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आवरण कथा: कस्बों की सुंदरियां और कुबेर

“आधुनिक दौर में तो मानो कामयाबी का दूसरा नाम ही दौलत और शोहरत कमाना बन गया है” यश और ऐश्वर्य में...
आवरण कथा: कस्बों की सुंदरियां और कुबेर

“आधुनिक दौर में तो मानो कामयाबी का दूसरा नाम ही दौलत और शोहरत कमाना बन गया है”

यश और ऐश्वर्य में सदियों से कंचन और कामिनी की अहमियत रही है। आधुनिक दौर में तो मानो कामयाबी का दूसरा नाम ही दौलत और शोहरत कमाना बन गया है। दौलत कमाने के साधनों में कारोबारी कामयाबी खास है, लेकिन शोहरत के कई-कई साधन और अवसर होते हैं, जिसमें विभिन्न स्पर्धाएं भी अहम हैं। इन्हीं में अपनी काया और तीव्र बुद्धि के प्रदर्शन से मॉडलिंग और सौंदर्य स्पर्धाएं लड़कियों के लिए शोहरत के साथ दौलत का संसार खोलती हैं। यकीनन सब में मेहनत, लगन और निरंतर कोशिशों की दरकार होती है। लेकिन सिर्फ इन्हीं गुणों से सब हासिल नहीं हो जाता। इसके लिए सबसे अहम है अवसरों का खुलना और उसे हासिल करने का हौसला। फिर हौसला आप में हो तब भी अवसर के बिना यह संभव नहीं है। और अवसर देश के हालात और उस तक पहुंच पर निर्भर करता है। देश में आजादी के बाद और खासकर उदारीकरण के दौर में दौलत और शोहरत ही नहीं, खूबसूरती के ठिकाने देश के चंद महानगर बनते गए। लेकिन नई सदी के दूसरे दशक में इंटरनेट और स्मार्टफोन के प्रसार से दुनिया छोटी हुई तो महानगरों को छोटे शहरों से कामयाब स्‍त्री-पुरुषों की चुनौती मिलने लगी। चुनौती कारोबारी कामयाबी और सौंदर्य स्पर्धाओं दोनों में मिल रही है। कामयाबी के इन्हीं दिलचस्प किस्सों को दो हिस्सों में पढ़ें। पहले, कस्बों के दौलतमंदः

बीते आठ साल भारत की अर्थव्यवस्था के लिए खराब गुजरे हैं। पहले तो पूर्ववर्ती यूपीए-2 सरकार के आखिरी दो वर्षों में विकास दर धीमी होने लगी। उसके बाद 2016 में नोटबंदी आ गई। फिर आधी-अधूरी जीएसटी व्यवस्था लागू कर दी गई। पारदर्शिता लाने के बजाय इसने भारत के विशाल अनौपचारिक क्षेत्र को तहस-नहस कर दिया। इससे विकास दर और गिर गई।

कोरोनावायरस के हमले के कारण विकास दर इतनी नीचे चली गई कि उसकी कल्पना करना भी मुश्किल था। क्या आप कभी जीडीपी में 24 फीसदी गिरावट की बात सोच सकते थे, भले ही गिरावट एक तिमाही के लिए हो? ऐसा लग रहा था जैसे वायरस के रूप में खुद शैतान आ गया हो और कारोबारी जगत को बुरी तरह रौंद दिया हो। गिरते बिजनेस के कारण उद्यमियों को ऐसे समझौते करने पड़े मानो उन्होंने अपनी आत्मा बेच दी हो। लेकिन संकट की इस घड़ी में भी छोटे शहरों में ऐसे उद्यमी खड़े हो रहे थे जिनकी ऊर्जा से कारोबारी जगत दमकने लगा। राह की सभी चुनौतियों पर उन्होंने विजय पाई। सामने आने वाले अवसर को दोनों हाथों से लपका। पारंपरिक तरीके छोड़ नए तरीके आजमाए और बदली हुई सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियों का फायदा भी उठाया। जब उन्होंने अपनी कारोबारी यात्रा शुरू की तब उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि वे इतने खुशकिस्मत साबित होंगे। कुछ को तो ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा, कुछ ने आकस्मिक परिस्थितियों के चलते ऐसा किया और कुछ ने जानबूझकर।

