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अमित शाह के बेदाग बरी होने पर दाग

सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे एक जज का तबादला तो दूसरे जज की रहस्यमय मौत ने ‘कुछ तो गड़बड़ है’ को पुष्ट किय
अमित शाह के बेदाग बरी होने पर दाग

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के कानों में आने वाले कुछ समय तक तो यह बेचैन कर देने वाला कथन गूंजता रह सकता है ‘कुछ तो गड़बड़ हुई है।’ यह बयान केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की मुंबई स्थित विशेष अदालत के एक जज ने बहुचर्चित सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले पर सन 2014 में फैसला सुनाने से एक दिन पहले दिया था, जिसके अगले दिन ही अमित शाह को बरी करने का फैसला सुनाया गया।

सीबीआई ने अहमदाबाद के दो बिल्डरों- दशरथ पटेल और रमण पटेल को शाह के खिलाफ बतौर गवाह पेश किया था। दोनों ने जांचकर्ताओं को बताया था कि शाह के करीबी पुलिस अधिकारियों ने उनसे जबरन वसूली कर धन का इस्तेमाल सोहराबुद्दीन के वफादारों को धमकाने के लिए किया था। ये दोनों अधिकारी- अभय चुडासमा और डी. जी. वंजारा अब जमानत पर हैं जबकि चुडासमा को गुजरात सरकार ने बहाल भी कर दिया है। दोनों अधिकारियों ने न सिर्फ मामले से शाह का नाम हटाया बल्कि फोन पर राज्य के शक्तिशाली मंत्री (गृह) के नाम पर धन उगाही भी करते थे। उनका दावा था कि जब सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में मामले की जांच सीबीआई से कराने का ‌आदेश दिया था तो शाह ने उन्हें सोहराबुद्दीन मामले पर जांच एजेंसी के समक्ष सतर्क बयान देने का निर्देश दिया था।

शाह के अधिकारियों के साथ बिल्डरों की बातचीत की एक वीडियो-रिकॉर्डिंग भी कराई गई। उन्होंने सीबीआई के समक्ष अपराध दंड संहिता की धारा 161 और धारा 164 के तहत तीन बयान दर्ज कराए। धारा 161 के तहत बयान पुलिस के समक्ष दिए गए और इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया जबकि धारा 164 के तहत जज के सामने बयान दर्ज किए गए जो मान्य साक्ष्य थे। हालांकि एम. बी. गोसावी की सीबीआई की विशेष अदालत ने अदालत में दर्ज किए गए बिल्डरों के बयान को भी स्वीकार नहीं किया। गोसावी ने 30 दिसंबर 2014 को अपने आदेश में कहा कि कुछ हफ्तों और महीनों के अंतराल पर दर्ज किए गए तीनों बयानों में सिर्फ व्याकरणिक हेरफेर ही है। इसके बाद ही जज ने यह कहते हुए उनके बयानों को खारिज कर दिया कि कुछ तो गड़बड़ हुई है। वकीलों का कहना है कि जांच प्रक्रिया के दौरान बदल-बदल कर दिए गए ऐसे बयानों को जज साक्ष्य के तौर पर नहीं मानते क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसे बयान प्रेरित होते हैं। इस मामले में यही गड़बड़ी हुई और अभियोजन पक्ष ठोस सबूत जुटाने में विफल रहा। गोसावी ने सीबीआई द्वारा पेश कॉल डिटेल रिपोर्ट को भी निराधार माना जिससे साबित हो सके कि सन 2005 में जिस दौरान सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी कौसरबी के अपहरण और उसके बाद मुठभेड़ में उनकी हत्या हुई थी, उन दिनों अमित शाह इस कार्रवाई में शामिल पुलिस अधिकारियों के संपर्क में थे। शाह को इस घटनाक्रम के पल-पल की जानकारी थी, यह साबित करने के लिए सीबीआई ने आउटगोइंग और इनकमिंग कॉल के एक-एक सेकंड का ब्योरा पेश किया था। सीबीआई का तर्क था कि जब कोई गृह मंत्री पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) और गृह सचिव को निर्देश देता है लेकिन किसी अवसर पर उसे एसपी और डिप्टी एसपी के संपर्क में नहीं देखा गया है। लेकिन सीबीआई अदालत ने शाह की इस दलील को ही सही माना‌ कि फोन कॉल्स से कोई सुराग नहीं मिलता। उनके वकील ने अदालत को बताया कि एक सक्रिय और कुशल मंत्री होने के नाते उन्हें क्षेत्र में कार्यरत अधिकारियों के संपर्क में रहना पड़ता है। जज ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया और कहा कि सीबीआई यह सोचने के लिए स्वतंत्र है कि किसी शक्तिशाली मंत्री का अपने मातहत अधिकारियों से सीधे तौर पर बात करना अव्यावहारिक एवं अटपटा है लेकिन विश्व में आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए ऐसी कार्यवाही पर सवाल उठाने का वाकई कोई कारण नजर नहीं आता।

