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हिंदुस्तान के हम विवेकी पुरुष

अभिनेता टॉम ऑल्टर ने किसी दिन कहा, भारत हमेशा से असहिष्णु देश रहा है। क्या हमने आजादी के सिर्फ 5 महीने के अंदर महात्मा की हत्या नहीं कर दी? क्या सरकारों ने पुस्तकों, नाटकों, फिल्मों और प्रदर्शनियों को प्रतिबंधित नहीं किया?
हिंदुस्तान के हम विवेकी पुरुष

कोई भी उनकी बात से सहमत हो सकता है। हमारा इतिहास और साथ ही महाभारत जैसे महाकाव्य इसकी गवाही देते हैं। सहिष्णुता को हमेशा कमजोरी के बराबर माना गया है। और इसलिए इस देश में महात्मा गांधी के अहिंसा के विचार को मानने वाले लोग गिनती के हैं। आमिर खान द्वारा हाल में नई दिल्ली में दिए गए या नहीं दिए गए बयान पर उठा ताजा विवाद और हिंसक प्रतिक्रिया फिर इस बात का सबूत है कि इस देश में हम तेजी से संतुलन की भावना को खोते जा रहे हैं।

शुरू में ही यह याद करना मददगार रहेगा कि आमिर खान ने यह नहीं कहा था कि भारत असहिष्णु है। न ही उन्होंने यह कहा था कि वह असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और देश छोड़ने का विचार बना रहे हैं। धनवान और सफल लोग आमतौर पर कहीं भी सुरक्षित महसूस करते हैं। उनके पास अपना खयाल रखने योग्य संसाधन होते हैं। इसलिए जब आमिर खान ने कथित रूप से असुरक्षा की बढ़ती भावना की बात कही तो वह आम आदमी द्वारा महसूस की जा रही असुविधा का हवाला दे रहे थे।

यह असहमति या 'फर्जी असहमति’ नहीं थी जैसी कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसे पेश किया। आमिर वह बात कह सकते हैं जो बात उन्हें अपने भरोसेमंद सूत्रों से पता चलती है। यह उनका विचार है जिससे असहमत होने के लिए जेटली तथा अन्य लोगों का स्वागत है। मगर इसके कारण उन्हें देशद्रोही और भाजपा एवं मोदी विरोधी होने का आरोप लगाने वाले संघ समर्थकों की प्रतिक्रिया इतनी उग्र थी कि उसने उनकी भावना को पुष्ट ही किया कि यहां कुछ तो ऐसा गलत है कि हर समझदार व्यक्ति उससे सतर्क हो जाए।

लोगों की एक बड़ी आबादी मानती है कि सहिष्णुता हिंदुओं की आनुवंशिकी में है। वे यह भी कहते हैं कि यह देश कभी असहिष्णु नहीं हो सकता। ऐसे लोग निश्चित रूप से मसले के अति सरलीकरण के दोषी हैं। न तो हमारे सम्राटों का लेखा-जोखा और न ही विभाजन से प्रकट घृणा और उसके बाद हुए दंगे किसी सहिष्णुता की गवाही देते हैं। कोई लेखक अपनी किताब में जो लिखता है उससे असहमत होकर (आप उसकी किताब न पढ़ें या उसकी किताब के जवाब में कोई किताब लिखें) उसकी हत्या कर देना सहिष्णुता नहीं है। पवित्र गाय को बचाने के लिए निगरानी समूहों का गठन करना कानून को अपने हाथ में लेना है। किसी व्यक्ति को महज संदेह की बिना पर उसके शयनकक्ष में मार डालना बर्बरता है। ऐसी हत्याओं के जिम्मेदार सत्ताधारी दल के लोगों छोड़ देना गैरजिम्मेदारी है और ऐसी घटनाओं को बढ़ावा देना है। और जब राजनेता ऐसी हत्या की निंदा करने में दो सप्ताह लेते हैं तो उनके कहे पर भरोसा नहीं होता और उनकी शुरुआती चुप्पी ऐसी हिंसक घटनाओं और असंयमित बयानबाजी के प्रति उनके रणनीतिक समर्थन (सहिष्णुता?) का बोध कराती है।