 पटना के अमित कुमार 40 के होने वाले हैं। चितकोहरा बाजार में उनके परिवार की प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों की एक सदी से भी ज्यादा पुरानी दुकान थी। 2018 में एक वक्त ऐसा आया जब बिक्री लगातार घट रही थी और मुनाफा नहीं के बराबर रह गया था। तभी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म फ्लिपकार्ट ने उन्हें जुड़ने का ऑफर दिया। अमित ने वह ऑफर कबूल कर लिया। आज वे ‘न्यू दादाजी स्टील हाउस’ के जरिए 20 ब्रांड के 1,200 प्रोडक्ट (अप्लायंस, किताबें, कपड़े) देशभर में बेचते हैं।

 भूकंप ने 2015 में वाराणसी के विकास मिश्रा का जीवन भी झकझोर दिया था। उन्होंने कुछ समय पहले ‘ट्रिप टू टेंपल्स’ नाम से बिजनेस शुरू किया था। वे लोगों को कैलाश मानसरोवर की यात्रा करवाते थे। भूकंप के कारण लोगों ने बुकिंग रद्द कर दी। लेकिन राजनीतिक और सामाजिक हवा उनके अनुकूल थी। तीर्थ पर्यटन तेजी से बढ़ रहा था। 2019 में उनका सालाना कारोबार 20 करोड़ रुपये हो गया। वे कॉक्स एंड किंग्स और थॉमस कुक जैसी बड़ी कंपनियों को टक्कर देने लगे। एक कंपनी ने तो उनका बिजनेस खरीदना भी चाहा था।

 सात साल पहले 43 साल के करण पाल सिंह चौहान और 45 साल के विवेक परमार ने मोटी तनख्वाह की नौकरी छोड़ दी। करण देश की सबसे बड़ी लॉ फर्म में काम करते थे। विवेक भारत के सबसे बड़े बीपीओ के लिए इंग्लैंड और अमेरिका में काम करते थे। परिवार और दोस्तों की सलाह के विपरीत दोनों शिमला अपने घर लौट आए। उन्होंने ‘31 पैरेलल’ नाम से बीपीओ कंपनी बनाई। महामारी से पहले इसका सालाना कारोबार 12 करोड़ रुपये हो गया था। करण और विवेक कंपनी में ऐसे लोगों की भर्ती करते हैं जो अपने घर लौटना चाहते हैं।

पृष्ठभूमि और कार्यक्षेत्र अलग होने के बावजूद इन चारों में एक समानता है- सब सर्विस सेक्टर में हैं। न खेती में, न ही मैन्युफैक्चरिंग में। इसका कारण समझना कठिन नहीं है। हाल की घटनाओं ने खेती और मैन्युफैक्चरिंग पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। यह बात किसानों और छोटी मझोली कंपनियों (एमएसएमई) की दशा से भी जाहिर होती है।

2019-20 के आर्थिक सर्वेक्षण में संपत्ति निर्माण पर फोकस किया गया है। सर्वेक्षण के अनुसार हाल के वर्षों में देश में उद्यमिता तेजी से बढ़ी है। संगठित क्षेत्र में नई कंपनियों की संख्या बढ़ने की सालाना दर 2006-14 की तुलना में तीन गुना से अधिक बढ़कर 2014-18 के दौरान 12.2 फीसदी हो गई। नई कंपनियों की संख्या 2014 में 70,000 के आसपास थी जो 2018 में 1.24 लाख हो गई। महत्वपूर्ण बात है कि यह बढ़ोतरी सर्विस सेक्टर की वजह से हुई। 2015 से तुलना करें तो इस सेक्टर में नई कंपनियों की संख्या दोगुनी हो गई है। कृषि में नई कंपनियों की संख्या में इस दौरान गिरावट आई और मैन्युफैक्चरिंग में यथास्थिति है। 2018 में जितनी नई कंपनियां गठित हुईं उनमें दो-तिहाई से ज्यादा सर्विस सेक्टर की थीं।

