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वाजपेयी से मोदी तक हिन्दुत्व का सफर

बीते बारह सालों में भारतीय राजनीति में बड़ा उतार-चढ़ाव रहा है। साल 2002 की अगर बात करें तो केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे।
वाजपेयी से मोदी तक हिन्दुत्व का सफर


बीते बारह सालों में भारतीय राजनीति में बड़ा उतार-चढ़ाव रहा है। साल 2002 की अगर बात करें तो केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे। बारह साल बाद 2014 में भी देश में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार है और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। अंतर बस इतना है कि उस समय भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ नहीं थी लेकिन आज पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में है। साल 2002 में ही नरेंद्र मोदी की राजनीति परवान चढ़ी थी जब गुजरात में गोधरा जैसे कांड के बाद मुसलमानों का खौफनाक कत्लेआम हुआ और राज्य के विधानसभा चुनावों में भाजपा को बड़ी जीत मिली। नरेंद्र मोदी दूसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने। यह महज संयोग ही कहा जाएगा कि जिस सांप्रदायिक रंग ने गुजरात में नरेंद्र मोदी को एक बड़ी जीत दिलाई मुज्जफरनगर दंगों से उपजे उसी सांप्रदायिक रंग ने बारह साल बाद उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को एक बड़ी जीत दिलाई। इसकी उम्मीद खुद भाजपा के शीर्षस्थ नेता भी नहीं कर रहे थे। लेकिन उत्तर प्रदेश की जीत ने भाजपा को एक बड़ी ताकत दी। उसी ताकत के बल पर भाजपा आज क्षेत्रीय दलों को आंख दिखा रही है। बीते बारह साल के सियासी सफर पर अगर नजर डालें तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने भारत उदय (शाइनिंग इंडिया) का नारा देकर देश की जनता को प्रलोभन देने की पुरजोर कोशिश की लेकिन इस नारे ने 2004 के लोकसभा चुनाव में राजग को बुरी तरह परास्त कर दिया। कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)की सरकार बनी और विदेशी मूल का मुद्दा न उछले इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नेतृत्व त्याग कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। उनका साथ वामपंथी दलों के अलावा दक्षिणपंथ के विरोधी सभी दलों ने दिया। कुछ सरकार में शामिल रहे तो कुछ ने बाहर से समर्थन किया। भारत-अमेरिका परमाणु करार के चलते वामपंथी दलों ने संप्रग से किनारा कर लिया। सरकार गिरते-गिरते बची लेकिन राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई। 'कैश फॉर वोटÓ जैसा प्रकरण सुर्खियां बना और संसद की गरिमा भी गिरी। लेकिन सियासत में सबकुछ जायज है कहावत को चरितार्थ करते हुए राजनीतिक दल अपना-अपना स्वार्थ सिद्घ करने में लगे रहे। सरकार पर घोटालों के आरोप लगे लेकिन साल 2009 में एक बार फिर जनता ने संप्रग पर भरोसा जताया और मनमोहन सिंह को एक बार फिर सत्ता संभालने का अवसर मिला। लेकिन इस जीत के नायक के रूप में कांग्रेस उपाध्यक्ष गांधी रहे। उनके युवा जोश की बदौलत भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को जनता ने 'पीएम इन परमानेंट वेटिंगÓ के रूप में ही बने रहने का अवसर दिया। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक भले ही संप्रग का शासन केंद्र की राजनीति में दस साल का रहा लेकिन सियासी चर्चा के केंद्र में नरेंद्र मोदी रहे। चाहे वह गुजरात दंगों की चर्चा हो या फिर विकास की। दोनों को लेकर विगत वर्षों में मोदी चर्चा के केंद्र में बने रहे। गुजरात में सत्ता संभालने के बाद से मोदी ने कुर्सी तभी छोड़ी जब प्रधानमंत्री बने। मतलब साफ है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की अपनी मंशा 2002 में ही बना ली थी जब सियासत में उनकी चर्चा जोर-शोर से होने लगी। गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब मोदी को 'राजधर्मÓ निभाने की बात कही थी तभी मोदी के राजनीतिक उदय की चर्चाएं भी होने लगी। उसी समय मोदी चर्चा में आए और तबसे लगातार चर्चा में बने हुए हैं। वाजपेयी और मोदी की कार्यशैली में बड़ा फर्क है। जिस राजधर्म की बात वाजपेयी करते रहे मोदी उसके उलट अपनी कार्यशैली में ही काम करते रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उस समय इतना हस्तक्षेप नहीं था जितना की आज है। वाजपेयी अपने ओजस्वी विचारों से लोगों का दिल जीतते तो मोदी कॉरपोरेट के सहारे लोगों के बीच अपनी जगह बना रहे हैं। ब्रांडिग के मामले में आज नरेंद्र मोदी ने सभी को पीछे छोड़ दिया है।  