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बड़े बदलावों से अछूता आधा देश

स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति में बदलाव आने पर समाज में बदलाव आना तय माना जाता है। इस पैमाने पर देखें तो भारत की स्थिति पिछली कुछ वर्षों में जस की तस बनी हुई है। मानव विकास सूचकांक के अनुसार भारत की रैंकिंग दुनिया में 135 है
बड़े बदलावों से अछूता आधा देश

पूरी दुनिया में किसी भी समाज के बदलाव को मापने का सबसे मान्य पैमाना मानव विकास सूचकांक है और इस सूचकांक के दो मुख्य खंभे स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र हैं। यानी स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति में बदलाव आने पर समाज में बदलाव आना तय माना जाता है। इस पैमाने पर देखें तो भारत की स्थिति पिछली कुछ वर्षों में जस की तस बनी हुई है। मानव विकास सूचकांक के अनुसार भारत की रैंकिंग दुनिया में 135 है जबकि दो साल पहले भी देश उसी स्तर पर था। जाहिर है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में तमाम बदलावों के बावजूद भारत की बहुसंख्य आबादी को इसका फायदा नहीं मिल रहा है। इसकी वजहें भी हैं। देश में हर 1700 की आबादी पर एक डॉक्टर है जबकि आदर्श अनुपात 1000 पर एक डॉक्टर को माना जाता है। यानी देश में करीब 35 फीसदी डॉक्टरों की कमी है। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की इतनी कमी है कि कैंसर जैसी बीमारी के इलाज के लिए बिहार, उत्तरप्रदेश, बंगाल जैसे राज्यों के मरीजों को दिल्ली या मुंबई की दौड़ लगानी पड़ती है। शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की स्थिति यह है कि किसी भी शहर में किसी भी अभिभावक से बात करें वे अपने बच्चों को निजी स्कूल में ही शिक्षा दिलाना चाहते हैं क्योंकि सरकार हर बच्चे को शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी से बच रही है। आउटलुक ने ही चंद महीने पहले अपने एक अंक में इस बात का खुलासा किया है सरकार पूरे देश में एक लाख से अधिक सरकारी स्कूलों को बंद कर रही है या कर चुकी है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र की स्थिति देखें, आईआईटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हर वर्ष 13 लाख से अधिक बच्चे परीक्षा देते हैं और उसमें से सिर्फ 10 हजार का आखिरी चयन होता है। शेष बच्चों में से 10 फीसदी को अन्य सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला मिल पाता है। बचे हुए छात्र निजी कॉलेजों की शरण में जाने को मजबूर होते हैं। ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में निजी और सरकारी मिलाकर इंजीनियरिंग की 5 लाख सीटें हैं। मांग के अनुपात में इंजीनियरिंग और मेडिकल की सीटों की कमी के कारण प्रवेश परीक्षा में गलाकाट प्रतिस्पर्धा होती है जिसके कारण छात्रों को कानपुर, पटना या कोटा जैसे शहरों में निजी कोचिंग संस्थानों की शरण में जाना होता है। राजस्थान के कोटा शहर की पूरी अर्थव्यवस्था ही कोचिंग संस्थानों पर टिकी हुई है।
बदलाव की बात करें तो चिकित्सा के हर विभाग में आपको तकनीकी विकास की नई इबारत लिखी नजर आएगी। इन बदलावों की बदौलत उन बीमारियों का इलाज संभव हो गया है जो पहले लाइलाज मानी जाती थीं। यही नहीं अब काफी हद तक आपरेशनों की जरूरतें खत्म होती जा रही हैं। मिसाल के तौर पर एंजियोप्लास्टी एवं स्टेंट के विकास ने ओपन हार्ट सर्जरी की जरूरत 90 प्रतिशत तक कम कर दी है। ऐसे ही किडनी की बीमारी में डायलिसिस एक जटिल प्रक्रिया है जो पहले अस्पताल में ही हो सकती थी मगर अब विदेशों में ऐसी तकनीक आ गई है कि लोग अपने घर में भी आसानी से डायलिसिस कर सकते हैं। ये तकनीक जल्द ही भारत में भी आने की संभावना है। ऐसे ही रक्त से संबंधित बीमारियों, कुछ प्रकार के कैंसर, हड्डी और त्वचा संबंधी कुछ लाइलाज बीमारियों में स्टेम सेल थेरेपी से इलाज में सफलता मिली है। हालांकि यह तकनीक अभी बिलकुल शुरुआती अवस्था में है और कई बीमारियों में इसे सफलता नहीं भी मिली है।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के नेफ्रोलॉजी विभाग के पूर्व प्रमुख और वर्तमान में दिल्ली के बसंत कुंज स्थित फोर्टिस अस्पताल के रीनल साइंस एंड ट्रांसप्लांटेशन इंस्टीट्यूट के प्रमुख डॉ. एस.