इसकी वजह उद्यमी खुद बताते हैं। भारी-भरकम पूंजी, बड़ी संख्या में श्रमिक और मार्केटिंग पर खर्च कोई भी कारोबार शुरू करने में शुरुआती बाधा है। लेकिन सर्विस सेक्टर में इनकी जरूरत कम पड़ती है। पटना के अमित कहते हैं, “ट्रेडिंग सबसे अच्छा है। मुझे न तो कर्ज की जरूरत है, न ही बड़ा निवेश चाहिए। इंफ्रास्ट्रक्चर पर भी ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं है। जिस ईकॉमर्स प्लेटफॉर्म के जरिए मैं सामान बेचता हूं, वही लॉजिस्टिक्स की सुविधाएं देता है। मैन्युफैक्चरिंग में काफी चुनौतियां हैं।”

हरीश धर्मदासानी ने दसवीं के बाद पढ़ाई नहीं की। 2010 में पिता की मौत के बाद उन्होंने राजस्थान के टोंक जिले के मालपुरा गांव में परिवार की छोटी सी जूते की दुकान बेच दी और आगरा चले आए। यहां वे घर-घर जूता बेचने लगे। उन्हें हर महीने 6,000 रुपये मिलते थे। एक दिन उनके एक सप्लायर ने ताना दिया, अगर तुम्हें लगता है कि यह बिजनेस आसान है तो अपना कारोबार क्यों नहीं खड़ा कर लेते। हरीश को यह बात लग गई। उनके पास पैसे नहीं थे, लेकिन जूता बनाने वालों में उनकी अच्छी साख थी। उन्होंने उधार में कुछ जूते दिए, जिन्हें हरीश ने घर में स्टॉक कर लिया। पांच साल बाद आज हरीश का सालाना कारोबार 20 से 30 करोड़ रुपये का है। उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से 30 लोगों को रोजगार दे रखा है। उनका अपना ‘लायसा’ नाम से जूते का ब्रांड है। इसकी ज्यादातर बिक्री वे ईकॉमर्स प्लेटफॉर्म के जरिए ही करते हैं। ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ही मार्केटिंग, एडवर्टाइजिंग और वेयरहाउसिंग की सुविधा उपलब्ध कराता है।

जन्मजात उद्यमी 

सन् 1 से लेकर 1700 तक, भारत और चीन दुनिया की दो तिहाई से ज्यादा संपत्ति का सृजन करते थे। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है, “इतने लंबे समय तक आर्थिक प्रभुत्व बुनियादी कारणों से था, न कि इत्तेफाक से।” भारतीय दर्शन पारंपरिक रूप से संपत्ति सृजन का प्रशंसक रहा है। औपनिवेशिक और समाजवादी व्यवस्था में यह विचार पीछे चला गया। लेकिन 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने इस विचार को एक बार फिर आगे ला दिया है।

एमवे ग्लोबल ने 2018 में आंत्रप्रेन्योरशिप पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की थी। उस सर्वेक्षण में शामिल होने 91 फीसदी भारतीयों ने कहा कि वे नया बिजनेस शुरू करना चाहते हैं। 74 फीसदी लोगों ने तो यहां तक कहा के बिजनेस को सफल बनाने की खूबी उनमें जन्मजात है। 78 फीसदी के अनुसार परिवार या मित्र, कोई भी उन्हें इस रास्ते से डिगा नहीं सकता है। इस रिपोर्ट के उद्यमिता इंडेक्स में भारत, वियतनाम के बाद दूसरे नंबर पर था। चीन, जर्मनी, अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों की रैंकिंग भारत के बाद थी।

देश में ज्यादातर उद्यमी पहली पीढ़ी के हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के 2008 के एक अध्ययन के अनुसार 99 फीसदी उद्यमी नौकरी नहीं करना चाहते। बीते एक-दो दशकों में लोगों में अपना बॉस बनने की इच्छा अधिक प्रबल हुई है। ऐसा पुरुषों में ही नहीं, बल्कि महिलाओं में भी देखा गया है, वह भी खासकर युवाओं में। कोविड-19 के कारण नौकरियां जाने से लोगों की यह इच्छा और मजबूत हुई है।

