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सेवा की जीवंत मिसाल थीं सिस्टर निर्मला

नोबेल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा के बाद मिशनरीज आफ चैरिटी का काम-काज संभालने वाली सिस्टर निर्मला जोशी का पूरा जीवन गरीबों और समाज के पिछड़े तबके के लोगों के उत्थान के प्रति ही समर्पित रहा। प्रचार और सुर्खियों से कोसों दूर रहने वाली सिस्टर निर्मला में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सच के साथ खड़े रहने का साहस था। उन्होंने कभी किसी गलत आरोप या अफवाह के सामने सिर नहीं झुकाया। बातचीत में तो इतनी विनम्र कि एकबार उनसे मुलाकात करने वाला उनका मुरीद बन जाता था।
सेवा की जीवंत मिसाल थीं सिस्टर निर्मला

मुझे याद है एक बार मदर टेरेसा की दसवीं पुण्यतिथि के मौके पर एक रिपोर्ट के लिए जब उनसे मिला था तो बातचीत शुरू होने से पहले ही उनका सवाल था कि आपने चाय-पानी कुछ लिया या नहीं। फिर वे बड़े अपनेपन के साथ घर-परिवार के बारे में जानकारी लेने लगीं। कोई पंद्रह मिनट की अनौपचारिक बातचीत के बाद ही औपचारिक इंटरव्यू शुरू हुआ था। वर्ष 1997 में मदर के निधन से छह महीने पहले सुपीरियर जनरल चुनी गईं सिस्टर निर्मला वर्ष 2009 तक इस पद पर थीं। उनके बाद जर्मनी में जन्मी सिस्टर प्रेमा को उनका उत्तराधिकारी चुना गया था। मिशनरीज के मुख्यालय मदर हाउस की तमाम नन चाहती थीं कि सिस्टर निर्मला तीसरे कार्यकाल के लिए भी सुपीरियर जनरल के पद पर बनी रहें। लेकिन अपनी बढ़ती उम्र व बिगड़ती सेहत का हवाला देकर उन्होंने बेहद विनम्रता से इंकार कर दिया था।

सिस्टर निर्मला का जन्म रांची में 23 जुलाई 1934 एक नेपाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। लेकिन तब उका नाम कुमुद जोशी था। पिता ब्रिटिश सेना में अफसर थे। सिस्टर निर्मला परिवार हिंदू थीं। लेकिन उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना के मिशनरीज स्कूल में हुई थी। वहां उनको मदर टेरेसा के बारे में जानकारी मिली और वह उनके कार्यों से प्रभावित होकर 1958 में धर्मांतरण कर रोमन कैथोलिक नन बन गईं।  सिस्टर निर्मला ने राजनीति शास्त्र में मास्टर डिग्री ली थी और कानून की भी पढ़ाई की थी। वर्ष 2009 में भारत सरकार ने उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च पुरस्कार पद्मविभूषण से सम्मानित किया था। वह वर्ष 2009 तक मिशनरीज आफ चैरिटी के सुपीरियर जेनरल के पद पर आसीन रहीं।

सिस्टर निर्मला के छोटे भाई राजेंद्र प्रसाद जोशी बताते हैं कि पटना में संयोग से कुमुद की मुलाकात एक बार मदर टेरेसा के साथ हुई थी। उस मुलाकात ने ही कुमुद की जिंदगी बदल दी। उसके बाद ही उन्होंने धर्मांतरण कर अपना नाम सिस्टर निर्मला रख लिया और गरीबों की सेवा में जुट गईं। जोशी कहते हैं कि मदर टेरेसा से एक छोटी-सी मुलाकात ही निर्मला के जीवन का टर्निंग प्वायंट बन गया। उसने मिशनरीज आफ चैरिटी में शामिल होकर गरीबों की सेवा में अपना जीवन खपा देने का फैसला किया। जोशी कहते हैं कि यह एक बेहद साहसिक फैसला था। तब वह युवा थी और कोलकाता में कानून की पढ़ाई की तैयारी कर रही थी। उन्होंने मिशनरीज में शामिल होने के बाद ही अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया और फिर मदर टेरेसा के प्रोत्साहन से कानून की डिग्री हासिल की। 