जब आमिर खान से पूछा गया कि 'बढ़ती असहिष्णुता’ पर रचनाधर्मी लोगों द्वारा उठाए गए राजनीतिक कदम के बारे में वह क्या सोचते हैं तो उन्होंने ईमानदारी से जवाब दिया कि वह रचनाकर्मियों द्वारा अपना असंतोष जाहिर करने में कुछ भी गलत नहीं देखते। वह किसी भी अहिंसक प्रतिरोध का समर्थन करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि एक नागरिक के रूप में वह भी देश की कुछ घटनाओं को लेकर सावधान हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि व्यक्तिगत रूप से होने वाली हिंसा की छिटपुट घटनाएं असुरक्षा की कोई भावना नहीं जगातीं क्योंकि ऐसी घटनाएं पूरी दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी वजह से होती ही रहती हैं। मगर असुरक्षा की एक भावना पूरी तरह अलग बात है। यह तब बढ़ती है जब आम आदमी न्याय पाने की उम्मीद छोड़ देता है, जब चुने गए प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से कोई कदम नहीं उठाते।

दरअसल, इस अभिनेता ने देश के उत्कृष्ट पत्रकारों को सम्मानित करने के लिए आयोजित कार्यक्रम में और भी कई बातें कही। यह इसलिए और व्यंग्यपूर्ण है कि मीडिया और नेताओं ने दूसरी बातों को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया और बयान का एक छोटा हिस्सा लेकर उसे तोड़-मरोडक़र और सनसनीखेज बनाकर इस तरह पेश किया जिससे लगे कि आमिर खान देश में इतना असुरक्षित महसूस कर रहे हैं कि वह और उनकी पत्नी देश छोड़ने का विचार कर रहे हैं। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा। उन्होंने बस इतना कहा कि वह और उनकी पत्नी अखबार पढ़ने में बेचैनी और उदासी महसूस करते हैं। इस हद तक कि उनकी पत्नी किरण राव ने एक बार उनसे कहा कि क्या उन्हें देश छोडक़र चले जाना चाहिए। अभिनेता ने धरती को हिला देने वाली कोई बात नहीं कही थी। हर घर में दंपति इस तरह के विकल्पों पर बातें करते हैं।

निश्चित रूप से लोग कई वजहों से अपना देश छोड़ते हैं। गुजराती समुदाय अफ्रीका, इंग्लैंड या अमेरिका में अपना भविष्य बनाने के लिए बड़ी संख्या में देश छोड़ते हैं। पंजाबियों में कनाडा को लेकर पागलपन सबको पता है। बड़ी संख्या में भारतीय उद्योगपति, शेयर दलाल और कारोबारी लंदन में बसे हैं। बाबा रामदेव को आयरलैंड के तट पर एक द्वीप उपहार में मिला है और संभवत: वर्ष में कुछ समय वह वहां बिताते भी हैं। मुंबई के कई कारोबारी मॉरिशस या कैमन आइलैंड की कंपनियों से सौदे करती हैं। और पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में धनी भारतीयों ने सिंगापुर, यूरोप या अन्य देशों की नागरिकता ली है। इसी प्रकार बड़ी संख्या में धनी भारतीयों ने दुबई में संपत्त‌ि खरीदी है। एम.एफ. हुसैन को जरूर खदेड़ कर भगा दिया गया और उन्होंने अपनी आखिरी सांस भी वहीं ली।

लेकिन इनमें से किसी पर देशद्रोही होने या देश को मंझधार में छोड़कर जाने का आरोप नहीं लगा। मगर आमिर खान के संदर्भ से अलग पेश किए गए एक बयान ने अतार्किक और मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया का तूफान ला दिया जिसने अभिनेता की सोच को पुष्ट किया कि यहां अलग विचार के प्रति बेहद कम सहिष्णुता है। परेश रावल ने सोच लिया कि आमिर खान ने देश छोड़ने की योजना बना ली है और उन्होंने ट्वीट किया कि अगर खान अपनी मातृभूमि से प्यार करते हैं तो उन्हें यहीं रहकर इसका निर्माण करना चाहिए। अनुपम खेर भी बीच में कूद पड़े और अभिनेता को याद दिलाया कि भारत ने उन्हें इतना बड़ा स्टार बनाया (क्या आमिर ने इससे कभी इनकार किया? मगर यह सवाल खेर से कौन पूछेगा? हमारे टीवी एंकर तो नहीं।)। ओम पुरी एक कदम और आगे बढ़ गए और मांग की कि आमिर को माफी मांगनी चाहिए क्योंकि उन्होंने लोगों को भड़काया है(कैसे? मगर पुरी ने कोई व्याख्या नहीं दी है)। और शिवसेना ने उल्लासपूर्वक सुझाव दिया कि अभिनेता को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। यहां तक कि संपादक, लेखक और भाजपा सांसद एम.जे. अकबर तक ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आमिर खान को याद दिलाया कि वह वाशिंगटन डी.सी. या लंदन में अजान की आवाज नहीं सुन सकते।