कोविड-19 की वजह से लोगों के पास विकल्प कम ही थे। या तो नौकरी चली गई थी या वेतन घट गया था। तब अनेक लोगों ने कारोबार शुरू करने का फैसला किया। 35 साल के एमबीए, भूपेंद्र पटेल ने भी सात साल पुरानी रिटेल की नौकरी छोड़ दी। पटेल बताते हैं, “वह काम मेरी रुचि का नहीं था। रोजाना एक रूटीन रहता था। न कोई चुनौती थी, न ही प्रयोग करने की कोई गुंजाइश।” भूपेंद्र ने क्रॉकरी की दुकान खोली, जो नहीं चली। पत्नी के कहने पर उन्होंने 2015 में होम फर्निशिंग का बिजनेस शुरू किया।

पहले दो साल बड़े कठिन रहे। दंपती के लिए खर्च निकालना भी मुश्किल होता था। लेकिन तीसरे साल से बिजनेस बढ़ने लगा और 2019-20 में तो उनका कारोबार 350 फीसदी बढ़ गया। 2020-21 की पहली तीन तिमाही में कोविड-19 के बावजूद उनका बिजनेस 100 फीसदी से ज्यादा बढ़ा है। शायद इसलिए भी कि लॉकडाउन में लोग घरों में थे और उनके पास इंटीरियर बदलने के लिए काफी समय था। दंपती पानीपत में ‘होम सिजलर’ ब्रांड नाम से बिजनेस चलाता है। ये 400 डिजाइन के पर्दे बेचते हैं।

आगरा के हरीश की तरह लुधियाना के त्रिशनीत अरोड़ा और भोपाल के नरेंद्र सेन भी स्कूल ड्रॉपआउट हैं। बचपन में त्रिशनीत का ज्यादा समय कंप्यूटर पर ही बीतता था। उन्हें लगता था कि औपचारिक शिक्षा और भारी-भरकम डिग्रियां उनके मतलब की नहीं हैं। 2010 में किशोरवय में ही उन्होंने एवन साइकिल की तरफ से आयोजित एथिकल हैकिंग प्रतियोगिता जीती। तब उन्हें 5000 रुपये मिले थे। छात्र दिनों में ही वे वेबसाइट डिजाइनिंग और लॉन्चिंग से दो लाख रुपया महीना कमाने लगे थे। 27 साल के त्रिशनीत को कम उम्र में ही यह एहसास हो गया था कि डेटा की सुरक्षा आने वाले दिनों में बड़ा बिजनेस बनेगी। आज उनके क्लाइंट में पंजाब पुलिस, रिलायंस इंडस्ट्रीज और चुनाव आयोग भी हैं। उनकी कंपनी ‘टीएसी’ अमेरिकी सरकार की साइबर सिक्योरिटी एडवाइजर है। 2022 तक इसका सालाना कारोबार 2,000 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है। इसी तरह, नरेंद्र सेन को डाटा स्टोरेज में अवसर दिखा। उन्होंने 2013 में ही ‘रैकबैक डाटा सेंटर’ की स्थापना की। आज 35,000 वर्ग फुट में उनके 3,200 सर्वर हैं। अगले कुछ वर्षों में उनकी छह हजार करोड़ रुपये निवेश की योजना है।

जब हम छोटे शहरों के इन करोड़पतियों की बात करते हैं तो एक सवाल जेहन में आता है कि इन सबने ऐसी छोटी जगहों पर बेस क्यों बनाया। आप शिमला में एक बीपीओ, लुधियाना में डाटा प्रोटक्शन, भोपाल में डाटा स्टोरेज फर्म और पानीपत में होम फर्निशिंग कंपनी की कल्पना कीजिए। यह सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि ये नए कारोबारी किले उन छोटे शहरों में खड़े हुए हैं जहां कुछ दिनों पहले तक कोई बिजनेस स्थापित करने की सोचता भी नहीं था।