सी. तिवारी के अनुसार पिछला दशक किडनी से संबंधित बीमारियों के इलाज में क्रांतिकारी बदलावों का रहा है। आपके मूत्र में माइक्रो प्रोटीन तो नहीं आ रहा यह पता करने के लिए अब एक छोटी सी स्ट्रिप को मूत्र के सैंपल में डालने से सारी जानकारी मिल जाती है। इसी प्रकार कोई किडनी कितने प्रतिशत सही काम कर रही है इसका पता लगाने के लिए ग्लोमेलुलर फिल्टरेशन रेट या जीएफआर की जांच भी अब आसानी से होने लगी है। किडनी में किसी भी खराबी का पता लगाने के लिए सीरम क्रिटनिन की जांच की जाती है, खास बात यह है कि सीरम क्रिटनिन का नतीजा सामान्य आने के बावजूद हो सकता है कि आपकी किडनी 50 फीसदी तक खराब हो चुकी हो। इस स्थिति से बचने के लिए जीएफआर टेस्ट एक वरदान साबित हो रही है। ऐसे ही किडनी प्रत्यारोपण के मामले में भी काफी विकास हुआ है। पहले सिर्फ एक ब्लड ग्रुप में ही यह प्रत्यारोपण हो सकता था मगर अब कुछ दूसरे ब्लड ग्रुप में भी यह प्रत्यारोपण हो सकता है। डॉ. तिवारी के अनुसार डायलिसिस की सुविधाएं भी अब पहले से बहुत बेहतर मिलने लगी हैं। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में शरीर पर पहनने वाली डायलिसिस मशीन आने लगी है जिसका वजन महज 6 किलो है, इसी प्रकार सूटकेस में समाने लायक मशीन का वजन 10 किलो है जिसे लेकर कहीं भी जाया जा सकता है और अस्पताल के बाहर घर की सुविधाओं के बीच डायलिसिस किया जा सकता है।
नोएडा स्थित मेट्रो अस्पताल एवं हृदय संस्थान के संस्थापक और देश के जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. पुरुषोत्तम लाल के अनुसार खुद उनका संस्थान कई नए बदलाव का साक्षी है। आमवाती हृदय रोग जो पश्चिमी देशों में लगभग खत्म हो गया है लेकिन भारत में अब भी बहुत लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं। इस बीमारी में हृदय के वाल्व में या तो रिसाव होने लगता है या वाल्व तंग हो जाते हैं। माइट्रल वाल्व के तंग होने का कई बार पता नहीं चलता और गर्भावस्था के दौरान ही पता चलता है लेकिन अब बिना ऑपरेशन से इस वाल्व का खुल जाना ऐसे मरीजों के लिए वरदान साबित हुआ है। वाल्व की इस फील्ड में पिछले 10 सालों में बहुत ज्यादा तरक्की हुई है। यहां तक कि बिना ऑपरेशन के एक नया वाल्व डाला जा सकता है। यह तकनीक दुनिया में सबसे पहले मैट्रो अस्पताल में 12 जुलाई, 2014 को इस्तेमाल की गई थी और महज 5 महीने में पूरी दुनिया में इस तकनीक से हजारों मरीज स्वस्थ्य किए जा चुके हैं। अभी इस वाल्व की कीमत ज्यादा है लेकिन आने वाले समय में वाल्व की कीमत कम होने की संभावना है। वृद्धावस्था में जहां ओपन हार्ट सर्जरी नहीं की जा सकती इस वाल्व से मरीज को ठीक कर दिया जाएगा।
इसी प्रकार मोतियाबिंद के ऑपरेशन की फेकू तकनीक ने मोतियाबिंद के पकने के इंतजार को खत्म कर दिया है। ऑपरेशन के जरिये मोटापा कम करने की तकनीक से लोगों को दोहरा फायदा होता है। मोटापा घटने के साथ-साथ मधुमेह भी नियंत्रण में आ जाता है। ऐसी स्थिति चिकित्सा के हर विभाग की है। तकनीकी बदलावों ने भले ही चिकित्सा जगत में क्रांति ला दी है मगर जन स्वास्थ्य के प्रति सरकारों के उदासीन रवैये ने इन बदलावों के लाभ से समाज के बड़े तबके को वंचित रखा हुआ है। नई तकनीक स्वाभाविक रूप से महंगी होती है और समाज के 65 फीसदी गरीब तबके के पास इससे लाभान्वित होने लायक पैसे नहीं होते।
शिक्षा क्षेत्र की बात करें तो भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है। पिछले 12 वर्षों में देश में कॉलेजों की संख्या 20 हजार और छात्रों की संख्या 80 लाख बढ़ गई है। लेकिन इसमें एक खास बात यह है शिक्षा क्षेत्र में निजी भागीदारी भी इसी तादाद में बढ़ी है। दो साल पहले के आंकड़ों के अनुसार देश में जहां केंद्रीय विश्वविद्यालय की संख्या 42 और राज्य में विश्वविद्यालयों की 275 है वहीं निजी क्षेत्र के डिम्ड विश्वविद्यालयों की संख्या 130 और निजी विश्वविद्यालयों की संख्या 90 है। इनके अलावा पूरे देश में राज्य सरकारों तथा निजी संस्थाओं द्वारा संचालित कुल 33 हजार कॉलेज भी हैं। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव यह आया है कि अब सालाना बड़ी संख्या में भारतीय बच्चे उच्च एवं विशेषज्ञ शिक्षा के लिए अमेरिका, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, चीन आदि देशों में जा रहे हैं। वर्ष 2006 में जहां करीब 80 हजार बच्चे शिक्षा के लिए अमेरिका गए वहीं 2014 में यह संख्या बढक़र एक लाख 35 हजार पहुंच गई है। हर देश का आंकड़ा कमोबेश इसी दर से बढ़ा है। हालांकि तमाम नकारात्मक बातों के इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि चिकित्सा और शिक्षा दोनों ही क्षेत्र पिछले 12 वर्षों में तीव्र बदलाव के साक्षी रहे हैं।

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