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रामदरश मिश्र की कहानी - साढ़ेसाती

सन 1951 में पहला काव्य संग्रह पथ के गीत का प्रकाशन। तब से निरंतर रचना कर्म में सक्रीय। आग की हंसी के लिए सन 2015 का साहित्य अकादमी सम्मान। कविता, उपन्यास, कहानी, ललित निबंध, आत्मकथा, आलोचना, यात्रावृत्तांत, डायरी, समीक्षा, संस्मरण आदि सभी विधाओं में लेखन। दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, शलाका सम्मान, महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान, व्यास सम्मान सहित कई पुरस्कार एवं सम्मान।
रामदरश मिश्र की कहानी - साढ़ेसाती

वह चलते-चलते थक गया था लेकिन अब मंजिल सामने थी। वह रास्ते के किनारे बैठ गया। वह आलीशान आश्रम को देखने लगा। हां, यही आश्रम है महान तांत्रिक रोहित स्वामी का। किसी ने उससे कहा था कि इस महान तांत्रिक से मिलो, बड़े सिद्ध पुरुष हैं। तुम्हारे ऊपर जो दैवी प्रकोप है, उसका शमन कर देंगे और तुम्हारा भाग्य चमक उठेगा। यहां एक-से-एक मुसीबतजदा लोग आते हैं और प्रसन्न होकर जाते हैं। वह दस कोस पैदल चलकर यहां पहुंचा था। सोचा, अंदर चलूं और तांत्रिक का आशीर्वाद लूं।

लेकिन यहां तो गाड़ियों की भरमार लगी है। एक-से-एक शानदार गाड़ियां यहां रूक रही हैं। इनमें से एक से बढ़कर एक चिकने नर-नारी चेहरे उतर रहे हैं। दोनों हाथों की उंगलियों में कीमती अंगूठियां चमचमा रही हैं। तन पर रेशमी वस्त्र अपनी आभा फेंक रहे हैं। कारों से चमचमाते हुए पैकेट उतारे जा रहे हैं, शायद चढ़ावे के लिए हों। वह सोच रहा था कि इन देवताओं को कौन-सा दु:ख है भाई कि उसे दूर कराने के लिए तांत्रिकजी की शरण में आ रहे हैं। आगे बढ़ने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। पुलिस का पहरा लगा था। गेट पर साधुओं के वेश में कुछ लोग खड़े थे। बहुत देर हो गई बैठे हुए। वह आगे बढ़ा तो एक साधु ने कहा, 'अरे भाई, तू कहां अंदर घुसा चला जा रहा है देखता नहीं है, मंत्री जी अंदर गए हैं।’

'अरे स्वामी जी, मैं बहुत दुखी आदमी हूं। मैं गुरुजी के दर्शन करना चाहता हूं, ताकि मेरा दु:ख-दलिद्र दूर हो। वह बताएंगे कि मेरा भाग्य इतना खराब क्यों चल रहा है?’

'देख भाई, गुरुजी इतने सस्ते नहीं हैं कि इखारियों-भिखारियों का भाग्य देखते चलें। जिसका कोई भाग्य ही नहीं है, उसका कोई क्या भाग्य देखेगा। भाग्य दिखाना ही है तो देख, फुटपाथ पर तोता लिए हुए बहुत से ज्योतिषी बैठे रहते हैं, उन्हें दिखा लें।’

'स्वामी जी, दया कीजिए।’

'अरे हट, देख मंत्रीजी आ रहे हैं।’ कहते हुए एक स्वामी ने उसे ढकेल दिया और पुलिस का एक सिपाही उसे पकड़कर दूर ठेल आया।

वह बहुत आहत हुआ। थोड़ी दूर पर एक ढाबा दिखा। वह उधर को सरकने लगा। उसने जेब टटोली। हां, चाय भर को पैसे हैं। वह एक बेंच पर बैठ गया। चाय के लिए बोला तो ढाबे वाले का आशय समझकर वह बोला, 'पैसे हैं भाई।’ वह मुसकराया, ढाबे वाला भी मुसकरा उठा। उसकी बगल में दो नवयुवक चाय पी रहे थे। आपस में बात कर रहे थे, 'सुबह से ही कई मंत्री आ चुके हैं। कल सुपर स्टार अनंग जी आए थे। परसों करोड़पति भिखारी लाल जी आए थे और छोटे-मोटे नेता-अभिनेता तथा सेठ तो दिन-भर आते ही रहते हैं।’