आर्थिक सर्वेक्षण में जब नई कंपनियों की जगह के हिसाब से मैपिंग की गई तो एक बेमेल दिखा। सर्वेक्षण के अनुसार, “नई कंपनियों के गठन के मामले में तो दक्कन के पठार से नीचे का इलाका आगे है, लेकिन उद्यमिता पूरे देश में फैली है। यह सिर्फ महानगरों तक सीमित नहीं।” यही कारण है कि कारोबारी गतिविधियां बड़े शहरों से निकलकर छोटी जगहों तक पहुंची हैं।

इन उद्यमियों को छोटे शहरों में रहन-सहन पर कम खर्च का फायदा मिलता है, जबकि वहां हाइवे, बिजली, मोबाइल कवरेज और ब्रॉडबैंड जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर महानगरों की तरह ही उपलब्ध हैं। छोटी जगहों पर प्रॉपर्टी की कीमत और किराया दोनों कम होते हैं। लोगों की तनख्वाह भी कम होती है। इससे इन शहरों के उद्यमी बड़े शहरों के मुकाबले कम कीमत पर सेवाएं दे सकते हैं।

छोटे शहरों, खासकर उद्यमियों के गृह नगरों में आसपास के लोगों से मिलने वाली मदद भी बड़े काम की होती है। सूरत के 30 वर्षीय संदीप विनीभाई कथीरिया को ही लीजिए। उनके माता-पिता किसान हैं और गांव में रहते हैं। संदीप ने चार कर्मचारी रखे और कपड़े बनाने वाले स्थानीय लोगों के लिए सिलाई और फिनिशिंग का काम करने लगे। आठ साल बाद ‘नवलिक’ नाम से उन्होंने अपना ब्रांड लांच किया। उनकी पत्नी फैशन डिजाइनर हैं और बिजनेस में भागीदार हैं।

पिछले त्योहारी सीजन, यानी सितंबर-अक्टूबर 2020 के दौरान कोविड-19 का असर होने के बावजूद संदीप ने दो करोड़ रुपये का माल बेचा, जबकि एक साल पहले उन्होंने त्योहारी सीजन में सिर्फ 50 लाख के कपड़े बेचे थे। खुद को करोड़पति बताने पर वे हंसते हुए कहते हैं, “कोविड-19 के दौरान हमारी बिक्री एक करोड़ को पार कर गई।” इसी तरह, अमित की पत्नी शिल्पी कुमारी जूते के बिजनेस में उनका साथ दे रही है। दूसरे उद्यमियों को भी जब भी जरूरत पड़ती है, परिवार और रिश्तेदारों से मदद मिल जाती है।

जाहिर है कि अब फोकस में बड़े शहर नहीं, बल्कि छोटी जगहें हैं जो अभी तक रडार से बाहर थीं। उम्मीद है, भारत जल्दी ही मौजूदा आर्थिक संकट के दौर से बाहर निकलेगा और तब महानगर नहीं, ये छोटे शहर ही देश के विकास का इंजन बनेंगे। यही शहर संपत्ति सृजन का नया केंद्र होंगे। तब अमीरी भी चुनिंदा जगहों तक सीमित नहीं, बल्कि समावेशी होगी।

विकास मिश्र

विकास मिश्र

कंपनीः ट्रिप टू टेंपल्स

बिजनेसः पर्यटन

स्थानः वाराणसी, उत्तर प्रदेश

सालाना टर्नओवरः

20 करोड़ रुपये

विकास की एक ट्रैवल कंपनी है, लेकिन कुछ अलग। उनकी विशेषज्ञता कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा में है। वे अपने क्लाइंट को जो सुविधाएं मुहैया कराते हैं, उनमें पावन दिनों में यात्रा कराना, यात्रियों के हर दल के साथ पूजा-अर्चना के लिए पंडित उपलब्ध कराना भी शामिल है। वे नेपाली गाइड और कुलियों को इस बात का प्रशिक्षण देते हैं कि धार्मिक यात्रियों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। टीटीटी क्लाइंट को दो दिन अतिरिक्त रुकने का भी अवसर देती है, और वह भी बिना अतिरिक्त खर्च के। विकास कहते हैं, “मैं लोगों को ऐसी सुविधाएं देना चाहता हूं जो दूसरे ट्रैवल ऑपरेटर नहीं देते हैं।”

