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भीष्म साहनी का आज का अतीत

लोगों की पहचान, संस्कृति और राजनीति को आकार देने के पीछे न अनगिनत आंदोलनों और अभियानों का हाथ होता है। शायद अनगिनत, और भीष्म साहनी जैसी शख्सियत को गढ़ने में भी स्वतंत्रता आंदोलन, पूर्वाग्रहों और अज्ञानता से जंग के कई अभियान गुजरे होंगे इसलिए उनका जीवन और उनके संस्मरण आज के दौर के लिए प्रासंगिक हैं।
भीष्म साहनी का आज का अतीत

लेखक, अभिनेता, कार्यकर्ता, रंगमंच कलाकार, स्वतंत्राता सेनानी और पद्म भूषण पुरस्कार विजेता साहनी की आत्मकथा टुडेज पास्ट अतीत की गहराई में वापस नहीं ले जाती बल्कि जैसा कि इसका शीर्षक बताता है यह वर्तमान समय को भूत की गहराइयों में निर्मित करती है।

मूलत: यह किताब हिंदी में लिखी गई और इसे अंग्रेजी में स्नेहल सिंघवी ने पेश किया है। सिंघवी यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर हैं। सिंघवी की लिखावट में अनुवाद का हल्का पुट है लेकिन उन्होंने इसे कहानी के अंदाज में लिखा है।

प्रगतिशील भारतीय रंगमंच के एक आदर्श और भारतीय साहित्य की महान हस्ती भीष्म साहनी की आत्मकथा कला के प्रति उनके प्यार और जुनून को दर्शाती है। स्वतंत्रता के शुरूआती दिनों में शिक्षित युवा वर्ग की कल्पनाओं में कला और आधुनिकता का संचार हो रहा था और साहनी को भी इन्हीं से लगातार उर्जा मिल रही थी। उनके आसपास का वातावरण और उनसे जुड़े लोगों की आकांक्षाएं भी इसी से आकार ले रही थीं।

इस कथा में कैफी आजमी, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, कृष्णा सोबती जैसी अन्य चर्चित शख्सियतों की कहानी भी साथ में चलती है। उसके बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह इत्यादि के साथ गुजारे अपने पलों को भी साहनी ने इस किताब में पिरोया हुआ है।

भीष्म साहनी के जीवन में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का प्रभाव भी स्पष्ट झलकता है जो बॉलीवुड के शुरूआती सितारों में से एक थे।

भीष्म साहनी के उपन्यास तमस को वर्ष 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। आत्मकथा में वह बताते हैं कि कॉलेज के दिनों में उनका सिर्फ एक सपना था कि वह कॉलेज की तरफ से हॉकी खेलें और बाद में उन्होंने रूसी किताबों का हिंदी भाषा में अनुवाद करते हुए सात साल गुजारे।

प्रकाशन और लेखन के अपने व्यस्त जीवन में भी उन्होंने सईद अख्तर मिर्जा की फिल्म मोहन जोशी हाजिर हो में अदाकारी की। इस तरह उन्होंने अपनी लेखनी से साहित्य को जो नई ऊंचाइयां प्रदान की उन सबके पीछे के मूल का जिक्र उनकी इस किताब में है।

उनके जीवन की यह गाथा 1915 में रावलपिंडी में उनके जन्म से शुरू होती है और वर्ष 2003 में दिल्ली तक के उनके सफर पर खत्म होती है।

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