उनमें सच को कबूल करने और उसके साथ खड़े रहने का भी माद्दा था। मदर टेरेसा के निधन के कोई तीन साल बाद सितंबर, 2000 में मदर हाउस की एक नन पर सात साल की एक बच्ची पर अत्याचार के आरोप ने सुर्खियां बटोरी थीं। मिशनरीज के इतिहास में यह पहला मौका था जब उसके खिलाफ इतने गंभीर आरोप लगे थे। लेकिन सिस्टर निर्मला इस मामले में खुद पुलिस के पास गईं थीं। उन्होंने बाद में अदालत में भी इस आरोप को कबूल किया था। मदर हाउस के लोगों का कहना है कि सिस्टर निर्मला चाहतीं तो उस समय चुप रह सकती थीं। लेकिन ऐसा करने की बजाय उन्होंने इस आरोप को कबूल किया। बाद में उन्होंने मदर हाउस की ननों से कहा था कि हमें बच्चों से प्यार करना चाहिए, उनको सजा नहीं देनी चाहिए। सिस्टर निर्मला ने माना था कि जो हुआ है वह गलत हुआ है।

इसी तरह वर्ष 2008 में जब ओडीशा में क्रिश्चियन समुदाय के लोगों पर हमले हो रहे थे तब कोलकाता में कुछ ईसाई संगठनों के लोग भूख हड़ताल पर बैठे थे। उन लोगों ने पहले दिन ही सिस्टर निर्मला से उसमें शामिल होने का अनुरोध कर दिया। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि आप लोग विरोध कर रहे हैं। मैं आपकी सेहत की सलामती के लिए दिन-रात प्रार्थना कर सकती हूं। लेकिन आपके साथ इसमें शामिल नहीं हो सकती। उनके सहयोगी रहे सनील लुकास बताते हैं कि किसी भी हालत में सिस्टर निर्मला गलत को सही नहीं मान सकती थीं। वे उस भूख हड़ताल को गलत मानती थीं। इसलिए बार-बार कहने के बावजूद वे न तो खुद उसमें शामिल हुईं और न ही मदर हाउसे से किसी प्रतिनिधि को वहां भेजा।

मदर टेरेसा सिस्टर निर्मला से बेहद स्नेह रखती थीं। वे उनको अपने साथ विदेशी दौरों पर साथ ले जाती थीं। बाद में वे मदर की पहली सहायक बनीं। मदर ने उनको पनामा स्थित मिशनरीज आफ चैरिटी की शाखा का पहला सुपीरियर बनाया था। बाद में मदर ने उनको यूरोप और अमेरिका में मिशनरीज आफ चैरिटी की शाखाएं खोलने के लिए वहां भेजा।

पारंपरिक रूप से सुपीरियर जनरल को मदर कह कर संबोधित किया जाता है। लेकिन सिस्टर निर्मला ने खुद को मदर कहलाने से मना कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह उपाधि मिशनरीज आफ चैरिटी की संस्थापक मदर टेरेसा के लिए ही सुरिक्षत है। सिस्टर निर्मला ने सबसे कह दिया था कि उनको सिस्टर की उपाधि से ही संबोधित किया जाए। मिशनरीज मुख्यालय मदर हाउस में सिस्टर निर्मला के बारे में ऐसे अनगिनत कहानियां और संस्मरण सुने जा सकते हैं। अंतिम दर्शन के लिए निधन के दूसरे दिन जब उनका पार्थिव शरीर मदर हाउस में लाया गया तो वहां उमड़ी हजारों की भीड़ से साफ था कि सिस्टर निर्मला मिशनरीज प्रमुख के पद से हटने के बावजूद काफी लोकप्रिय थीं।

 

 

 

 

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