निमिष सिंह

निमिष सिंह

कंपनीः अप्वाइंटी इंडिया

बिजनेसः सॉफ्टवेयर

स्थानः भोपाल, मध्य प्रदेश

सालाना टर्नओवरः

10 लाख डॉलर

निमिष तीन बार विफल हुए, लेकिन हर बार निराशा को झटक दिया। आज उनके ऑनलाइन शेड्यूलिंग सॉफ्टवेयर को सबसे बड़ी पांच आइटी कंपनियां और यूरोप की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी इस्तेमाल करती हैं। वे कहते हैं, “मैंने हर विफलता को भविष्य की सफलता की आधारशिला के तौर पर देखा।” उनकी किस्मत 2016 में तब बदली जब उन्होंने आठ कर्मचारियों के साथ अप्वाइंटी की शुरुआत की। अब उनकी कंपनी में 70 कर्मचारी हैं। वे कहते हैं, “सफलता सचिन तेंडुलकर को सचिन तेंडुलकर बनने से पहले तलाशने में है।” इस लक्ष्य के साथ उन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों को वेतन देकर इंटर्न के रूप में रखना शुरू किया। उन्होंने पूर्णकालिक कर्मचारियों को भी सपने पूरे करने के लिए प्रेरित किया। वे कहते हैं, “मैं कर्मचारियों को मिनी सीईओ के तौर पर देखता हूं। उन्हें यहां बिलियन डॉलर का स्टार्टअप लांच करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। हमारे कई पुराने कर्मचारी ऐसा कर चुके हैं।”

अमित कुमार

अमित कुमार

कंपनीः न्यू दादाजी स्टील हाउस बिजनेसः अप्लायंस-किताबें-गारमेंट स्थानः पटना, बिहार

सालाना टर्नओवरः उपलब्ध नहीं

चितकोहरा बाजार में उनकी पुरानी दुकान पर बिक्री लगातार घट रही थी। मार्जिन भी न के बराबर रह गया था। फ्लिपकार्ट ने जब उन्हें ऑफर दिया तो उन्होंने भी ईकॉमर्स में हाथ आजमाने का फैसला किया। इससे उनकी पहुंच बढ़ी और बड़ा बाजार मिला। दो साल बाद आज उनकी 60 फीसदी बिक्री ऑनलाइन होती है। ऑनलाइन बिजनेस में और भी फायदे हैं। ग्राहकों के साथ दाम को लेकर झिकझिक नहीं करनी पड़ती। ईकॉमर्स कंपनी मार्केटिंग की रणनीति यूट्यूब पर सिखाती है। इसके अलावा ईकॉमर्स कंपनी ने उनके लिए एक अलग रिलेशनशिप मैनेजर रखा है। कोविड-19 से ठीक पहले उन्होंने एक गोदाम खरीदा और इस समय 20 ब्रांड के 1,200 प्रोडक्ट बेच रहे हैं। वे कहते हैं, “धैर्य ही मेरा मंत्र है। मेरी राय में एक ही आइडिया पर काम करना चाहिए। लेकिन सफल होने के लिए उस आइडिया को लगातार बेहतर भी बनाते रहना चाहिए।”

