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जात पर न भड़काओ वोटर को

बहुत पुरानी कहावत है- जात न पूछो साधु की। साधु यानी आशीर्वाद देने वाला, अपने भक्तों की सुख, समृ‌‌द्धि, सफलता की कामना करने वाला। भारतीय मतदाता भी तो उसी भलमनसाहत और उदारता के साथ अपने पसंदीदा उम्मीदवार को सत्ता में पहुंचाने के लिए ‘वोट’ का महत्वपूर्ण आशीर्वाद देता है।
जात पर न भड़काओ वोटर को

राजनीतिक दल पिछले वर्षों के दौरान जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर उम्मीदवार तय करते रहे हैं और यदा-कदा जाति विशेष के सम्मेलनों में भी नेता जाते रहे हैं। लेकिन कम से कम सार्वजनिक रूप से जाति-धर्म की घोषित ठेकेदारी के बल पर चुनावी सफलता की कोशिश नहीं होती थी। अब दो वर्ष पहले गांधीवादी अण्‍णा हजारे के कंधों और टोपियों के बल पर दिल्ली प्रवेश में सत्ता पाने वाली आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में ऐलान किया- ‘हम हैं बनियों की असली पार्टी। भाजपा नहीं है।’ केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी कुछ क्षेत्रों में अपने को ‘बनिया’ कहकर वोट मांगे थे। भारत के विभिन्न राज्यों में जाति विशेष के सामाजिक संगठन हैं, लेकिन अधिकांश कल्याण, सुधार के लिए सक्रिय होते हैं। खाप पंचायत अवश्य कई बार कटटरपंथी फैसलों से समाज को विचलित करती है। आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव में केवल जातीय समीकरणों से नहीं जीती थी। कांग्रेस-भाजपा के विकल्प के रूप में ईमानदारी और सेवा का चोगा पहनकर आई पार्टी को मतदाताओं ने चुन लिया। अन्यथा लोकसभा चुनाव में केजरीवाल के बहुत करीबी नेता अपने जाति कार्ड के बावजूद बुरी तरह नहीं हारे होते। पंजाब में केजरीवाल कभी स्वर्ण मंदिर में बर्तन धोने की नौटंकी करते कैमरे में पकड़े गए। पंजाब में कांग्रेस, अकाली दल, भाजपा, बसपा या कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी गली-मोहल्लों में जातिगत भोंपू बजाकर चुनाव नहीं जीते। इसलिए चुनाव से महीनों पहले केजरीवाल जातीय भावना उकसाकर राजनीतिक स्वा‌र्थ कितना पूरा कर सकेंगे? दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के नेता दो दशक पहले जातिगत समीकरणों के लिए जिन जातियों-समाज को जूते मारने की बात करते थे, अब उसी पार्टी में सार्वजनिक घोषणा करके वरिष्ठ नेता सतीश मिश्रा को ‘ब्राह्मण’ मतदाताओं को पटाने-मोहित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ब्राह्मण हों या राजपूत या यादव या दलित अथवा अल्पसंख्यक मतदाता अब अपने इलाके के विकास को सुनिश्चत करने वाली पार्टियों और यथासंभव सही उम्मीदवार को वोट देने लगे हैं। पिछले कुछ चुनावों में साबित हुआ है कि दो-तीन प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवार अथवा निर्दलीय समान जाति के थे, लेकिन मतदाताओं ने उसे ही चुना जो जनता के सुख-दुःख से जुड़ा हो। इस प्राथमिकता से प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी को भी पराजय का सामना करना पड़ा। पंजाब-उत्तर प्रदेश चुनाव में एक बार फिर संकीर्ण फार्मूला अपनाने वालों को मतदाता सही जवाब देंगे।

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