इस दलील को पचा पाना वाकई मुश्किल है क्योंकि यदि आप मानते हैं कि शाह अपने मातहत अधिकारियों से लगातार संपर्क में रहने प्रभावशाली मंत्री हैं और हमेशा अपनी आंख और कान खुले रखते हैं तो निश्चित रूप से उन्हें यह भी पता होगा कि उनकी नाक के नीचे फर्जी मुठभेड़ हो रहा है। क्या गुजरात पुलिस अपनी जांच टीम बनाकर सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी कौसरबी तथा फर्जी मुठभेड़ के इस मामले के प्रमुख गवाह तुलसीराम प्रजापति की हत्या के दोषी अधिकारियों की पहचान नहीं कर ली होती? सन 2007 और 2008 में दायर दो अलग-अलग आरोप-पत्रों में गुजरात पुलिस ने दावा किया कि तीनों की हत्या सिर्फ इसलिए की गई कि उन अधिकारियों को नाम, शोहरत और प्रोन्नति चाहिए थी। राज्य पुलिस को जांच का आदेश देने वाली सर्वोच्च अदालत भी इस दलील से सहमत नहीं थी। सु्प्रीम कोर्ट में सौंपी गई रिपोर्टों और आरोप-पत्रों में अंतर पर सवाल उठाते हुए शीर्ष अदालत ने सन 2010 में सीबीआई जांच के आदेश दिए और जांच एजेंसी को इस ‘बड़ी साजिश’ और इसमें शामिल गुजरात के उच्च अधिकारियों की संलिप्तता की जांच के आदेश दिए। शाह सहित 38 आरोपियों के खिलाफ दायर भारी-भरकम आरोप-पत्र (22 हजार पन्ने और  710 गवाहों के बयान) को खारिज करते हुए गोसावी ने अपने आदेश में कहा कि शाह को इस मामले में ‘राजनीतिक कारणों’ से घसीटा गया। इसके बाद उन्होंने सीबीआई की भूमिका और न्यायिक प्रक्रिया पर  सवाल उठाते हुए दो अन्य आरोपी पुलिस अधिकारियों पी. सी. पांडेय और राजकुमार पांडियान को भी बरी कर दिया।

एक के लिए गम, तीन के लिए खुशी

मुंबई से नागपुर के लिए ट्रेन पर चढ़ते ही 52 वर्षीय बृजमोहन एच. लोया सुकूनदायी सप्ताहांत बिताने के सपने संजोने लगे। उन्होंने जुलाई में सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश का दायित्व संभाला था इसलिए कई महीनों से तनाव में चल रहे थे। वह अगले दिन यानी रविवार, 30 नवंबर 2014 को नागपुर में एक शादी समारोह में शामिल होने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने राज्य सरकार के अतिथिगृह रवि भवन में रात गुजारने और मंगलवार को अदालत पहुंचने की योजना बनाई थी। लेकिन जबर्दस्त हृदयाघात के कारण सोमवार की सुबह उनकी आंख ही नहीं खुल पाई। उनकी अचानक मृत्यु की खबर सुनकर मुंबई के वकीलों और जजों को जबर्दस्त सदमा और दुख पहुंचा। इंडियन एक्सप्रेस (2 दिसंबर, 2014) की खबर के मुताबिक, लोया के करीबी सूत्रों ने बताया कि उनकी सेहत का बेदाग इतिहास रहा है। वकील विजय हीरेमात उन्हें असाधारण और खुशमिजाज जज के तौर पर याद करते हैं जिन्हें उन्होंने हमेशा तंदुरुस्त और सक्रिय देखा है।