करण पाल चौहान और विवेक परमार

करण

कंपनीः 31 पैरेलल

बिजनेसः बीपीओ

स्थानः शिमला, हिमाचल प्रदेश

सालाना टर्नओवरः 12 करोड़ रुपये

प्रोफेशनल से उद्यमी बने इन दोनों के लिए हिल स्टेशन में बैक ऑफिस खोलना अनोखा अनुभव था। छह साल से भी कम समय में यह प्रदेश का सबसे बड़ा कॉल सेंटर बन गया। इलेक्ट्रॉनिक्स और आइटी मंत्रालय ने 2018 में इसे सर्वश्रेष्ठ इनक्यूबेशन सेंटर चुना। इसकी सबसे बड़ी खासियतों में एक, सैकड़ों आइटी प्रोफेशनल को घर वापस लाना है। कोविड-19 से पहले यहां 800 कर्मचारी थे जो दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु से लौट कर आए थे। एक सीनियर कर्मचारी विकास शर्मा बताते हैं, “किसी ग्लोबल ब्रांड के लिए घर के पास बैठकर काम करना एक अलग सुखद एहसास देता है।” शुरू में करण और विवेक के माता-पिता ने उनका विरोध किया था, लेकिन आखिरकार वे मान गए। कारोबार की शुरुआत छोटे पैमाने पर ही हुई, लेकिन जल्दी ही उनके क्लाइंट की सूची में जानी-मानी ट्रैवल और हॉस्पिटैलिटी कंपनियां शामिल हो गईं।

त्रिशनीत अरोड़ा

त्रिशनित

कंपनीः टीएसी

बिजनेसः डाटा प्रोटेक्शन

स्थानः लुधियाना, पंजाब

सालाना टर्नओवरः 2022 तक 2000 करोड़ रुपये

देश के उद्यमी जगत में इस एथिकल हैकर का काफी नाम हो चुका है। त्रिशनीत ने तीन किताबें लिखी हैं। फोर्ब्स-30 और फॉर्चून-40 में उनका नाम आ चुका है। उनके जीवन पर जल्दी ही एक फिल्म बनने वाली है। इसके निदेशक हंसल मेहता हैं जिन्होंने हर्षद मेहता घोटाले पर ‘स्कैम 1992’ वेब सीरीज बनाकर ख्याति पाई है। त्रिशनीत का जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। आठवीं कक्षा के बाद जब उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया तब उनके अकाउंटेंट पिता और मां बेहद नाराज हुए थे। लेकिन त्रिशनीत को पता था कि किस्मत उन्हें कहां ले जाना चाहती है। वे बताते हैं, “बैंकिंग और हेल्थ सेक्टर में काफी डाटा होता है। इनमें हैकिंग का काफी डर रहता है क्योंकि हैकिंग के शिकार लोगों या कंपनियों के पास काफी व्यक्तिगत किस्म की जानकारियां होती हैं। एक दशक पहले मैं लोगों को इस बात के प्रति सचेत करता था कि हैकर आपका डाटा चुरा सकते हैं।”

भूपेंद्र पटेल

भूपेंद्र

कंपनीः होम सिजलर

बिजनेसः होम फर्निशिंग

स्थानः पानीपत, हरियाणा

सालाना टर्नओवरः उपलब्ध नहीं

जब भूपेंद्र का पहला क्रॉकरी का बिजनेस बंद हो गया तो थिएटर कलाकार पत्नी ने उन्हें दोबारा सपने देखने के लिए प्रोत्साहित किया। तब उन्होंने पर्दे का बिजनेस शुरू किया। पहले तो उनके पास सिर्फ 15 डिजाइन के पर्दे थे, अब 400 डिजाइन हैं। कोविड-19 महामारी उनके लिए वरदान साबित हुई। वे बताते हैं, “ट्रेंड बदल रहा है। युवा पीढ़ी लाइफस्टाइल पर खर्च करना चाहती है। ये लोग ऑनलाइन ऑर्डर करते हैं और खरीदने से पहले अलग-अलग जगहों पर कीमतों की तुलना करते हैं। यह पीढ़ी डिजिटल तरंग पर सवार है।” भूपेंद्र के अनुसार छोटे शहर के कई फायदे हैं। किराया कम होता है, मजदूरी कम देनी पड़ती है और प्रतिस्पर्धा भी कम रहती है। जहां तक बाजार की बात है, तो टेक्नोलॉजी के कारण पूरी दुनिया का बाजार उनके लिए खुला है।

ज्यादातर उद्यमी पहली पीढ़ी के हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अनुसार 99 फीसदी उद्यमी नौकरी नहीं करना चाहते। नए कारोबारी किले उन छोटे शहरों में खड़े हो रहे जहां कुछ दिनों पहले तक कोई बिजनेस स्थापित करने की सोचता नहीं था

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