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राहुल के अज्ञातवास की पटकथा

कांग्रेस नेतृत्व के पीढ़ीगत बदलाव में अपनी-अपनी जगह सुनिश्चित करने की कोशिशें राहुल गांधी के इस झटकेदार कदम से जाहिर होने लग गईं। दिग्विजय सिंह, पी.सी. चाको, कमलनाथ, चिदंबरम और जयराम रमेश सब अपने-अपने रवैयों के साथ सामने आने लगे। भूमि अधिग्रहण मसले पर पार्टी की नीति के बारे में जयराम रमेश और वीरप्पा मोइली ने बारीकी से अलग-अलग सुर बजाए। अपनी मनमोहन सरकार के दौरान ही नियमगिरि दौरे के समय से राहुल गांधी उद्योग हित में भू-अधिग्रहण मसले पर जिस नजरिये के साथ मुखर हुए थे उसका नतीजा था 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून। हालांकि संप्रग सरकार के कई मंत्री उससे सहमत नहीं थे। उसे संशोधित करने के लिए लाए गए मोदी सरकार के अध्यादेश और फिर उसे स्थायी कानून बनाने के लिए तैयार नए विधेयक के प्रति भी उनका विरोध और इसे लेकर आंदोलन करने का उनका इरादा भी जगजाहिर था।
राहुल के अज्ञातवास की पटकथा

चिंतन-मनन के नाम पर कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के विवादित अज्ञातवास के प्रसंग में अचानक आधुनिक युग के दो अति-महत्वपूर्ण लेकिन एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न दार्शनिक इतिहासकार याद आए।

इतिहासकार आर्नल्ड टॉयनबी ने महान युगनिर्माता व्यक्तितयों के संदर्भ में एक अहम पैटर्न की ओर ध्यान दिलाया है: तात्कालिक परिस्थितियों से बहिर्गमन (विथड्रॉल या रिट्रीट) और फिर नई ऊर्जा एवं प्रेरणा अर्जित कर नेतृत्व प्रदान करने के लिए पुनरागमन या वापसी। जैसे, गौतम सिद्धार्थ का राजपाट, घर-परिवार छोडक़र ज्ञान की खोज में निकल पडऩा और फिर बोधि प्राप्त कर गौतम बुद्ध बन संसार में लौटना। जैसे, हजरत ईसा का तीस वर्षीय अज्ञातवास और फिर मसीह बनकर ईश्वर का संदेश बांटने संसार में लौटना। जैसे, हजरत मोहम्मद की हिजरत और फिर अल्लाह का पैगाम लेकर मञ्चका वापसी। और आधुनिक काल में महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका प्रवास, वहां अहिंसक सत्याग्रह एवं सविनय अवज्ञा में स्व-दीक्षित होकर भारत लौटना और एक अनूठे स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करना। दूसरी तरफ कार्ल मॉर्क्स ने एक अन्य अहम ऐतिहासिक पैटर्न की ओर ध्यान दिलाया : इतिहास खुद को दुहराता है- पहले त्रासदी और फिर प्रहसन के रूप में।

खैर, राहुल गांधी की तुलना युगनिर्माता महात्माओं से करने की जुर्रत हम नहीं कर सकते लेकिन टॉयनबी अपने पैटर्न को इतिहास की अन्य महत्वपूर्ण शक्चिसयतों के लिए भी महत्वपूर्ण मानते थे। अब नेहरू-गांधी वंश के वर्तमान राजनीतिक वारिस के अज्ञातवास के संदर्भ में पर्यवेक्षकों को टॉयनबी का पैटर्न फलित होता दिखेगा या मार्क्स की उक्ति?  फिलहाल देखना यह है कि समय के थपेड़ों में कांग्रेस की डगमगाई नैया को दिशा देने के लिए लिए राहुल कौन सा कुतुबनामा लेकर आएंगे।

बीच संसदीय बजट सत्र में लोकसभा चुनावों तथा बाद के महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं में भारतीय जनता पार्टी की अपूर्व सिलसिलेवार जीतों के बाद दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी से करारी हार के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को मिले पहले बड़े धक्के और भूमि अधिग्रहण पर किसानों के आक्रोश का राजनीतिक फायदा उठाने के ऐन कगार पर राहुल का गायब होना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका साबित हुआ। यह बात निजी बातचीत में कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेता मानते हैं- राहुल को औपचारिक तौर पर कांग्रेस की कमान सौंपने के जोरदार सार्वजनिक हिमायती भी और इसकी आशंका से असुरक्षित महसूस कर रहे नेता भी। भाजपा नेताओं और उनकी तथा कुछ कांग्रेसियों की छिपी प्रेरणा से राहुल के गायब होने के मजे ले रहे मीडिया के कटाक्षों से कांग्रेस का वह आम कार्यकर्ता भी हतप्रभ नजर आने लगा जिसका शीर्ष के बनते-बिगड़ते समीकरणों से रिश्ता दूर की डोर से ही बंधता है।

