे थे। एमजीआर तब चालीस के लपेटे में थे और जयललिता बीस पार कर चुकी थीं। दोनों की जोड़ी तब बनी। दोनों ने बड़े परदे पर जादू कर डाला। यहां जयललिता केवल नायक की परछाई के रूप में मौजूद नहीं थीं। उनकी अपनी एक स्वतंत्र शख्सियत थी।

विद्वान रॉबर्ट एल. हार्डग्रेव लिखते हैं कि इन दोनों की फिल्में सामाजिक सुधार और पार्टी के प्रचार दोनों की वाहक थीं जिनमें अस्पृश्यता, आत्मसम्मान, जमींदारी प्रथा के उन्मूलन, शराबबंदी और धार्मिक पाखंड जैसे विषय उठाए जाते थे। ज्यादातर फिल्मों में ‘अन्ना’ नाम का एक किरदार हुआ करता था, जो बहुत समझदार और करुणामय शख्स था, जो लोगों को सलाह देता था। यह इत्तेफाक नहीं है कि स्थानीय भाषा में अन्ना‍ को भाई समझा गया जबकि अन्ना तो पहले से ही अन्नादुरै के नाम में जुड़ा हुआ था।

हार्उग्रेव लिखते हैं कि जैसे-जैसे राजनीति के आकाश पर ये दोनों छाते गए, लोगों की भीड़ इन्हें  जनसभाओं में देखने को उमड़ती गई। वे इनमें आम आदमी या औरत की छवि देखते थे। फिर चाहे अन्ना हों या अम्मा, यानी जयललिता।

इनकी चुनावी कामयाबी का लेना-देना हालांकि केवल इनके निभाए किरदारों या इनकी विचारधारा का परिणाम नहीं था। बेंगलुरु की अजीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में प्रोफेसर एसवी श्रीनिवास अपनी पुस्तक मेगास्टार: चिरंजीवी ऐंड तेलुगु सिनेमा ऑफ्टर एनटी रामाराव में बताते हैं कि कैसे फिल्मी सितारों को चाहने वाले अपनी जाति के सितारों के लिए गोलबंदी करते हैं।

कमल हासन

कमल हासन

वे लिखते हैं, ‘‘बड़े सितारों के ज्यादातर मुरीद नौजवान होते हैं, जो गैर-ब्राह्मण निचली जातियों से आते हैं। कई सितारों के चाहने वालों में दलित भी अच्छी  संख्या  में होते हैं, लेकिन हर जाति के हिसाब से सबको अपने-अपने सितारे मिल जाएं इतने स्टार हैं ही नहीं।’’

इसलिए जब कम्मा जाति से आने वाले एनटीआर अपनी बिरादरी में लोकप्रिय हुए, तो ऐसा पहली बार हुआ कि रेड्डी समुदाय से बाहर का कोई आदमी राजनीतिक सत्ता साथ लेकर आ रहा था। इसलिए पूरे समुदाय ने उनके पीछे अपना पूरा जोर लगा दिया।

फिल्म आलोचक और इतिहासकार इस बात से तो सहमत हैं कि सितारों की लोकप्रियता बेशक शुरुआती सियासी लाभ देती है लेकिन वे यह भी मानते हैं कि जरूरी नहीं है कि लोकप्रिय अभिनेता हमेशा ही राजनीति में कामयाब होंगे। श्रीनिवास इस मामले में चिरंजीवी का उदाहरण देते हैं, जिनका प्रदर्शन 2008 के चुनावों में बहुत खराब रहा था। चिरंजीवी ने इंद्र (2002), टैगोर (2003) और शंकर दादा एमबीबीएस (2004) जैसी हिट फिल्में  देने के बाद कांग्रेस और तेलुगुदेसम के विकल्प  के तौर पर 2008 में अपनी राजनीतिक पार्टी प्रजा राज्यम पार्टी (पीआरपी) बनाई, लेकिन फिल्मों से उलट यह पार्टी फ्लॉप रही। 2009 के चुनाव में 294 सीटों वाली विधानसभा में उनकी पार्टी को केवल 18 सीटें मिलीं। इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर डाला और केद्रीय मंत्री भी बन गए, लेकिन अंतत: राजनीति को उन्होंने अलविदा कह दिया जब आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद वहां कांग्रेस तकरीबन साफ हो गई।