इन प्रतिक्रियाओं ने मुझे कविता 'सिक्स वाइज मैन ऑफ हिंदुस्तान’ की याद दिला दी। यह कविता एक नीति कथा पर आधारित है जो कि कई जैन, बौद्ध और हिंदू धर्मग्रंथों में पाई जाती है। छह नेत्रहीन लोग या छह लोग अंधेरे में एक हाथी के अलग-अलग अंगों को छूकर जानवर की व्याख्या करते हैं। एक हाथी का पैर छूकर उस जानवर को खंभे जैसा बताता है, दूसरा पूंछ छूकर कहता है कि हाथी रस्सी जैसा होता है। इसी प्रकार अन्य चारों में अपनी राय रखते हैं। निश्चित रूप से वे सभी गलत थे।

अपना पक्ष साबित करने के लिए मुझे पाठकों को यह याद करवाने दीजिए कि आखिरकार आमिर खान ने कहा क्या था। यदि आप गलती निकाल सकते हैं तो जरूर निकालिए।

यह अच्छी पत्रकारिता के लिए चुनौतीपूर्ण समय है।

मैं नहीं कह सकता कि मुझे मीडिया पर पूर्ण भरोसा है।

मैं किसी भी अहिंसक प्रतिरोध को मंजूर करूंगा।

आतंक की घटनाएं किसी धर्म से नहीं जुड़ी हैं। आतंकियों का कोई धर्म नहीं है।

सुरक्षा की भावना के लिए न्याय की भावना का होना जरूरी है।

अतिवादी विचार को लेकर मुझे चिंता होती है।

रचनाकारों के लिए, जो वे सोचते हैं उसे अभिव्यक्त करना महत्वपूर्ण है।

अशांति और असहिष्णुता का वातावरण बढ़ रहा है।

जब लोग कानून अपने हाथ में लेने लगते हैं तो निर्वाचित प्रतिनिधियों को उपयुक्त कदम उठाना चाहिए।

उदारवादी मुस्लिम भी परेशान हैं और मैं इससे इनकार नहीं कर सकता कि मैं सशंकित हूं।

मीडिया को निश्चित रूप से इनमें से किसी में खबर लायक कुछ नहीं मिला। एक वाक्य जो उन्हें मिला उसे इतनी बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर एक विवाद पैदा किया गया। इसके लिए मीडिया और नेताओं को दोष दीजिए, अभिनेता को नहीं। मीडिया तो दरअसल उस समारोह में अभिनेता द्वारा दिए गए एक बयान पर नजर ही नहीं डाल पाया। पत्रकार तवलीन सिंह के सवाल पर आमिर खान ने कहा कि वह पेरिस पर हमला करने वालों को मुस्लिम के रूप में चिह्नित करने की उनकी (तवलीन सिंह की) बात से सहमत नहीं हो सकते। खान ने कहा कि वह भले ही खुद को मुस्लिम होने का दावा करें मगर उनके साथ सिर्फ आतंकवादी जैसा सलूक होना चाहिए। यही बात प्रोफेसर अमत्र्य सेन लगातार कहते रहे हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में 6 नवंबर को इसी प्रकार के एक सवाल-जवाब के दौरान प्रोफेसर सेन ने एक बार फिर लोगों को सहूलियत वाली शिनाख्त के प्रति आगाह किया। उन्होंने उदाहरण भी दिया कि यह वैसा ही है जैसे यह कहना कि हीरोशिमा और नागासाकी पर ईसाइयों ने परमाणु बम गिराया।

दरअसल, सहिष्णुता की पूरी बहस बेमानी है। हर किसी की सहिष्णुता का अपना पैमाना होता है, एक सीमा जिसके बाद हम अपमान, उपेक्षा, दुर्व्यवहार, अन्याय और हिंसा बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होते। सवाल यह है कि क्या हममें यह क्षमता है कि हम बनावटी मुद्दों के बजाय असल मसले को पकड़ सकें, छिछली बातों के बजाय ज्यादा जरूरी मुद्दे उठा सकें। ज्यादा चिंता की बात जनहित और तथ्यों पर टिकने में हमारी मीडिया की अक्षमता है। अपने मनमाफिक किसी भी निष्कर्ष पर पहुंच जाना, किसी को संदेह का लाभ नहीं देना और किसी मुद्दे पर हमलावर होने की हमारी बढ़ती आदत ज्यादा खतरे वाली बात है।

 

 

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