अंग्रेजी में एक कहावत है, 'देयर इज ए मेथड इन दिस मैडनेस (इस पागलपन के पीछे एक योजना छिपी है)।’  इस भाषा और इस कहावत से बड़े काग्रेसी नेता अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसलिए अपने उपाध्यक्ष के इस झटके और उसके पीछे किसी योजना के छिपी होने की आशंका से असुरक्षित कुछ कांग्रेसी नेता मीडिया में राहुल गांधी के गुपचुप विदेशों में सैर सपाटे की अटकलों को हवा देते रहे। हालांकि राहुल गांधी घोषित तौर पर अपनी मां एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से . 'चिंतन-मनन’  के लिए औपचारिक छुट्टी लेकर 'अज्ञातवास’  या 'एकांतवास’ पर गए। दूसरी तरफ राहुल के इस बहिर्गमन के पीछे की राजनीति भांपने की कोशिश करते हुए कुछ नेताओं ने यह माना कि हालांकि पिछले लोकसभा चुनावों के थोड़ा पहले से पार्टी  कमान के घोषित उत्तराधिकारी बतौर अपना दबदबा जताने की कोशिश कर रहे कांग्रेस उपाध्यक्ष औपचारिक अध्यक्ष पद के अभाव में इच्छानुरूप अपना सिक्का नहीं चला पा रहे थे। इसलिए इस नाजुक घड़ी में उनका एकांतवास उनके राजनीतिक रोष की अभिव्यक्ति था। पहले इन लोगों ने विदेशी सैर सपाटे की अटकलों को विराम देने की कोशिश की। दिग्विजय सिंह ने माना कि राहुल गांधी का चिंतन  राग भले बेवक्त बजा हो लेकिन उनके लौटने के बाद एकांत के चिंतन-मनन-मंथन से प्राप्त मणियों की रोशनी पार्टी को नई राह दिखाएगी। इसी कड़ी में हमेशा प्रियंका गांधी के समर्थन में अकबर रोड के कांग्रेस कार्यालय के सामने प्रदर्शन के लिए तत्पर और अब गांधी परिवार से अपनी करीबी प्रदर्शित करने के लिए आतुर जगदीश शर्मा नामक कार्यकर्ता हिमालय की गोद में तंबुओं में एकांतवास कर रहे राहुल गांधी की तस्वीर ट्वीट करते प्रकट भये। तेजी से बनते-बिगड़ते समीकरणों में अपनी गोटी बिछाने के चञ्चकर में पी.सी. चाको जैसे नेता मैदान में शर्मा के इस दावे को झूठा बताते कूद पड़े कि राहुल उत्तराखंड में हैं, हालांकि उन्होंने माना कि वह भारत में ही हैं, विदेश में नहीं।

अभी मीडिया और भाजपाई इस तमाशे के मजे ले ही रहे थे कि पूर्वमंत्री कमलनाथ सरीखे मंजे हुए खिलाड़ी ने कांग्रेस की औपचारिक कमान यानी अध्यक्ष पद सीधे-सीधे सौंपने की सार्वजनिक मांग कर मामले की गंभीरता प्रकट कर दी। उन्होंने साफ-साफ कहा कि पार्टी में दो सक्रिय सत्ता केंद्रों के कारण दिशाभ्रम हो रहा है। कमलनाथ ने यह भी कहा कि अब सोनिया गांधी को पार्टी में 'मेंटर’ (मार्गदर्शक, क्या आडवाणी की तरह?) की भूमिका निभानी चाहिए। यदि कमलनाथ अपने को सीधे राहुल के अग्रिम सिपहसालार के बतौर दर्शाना चाहते थे तो उन्हें चुनौती मिली पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली से। मोहली ने कहा कि कुछ लोग किसी 'खास व्यक्ति को ऊपर चढ़ाकर खुद राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं’। उधर पिछले कुछ दिनों से पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम और उनके पुत्र कार्ति तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टी नेतृत्व को चुनौती दे रहे थे। दिल्ली में भी मंच पर अपनी केंद्रीय दर्शनीयता बनाए रखने के लिए पूर्व वित्त मंत्री एक अंग्रेजी दैनिक में नियमित कॉलम लिखने लगे थे। उसमें उन्होंने भाजपा सरकार के भू अधिग्रहण अध्यादेश की आलोचना करते हुए संयुञ्चत प्रगतिशील गठबंधन सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून की तारीफ की। इस पर राहुल गांधी के मातहत 2013 के कानून के सूत्रधार पूर्व मंत्री जयराम रमेश ने चुटकी ली कि चिदंबरम तो तब कई बिंदुओं पर उस अधिनियम के आलोचक थे।