उनके पैतृक शहर लातूर में जब उनका अंतिम संस्कार किया जा रहा था, उसी समय नई दिल्ली में सांसदों का एक दल संसद भवन के बाहर उनकी ‘रहस्यमय मौत’ के खिलाफ और इस घटना की सीबीआई जांच की मांग कर रहा था। अखबारों के अंदर के पन्नों पर इस घटना की छोटी सी खबर ही छपी थी। इसके एक दिन बाद 4 दिसंबर को उज्जैन से सोहराबुद्दीन शेख के भाई रूबाबुद्दीन ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को ‌पत्र लिखाः ‘मैं इस घटना से आहत हूं और गहरे सदमे में हूं। मैं यह पत्र इस आशंका के साथ लिख रहा हूं कि सत्र न्यायालय के ‌जज की असमय मृत्यु एक बड़ी साजिश का हिस्सा हो सकती है, संभवतः इस घटना को नए जज को धमकी देने के इरादे से भी अंजाम दिया गया हो।’ अदालत ने उनकी इस आशंका को मानने से इनकार कर दिया लेकिन पिछले नौ वर्षों से लगातार न्याय की बाट जोह रहे उज्जैन के इस किसान को इस घटनाक्रम की एक अलग प्रवृत्ति नजर आती हैः पांच महीने पहले जून 2014 में उन्हें जब यह खबर मिली कि बंबई हाईकोर्ट ने इस मुकदमे की सुनवाई कर रहे पहले जज जे. टी. उत्पट का तबादला पुणे कर दिया तो उन्हें गहरा झटका लगा। रूबाबुद्दीन ने बंबई हाईकोर्ट की प्रशासनिक समिति को पत्र लिखकर आशंका व्यक्त ‌की और सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की भी याद दिलाई जिसमें कहा गया था कि एक ही जज को इस मुकदमे की सुनवाई पूरी करनी चाहिए। लेकिन मई 2013 में मामले की सुनवाई शुरू करने वाले जज उत्पट महज एक साल ही मुकदमे की सुनवाई कर पाए।  राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार के सत्ता में आने के महज एक महीने बाद ही उनका तबादला हो गया। अब उनके बाद ‌सुनवाई के लिए नियुक्त किए गए जज लोया की मृत्यु हो गई।

उत्पट की सीबीआई अदालत में एक साल तक और इसके बाद भी सुनवाई के दौरान अमित शाह एक बार भी अदालत में उपस्थित नहीं हुए, यहां तक कि उन्हें बरी करने के फैसले वाले दिन भी वह अदालत से नदारद थे। शाह के वकील ने उन्हें मधुमेह का मरीज होने के कारण कहीं आने-जाने में असमर्थ और दिल्ली में व्यस्त रहने का हवाला देते हुए व्यक्तिगत उपस्थिति से बरी करने की अपील की थी। छह जून 2014 को उत्पट ने हालांकि शाह को अदालती कार्यवाही से छूट तो दे दी लेकिन उनके वकील से नाराजगी जताते हुए 20 जून को शाह को अदालत में रहने का आदेश जारी किया। लेकिन वह फिर नहीं आए। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, उत्पट ने शाह के वकील से कहा, ‘हर बार आप कोई कारण बताए बगैर छूट देने की अपील करते हैं।’ उन्होंने सुनवाई की अगली 26 जून तय की लेकिन 25 जून को ही उनका पुणे तबादला हो गया। बंबई हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार-जनरल ने मीडिया को बताया कि उत्पट की बेटी पुणे में पढ़ रही थी इसलिए वह तबादला चाहते थे। रूबाबुद्दीन ने अपने पत्र में बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से उत्पट को पुनः नियुक्त करने का अनुरोध किया। इस पर बहुत देर बाद प्रतिक्रिया देते हुए 28 अगस्त को रजिस्ट्रार जनरल ने लिखा कि हालांकि उनका अनुरोध 23 जुलाई को हाईकोर्ट के तीन जजों की प्रशासनिक समित‌ि के समक्ष रखा गया था लेकिन समिति ने उनका तबादला रुकवाने की कोई ठोस वजह नजर नहीं आई।

उत्पट के बाद नियुक्त लोया इस मामले में उदारवादी थे और सुनवाई की प्रत्येक तारीख को शाह को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट देते रहे। लेकिन अपनी एक आखिरी टिप्पणी में उन्होंने कह दिया कि शाह को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट ‘आरोप तय होने तक’ ही मिली हुुई है। शाह के प्रति उदारता दिखाने के बावजूद लोया ने कभी शाह के खिलाफ आरोप रद्द करने का इरादा स्पष्ट नहीं किया। लोया के बाद आए जज गोसावी ने एक अलग और स्पष्ट इरादे से सुनवाई की तारीख 4 दिसंबर तय की। सबसे पहले उन्होंने शाह की बेदाग रिहाई की याचिका पर सुनवाई की और लगातार दो दिन 15 और 16 दिसंबर को उनके वकीलों की दलीलें सुनने के बाद ही सीबीआई के वकील की दलील सुनी। लेकिन इसके एक पखवाड़े से कम अवधि में ही यानी 30 दिसंबर को उनसे पहले नियुक्त जज की नागपुर में मृत्यु हो गई और गोसावी ने इसके बाद ही शाह को सभी आरोपों से बरी कर दिया।