यही कहानी तमिलनाडु में कमल हासन की भी रही। 2016 में जयललिता और 2018 में करुणानिधि के अवसान के बाद कमल हासन राजनीति के अखाड़े में कूदे। लेखक और संस्कृति के आलोचक विजय साई की मानें तो ‘‘वे एक नाकाम नेता थे।’’ साई के मुताबिक उन्हें सूबे के जमीनी हालात का कुछ भी अंदाजा नहीं था और अपनी राजनीतिक विचारधारा को भी वे स्पष्ट नहीं कर पाए। उनकी पार्टी मक्कल नीधि मइयम (एमएनएम) का 2022 के नगर निकाय चुनावों में खाता तक नहीं खुला और उससे पहले 2021 के असेंबली चुनावों में केवल 2.6 प्रतिशत वोट मिले। कमल हासन खुद कोयंबटूर दक्षिण से हार गए। साई कहते हैं, ‘‘राजनीति सिनेमा जितनी आसान नहीं है।’’

कोस्तांतीन वी. नकासिस ने अपनी किताब ऑनस्क्रीन/ऑफस्क्रीन (2022) में साफ लिखा है कि कमल हासन ने राजनीतिक विचारधारा के रूप में प्रभुत्ववादी द्रविड़ विचार को नहीं अपनाया, इसके बजाय उन्होंने घोषित रूप से कहा कि वे ‘मध्यमार्ग’ पर चलेंगे।

उभरते हुए स्टार नेता

लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं, ज्यादा से ज्या‍दा फिल्मी सितारे या तो राजनीति में आ रहे हैं या फिर अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों का बड़े/राष्ट्रीय दलों में विलय कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में श्रीनिवास के मुताबिक जनसेना पार्टी के पवन कल्याण ऐसे नेता हैं, जिन पर नजर रखी जानी चाहिए, ‘‘इसलिए नहीं कि वे भविष्य में मुख्यमंत्री बन जाएंगे’’, बल्कि इसलिए कि वे एक ऐसे गठबंधन का हिस्सा हैं, जो राज्य के स्तर पर कभी भी सत्ता में आ सकता है। गौरतलब है कि पवन कल्याण की जनसेना का तेदेपा और भाजपा के साथ इस चुनाव में गठबंधन है।

पवन 2013 में अपनी धमाकेदार फिल्म  अतारिंतिकी दारेदि से प्रसिद्ध हुए थे। उन्होंने 2014 में जनसेना पार्टी बनाई, जिसके बारे में उनका दावा है कि यह पार्टी बिना जाति और धर्म के राजनीति करती है। हैदराबाद में अपनी पार्टी को लॉन्च करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मेरी कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं है। मैं भारतीय हूं।’’ उस साल उनकी पार्टी ने कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया था, लेकिन उन्होंने तेदेपा-भाजपा गठबंधन को बिना शर्त समर्थन जारी रखा और तेदेपा प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और प्रधानमंत्री के भाजपा प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के साथ प्रचार करते रहे।

बीते वर्षों में कल्याण वैचारिक स्तर पर बहुत ढुलमुल साबित हुए हैं। उन्होंने भाकपा और माकपा को पकड़ा और 2019 में गठबंधन के भीतर बसपा को लाते हुए दलितों के प्रति अपनी वैचारिक आस्था  जताई। परदे पर वे नाराज और बागी हीरो के किरदारों में दिखते हैं, इसलिए श्रीनिवास का मानना है कि कल्याण की बयानबाजियां उनकी फिल्मों से मेल खाती हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैं पक्का नहीं कह सकता कि उनकी विचारधारा क्या है।’’ यह बात अलग है कि पवन कल्याण लगातार जगनमोहन रेड्डी के विरोधी बने रहे और अब भी वे चे ग्वैरा के मुरीद हैं। श्रीनिवास बताते हैं कि हर चुनाव के साथ भाजपा को लेकर उनका रुख बदलता ही रहा है।

वे आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा दिए जाने के मसले पर लगातार भाजपा और तेदेपा के ऊपर हमलावर रहे हैं, लेकिन बीते दिनों अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा आयोजन में उन्हें और नायडू को केंद्र सरकार से मिला न्योता इस बात का संकेत था कि यह गठबंधन दोबारा बहाल हो सकता है। भाजपा अब तक आंध्र प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत पाई है, तो हो सकता है कि कल्याण के कंधे पर सवारी गांठ कर वह यहां सेंध लगाने की कोशिश में हो। दूसरी ओर कल्याण को भी एक राष्ट्रीय पार्टी के कंधे की जरूरत है।

सलमान खान की ब्लॉकबस्टर फिल्म दबंग के तेलुगु रीमेक गब्बर सिंह (2012) में ‘सुपरकॉप’ बने कल्याण का एक डायलॉग था, ‘‘मैं टाइम में नहीं, अपनी टाइमिंग में विश्वास करता हूं।’’ उनकी पार्टी की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को शायद इसी डायलॉग से बेहतर समझा जा सकता है, जिसने समय रहते भाजपानीत एनडीए के साथ गठजोड़ कर डाला है। सवाल बस इतना है कि समय उनके हक में इस बार होगा या नहीं।

 

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