कांग्रेस नेतृत्व के पीढ़ीगत बदलाव में अपनी-अपनी जगह सुनिश्चित करने की कोशिशें राहुल गांधी के इस झटकेदार कदम से जाहिर होने लग गईं। दिग्विजय सिंह, पी.सी. चाको, कमलनाथ, चिदंबरम और जयराम रमेश सब अपने-अपने रवैयों के साथ सामने आने लगे। भूमि अधिग्रहण मसले पर पार्टी की नीति के बारे में जयराम रमेश और वीरप्पा मोइली ने बारीकी से अलग-अलग सुर बजाए। अपनी मनमोहन सरकार के दौरान ही नियमगिरि दौरे के समय से राहुल गांधी उद्योग हित में भू-अधिग्रहण मसले पर जिस नजरिये के साथ मुखर हुए थे उसका नतीजा था 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून। हालांकि संप्रग सरकार के कई मंत्री उससे सहमत नहीं थे। उसे संशोधित करने के लिए लाए गए मोदी सरकार के अध्यादेश और फिर उसे स्थायी कानून बनाने के लिए तैयार नए विधेयक के प्रति भी उनका विरोध और इसे लेकर आंदोलन करने का उनका इरादा भी जगजाहिर था। लेकिन जो लोग 2013 के कानून से सहमति नहीं रखते थे वे और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की कारारी हार से हत-मनोबल अन्य नेता भी राहुल गांधी के साथ इस और अन्य मसलों पर फुटमार्च करने के प्रति ज्यादा उत्साहित नहीं थे। राहुल के अचानक अज्ञातवास ने पार्टी में जो विसंवादी स्वर उभारे उन्हें एकजुट दिखाने के लिए जंतर-मंतर पर भूमि अधिग्रहण को लेकर कांग्रेसी रैली में कई शीर्ष नेता मंच पर उतारे गए। हालांकि उत्साह के अभाव में जनसमूह कम ही गोलबंद हो पाया।

नई दिल्ली के राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर जवाहर भवन मे बैठने वाली राहुल गांधी की निकटस्थ सलाहकार टीम के कुछ लोगों की बात मानें तो अज्ञातवास और उसके पहले तथा बाद की चीजों में भी राहुल की प्रत्यक्ष या परोक्ष मर्जी झलकती है। यहां तक कि पार्टी का विपक्ष में बैठना भी। उनके अनुसार राहुल गांधी पार्टी को जिस नए प्रगतिशील सांचे में ढालना चाहते थे उसमें सत्ता-सुख से लथपथ कई पुराने नेता ढल नहीं पा रहे थे। हार का सैलाब ऐसे रुझानों को बहा ले गया। समय बीतने के साथ पुराने नेताओं से जुड़ी भ्रष्टाचार की छवियां भी जनमानस में धुंधली पड़ती जाएंगी। अब पार्टी नई गतिमान चाल और देश की युवा अपेक्षाओं के सांचे में गढ़ी जा सकती है। पर पार्टी के कई पुराने नेता निजी बातचीत में दबी जुबान इस तरह की बातों की खिल्ली उड़ाते हैं। वे लोकसभा चुनावों के पहले भी राहुल गांधी का सार्वजनिक जयघोष करते वक्त भी मीडियाकर्मियों के बीच प्रतिकूल कथाएं प्लांट करने से बाज नहीं आते थे।

अब तो जवाहर भवन की सलाहकार टीम के अलावा बड़े नेता भी राहुल गांधी के अज्ञातवास को एक रणनीति का हिस्सा और जंतर-मंतर की रैली को राहुल की अनुपस्थिति में भी उस रणनीति की पहली कड़ी बताने लगे हैं। इस रैली में पुराने नेताओं अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश आदि के साथ युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया भी गरजते दिखे। सिंधिया पर तो मीडिया के कैमरे भी कई बार घूमे।

कुछ अंदरूनी सूत्रों की मानें तो सोनिया गांधी की सेहत और भविष्य के मद्देनजर इस वर्ष सितंबर में राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना तय था। अज्ञातवास के झटके ने यह घड़ी करीब ला दी है। शायद अप्रैल-मई में। बजट सत्र का पहला हिस्सा खत्म होते ही पुनरागमान के बाद राहुल गांधी नेताओं, कार्यकर्ताओं को किसानों के भू-अधिग्रहण एवं अन्य मसलों पर मैदान में उतार देंगे। देखना यही है कि अप्रैल-मई में वह कार्यकारी पार्टी अध्यक्ष बनते हैं या पूर्ण अध्यक्ष या फिर सितंबर में पूर्ण अध्यक्ष बनने तक वह सीधे अपनी कमान में अनौपचारिक तौर पर पार्टी का रोजमर्रा का काम देखने लग जाएंगे।

इस तरह के सवालों के जवाब में मीडिया को मोनालिसा की तरह रहस्यमयी मुस्कान के साथ सोनिया गांधी जवाब देती हैं कि जब भी राहुल गांधी अध्यक्ष बनाए जाएंगे, 'आपको बता दिया जाएगा’। बहरहाल, मणिशंकर अय्यर राहुल गांधी को बड़ी जिक्वमेदारी के कगार पर मानते हैं।

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