फर्जी मुठभेड़ का घटनाक्रम

22 नवंबर 2005ः सोहराबुद्दीन शेख, उनकी पत्नी कौसरबी तथा तुलसीराम प्रजापति को बस से जहीराबाद (उत्तर प्रदेश) से उठाया गया।

23 नवंबर 2005ः सोहराबुद्ीन और कौसरबी को वलसाड और भरूच (गुजरात) होते हुए दिशा फार्म हाउस ले जाया गया।

25 नवंबर 2005ः सोहराबुद्दीन को अरहाम फार्म हाउस ले जाकर मार डाला गया। कौसरबी को कुछ दिनों बाद ही बिना‌ किसी कारण के मार डाला गया।

14 जनवरी 2006ः सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात पुलिस को इस हत्याकांड की जांच के आदेश दिए।

27 जून 2006ः सुप्रीम कोर्ट से तीन बार आदेश जारी करने के बाद ही गुजरात पुलिस प्रारंभिक जांच के लिए आगे बढ़ी।

18 दिसंबर 2006ः वी. एल. सोलंकी ने तुलसीराम और सोहराबुद्दीन के करीबी सिलवेस्टर से उदयपुर जेल में पूछताछ करने की अपील की। लेकिन इसे खारिज कर दिया गया।

27 दिसंबर 2006ः प्रत्यक्षदर्शी गवाह तुलसीराम प्रजापति को मुठभेड़ में मार ‌दिया गया।

2007ः रूबाबुद्दीन शेख ने सीबीआई जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।

2007ः गुजरात पुलिस ने माना कि सोहराबुद्दीन की मौत फर्जी मुठभेड़ में हुई। पुलिस महानिदेशक सहित 13 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल।

5 मई 2007ः गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कौसरबी का शव इल्लोल गांव में जला दिया गया।

12 जनवरी 2010ः सुप्रीम कोर्ट  ने सीबीआई जांच के आदेश दिए।

27 सितंबर 2012ः सुप्रीम कोर्ट ने अमित शाह की जमानत याचिका रद्द करने की सीबीआई की दलील खारिज कर दी लेकिन जब जांच एजेंसी ने शिकायत की कि उसके कामकाज में बाधा डाली जा रही है और अधिकारियों को बेवजह परेशान किया जा रहा है तो सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई गुजरात से बाहर कराने का आदेश दिया।

8 अप्रैल 2013ः सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मुठभेड़ मामलों की एक साथ सुनवाई करने की शाह की अपील स्वीकार की।

मई 2013ः मामले से जुड़े तथ्य मुंबई स्थित सीबीआई की विशेष अदालत में हस्तांतरित कर जे. टी. उत्पट को बतौर जज नियुक्त किया गया।

मई 2014ः तथ्यों का गुजराती से अंग्रेजी एवं मराठी में अनुवाद कराने के बाद निचली अदालत में सुनवाई की कार्यवाही शुरू हुई।

25 जून 2014ः बंबई हाईकोर्ट ने न्यायाधीश उत्पट का तबादला पुणे किया और न्यायाधीश बृजमोहन लोया को उनकी जगह सीबीआई की विशेष अदालत का नया जज नियुक्त किया गया। 

1 दिसंबर 2014ः नागपुर के एक सरकारी गेस्टहाउस में न्यायाधीश लोया की हृदयाघात के कारण मृत्यु।

15 दिसंबर 2014ः न्यायाधीश लोया के बाद नियुक्त जज एम. बी. गोसावी ने अमित शाह की रिहाई याचिका पर सुनवाई शुरू की।

17 दिसंबर 2014ः न्यायाधीश गोसावी ने सुनवाई पूरी करते हुए फैसला सुरक्षित रखा। 

29 दिसंबर 2014ः सीबीआई के विशेष जज गोसावी ने शाह के खिलाफ सभी आरोपों को खारिज किया, इस दलील को स्वीकार कर लिया कि सीबीआई ने राजनीतिक कारणों से शाह को आरोपी बनाया था।

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