'भैया, मैंने तो सुना था कि रोहित स्वामीजी लोगों का दु:ख-दलिद्र दूर करते हैं, यहां तो सारे देवता लोग आ रहे हैं। उन्हें क्या दु:ख है?’ उसने डरते-डरते उन युवकों से पूछा।

उन दोनों ने एक साथ उसे देखा। वह थोड़ा घबराया कि कहीं ये सब बुरा न मान गए हों।

'भाई, लगता है, आप कहीं से नए-नए आए हो। अरे, सबसे बड़ा दुख तो इन्हीं लोगों को है।’

इतना कहकर वह युवक चुप हो गया। उसे लगा कि बात तो और उलझ गई। 'सबसे बड़ा दुख इन्हीं लोगों को है’ इसका क्या मतलब? लेकिन वह युवक बुरा न मान जाए, इसलिए आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। किंतु वह युवक समझ गया कि यह बेचारा गरीब आदमी उलझन में पड़ गया है। वह बोला, 'भैया, तुम्हें मालूम है न, चुनाव आने वाला है?’

'हां, सुन तो रहा हूं।’

'और यह भी जानते हो न कि एक बार जो मंत्री की कुरसी पर बैठ जाता है, वह देश को अपनी जागीर समझने लगता है और न जाने उससे क्या-क्या उगाहता रहता है। और जब चुनाव आता है तब वह डर जाता है कि उसकी इतनी बड़ी जागीर कहीं छिन न जाए। उसने जनता के लिए कुछ काम तो किया नहीं होता है, इसलिए उसका डर स्वाभाविक है। कुरसी हिलती हुई लगने लगती है। उसका दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाती है। तब रोहित स्वामी के यहां भागता है। किसी की जागीर छिन जाना कम तकलीफ की बात है क्या?’

'समझा?’ के भाव से वह सिर हिलाने लगा।

'और देखो, चुनाव के दिन आते ही सभी मंत्रियों को साढ़ेसाती लग जाती है। और सेठों को देखो तो लगता है, बेचारे कितनी विपत्ति के मारे हुए हैं। उन्हें चिंता रहती है कि रातों रात एक करोड़ का दस करोड़ कैसे हो? कैसे उनका स्मगलिंग का सामान सही-सलामत अपनी जगह पहुंच जाए? कैसे वे ईमानदार अफसरों और नेताओं को खरीदकर हराम की अपनी सारी कमाई पचा सकें? कैसे वे अपने खिलाफ उठे मजदूरों के आंदोलन को दबा सकें? इन्हीं चिंताओं में न तो वे ढंग से खा पाते हैं, न सो पाते हैं और इलाज खोजने स्वामीजी के पास चले आते हैं। कुछ समझ रहे हैं आप?’

'हां बाबू, समझ रहा हूं।’

'और ये अभिनेता भी तो यश, पैसे और भविष्य की असुरक्षा के डर के मारे हुए हैं। जनता कब तक उनकी जय बोल रही है और कब उठाकर बाहर फेंक देगी, किसी को पता नहीं। इसी डर से और प्रतिस्पर्धा में दूसरों को पटकी देने की महत्वाकांक्षा से ये स्वामीजी की शरण में आया करते हैं। और स्वामीजी उन्हें अभय वरदान देते रहते हैं। देखा नहीं, ये तमाम अभिनेता बांह में गंडा और गले में ताबीज बांधे रहते हैं और ताबीज में इस स्वामी की या किसी और स्वामी की छोटी-सी तसवीर मढ़ी रहती है। ये सब भिखारी हैं। सच पूछो तो भइया, यह स्वामी खुद ही बड़ा भिखारी है यह औरों का कष्ट दूर करने का स्वांग करता हुआ अपने सुखों का पहाड़ खड़ा करता रहता है।’