साल 2009 में भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग के चुनाव लडऩे की चर्चाएं थी लेकिन भाजपा के शीर्ष नेताओं के चलते ऐसा नहीं हो पाया। साल 2014 में जब नेतृत्व की बात सामने आई तो भाजपा के सामने तस्वीर साफ हो गई कि बिना नरेंद्र मोदी के सरकार बनाना मुश्किल है क्योंकि नरेंद्र मोदी अपनी छवि 'विकास पुरुषÓ के रूप में गढ़ चुके थे। आज भाजपा कमल निशान पर नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगती नजर आ रही है। पार्टी का नारा भी है, 'चलो चलें मोदी के साथÓ। आज नरेंद्र मोदी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती बन गए है। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस देश के 10 फीसदी हिस्से तक सिमट गई। भाजपा के पास सत्ता के दस नए राज्य हो गए। इनमें केवल एक छोटा राज्य गोवा शामिल है। वहीं कांग्रेस के पास नौ राज्य हैं जिनमें केवल एक बड़ा राज्य कर्नाटक शामिल है। एक साल पहले तक कांग्रेस के पास 50 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाले राज्य थे लेकिन अब महज उसके पास 13.57 फीसदी राज्य ही रह गए हैं। वहीं भाजपाशासित राज्यों की 46 फीसदी जीडीपी है। कांग्रेस केंद्र में विरोध के काबिल भी नहीं रह गई। इसलिए बाकी दलों ने मिलकर केंद्रीय नेतृत्व के विरोध का खांका तैयार किया है। लेकिन संख्या बल के कारण ये दल कमजोर नजर आ रहे हैं।
बारह सालों के सियासी सफर में क्षेत्रीय स्तर पर भी बड़ा बदलाव देखने को मिला है। पश्चिम बंगाल में सालों से सत्ता पर काबिज वामपंथी दल सत्ता से दूर हुए तो नए राजनीतिक अस्तित्व के साथ ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता संभाली। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को राज्य में बड़ी सफलता मिली थी। वहीं उड़ीसा जैसे राज्य में नवीन पटनायक की वर्षों से सत्ता कायम है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भाजपा की हैट्रिक बनी तो दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा की सियासत में बड़ा बदलाव हुआ। दस सालों से सत्ता संभाले कांग्रेस गठबंधन हरियाणा और महाराष्ट्र में बुरी तरह से पराजित हुआ तो दिल्ली में नए राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी ने पंद्रह सालों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस को बुरी तरह से परास्त किया। भले ही यह सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चली लेकिन सियासत में आम आदमी की आवाज को कुछ ही दिनों के लिए जगह जरूर मिली। साल 2012 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी बड़ा बदलाव देखने को मिला जब समाजवादी पार्टी ने युवा नेता अखिलेश यादव के नेतृत्व में बड़ी जीत हासिल की। इस जीत ने यह साबित कर दिया कि जनता बदलाव चाहती है। वह बदलाव नेतृत्व के स्तर पर भी हो सकता है और सियासी स्तर पर भी। इसी सोच ने नए नेतृत्व के लिए रास्ता खोल दिया है। अब जनता पुरानी घिसी-पिटी बातों से आजिज आ चुकी है। भाजपा ने यह पहचाना और नए नेतृत्व पर भरोसा करके कई युवाओं को मौका दिया। आज भाजपा की सांगठनिक टीम में जहां नई उम्र के लोगों का वर्चस्व है वहीं कांग्रेस का सांगठनिक नेतृत्व पुरानी पीढ़ी पर ही भरोसा जता रहा है। सियासत का यह चेहरा पिछले बारह सालों में ही बदला है।  बारह साल पहले भाजपा में अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर जोशी जैसे पुराने चेहरे जो पार्टी की रणनीति तय करते थे। लेकिन आज नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ही भाजपा के लिए पर्याप्त है। वहीं कांग्रेस के पास साल 2002 में जो नेतृत्व था आज भी वही है। बारह सालों में कांग्रेस में तो कुछ नहीं बदला लेकिन भाजपा पूरी तरह से बदल गई।

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