'अरे भाई, यही क्यों, साढ़े साती के मारे न जाने ऐसे कितने-कितने शिक्षक, कलाकार, साहित्यकार और समाजसेवी चुपके-चुपके आते रहते हैं, जो खुलेआम अपने को विद्रोही कहते हैं। यहां आकर स्वामीजी के चरणों में गिरकर मनौतियां मानते हैं। हम लोग प्राय: यहां चाय पीते हैं और इस प्रायोजित स्वामीजी की लीला देखते रहते हैं।’ दूसरा युवक बोला।

चाय वाला सुनता रहा। पास आकर धीरे बोला, 'आप जो कुछ कह रहे हैं, सही कह रहे हैं, लेकिन इतना तेज बोलकर हमें भी खतरे में डालेंगे और अपने को भी।’

'अरे हां रे, जिस तांत्रिक के चेले मंत्री हों, सेठ हों, अफसर हों, पुलिस हो, मुस्टंडे साधु हों, उसके बारे में उसी के आसपास इतना तेज-तेज नहीं बोलना चाहिए।’ युवक बोला।

'हां बाबू, मैंने देखा है विरोध का भाव लेकर आने वालों को पिटते हुए।’

'चलो भाई, चलते हैं अब कॉलेज की ओर। कुछ पढ़ाई-लिखाई भी हो जाए।’

'अच्छा बाबू, आप लोगों ने बहुत कुछ ज्ञान दे दिया, अब मैं भी चलता हूं। सोचा था, साढ़ेसाती का कोप दूर करने का कोई उपाय पूछूंगा, लेकिन यहां तो निस्तार ही नहीं है और मुझसे भी दुखी लोग लाइन लगाए हुए हैं।’

'तुम्हें साढ़ेसाती है तो आओ मेरे साथ।’ कहकर वे युवक आगे-आगे चलने लगे। वह भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। वे एक छोटे से मंदिर के पास जाकर रुके। पुजारी को देखते ही उन्होंने प्रणाम किया।

'कैसे हो, बाबू लोगों?’

'हम तो ठीक हैं, पंडितजी, लेकिन यह गरीब आदमी साढ़ेसाती का मारा हुआ है। इसे आपके पास लाए हैं। कोई उपाय बताइए। रोहित स्वामी से मिलने आया था, लेकिन आप तो जानते ही है...।’

पुजारी जी हंसे और उस आदमी को बुलाकर कहा, 'देखो भाई, साढ़ेसाती जाएगी तो अपने समय पर, लेकिन कुछ पूजा-पाठ करने से उसका प्रकोप कम हो सकता है।’

'जी पंडितजी।’

'तो ऐसा करो कि हर शनिवार को पीतल के लोटे से पीपल पर जल चढ़ाया करो।’

'पंडित जी, मेरे पास तो पीतल का लोटा भी नहीं है।’

पंडित जी मुसकराए, फिर ठठाकर हंसे। 'क्या बात है, पंडित जी, कोई गलती हो गई?’

'अरे नहीं रे! अरे बेवकूफ, जब तेरे पास पीतल का लोटा तक नहीं है तो तू क्यों डरता है? साढ़ेसाती तेरा क्या बिगाड़ लेगी? क्या छीन लेगी? अरे, ताल ठोककर शनिश्चर महाराज को ललकार दे, 'कर लो जो करना हो।’

दोनो युवक, पंडित जी तथा वह मुसकराने लगे। फिर एकाएक वह ठठाकर हंसा और चिल्लाकर बोला, 'अरे ओ शनिचरा, तुझसे मैं बहुत डर लिया रे, अब आ जा, जो करना हो सो कर ले। तुझे ऐसी पटकी दूंगा कि तू भी याद रखेगा।’

वह हंसते हुए 'शनिचरा, शनिचरा’ चिल्लाता हुआ रोहित स्वामी के आश्रम की ओर बढ़ने लगा।

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