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शांति के पासे फेंकने की जरूरत

निर्मला देशपांडे की पाकिस्तान में बरसी से उठी ये सदाएं मनमोहन सिंह पहुंची या यह उनकी अंत: प्रेरणा थी अथवा अमेरिकी उत्प्रेरणा, जैसा कि कुछ लोग विश्‍वास करना चाहते हैं, शर्म अल शेख के संयुक्त वक्तव्य में ब्लूचिस्तान के जिक्र के लिए राजी होकर और भारत-पाक समग्र वार्ता के लिए भारत में आतंकवादी हमले रोकने की पूर्व शर्त को ढीला करके भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति के लिए एक जुआ खेला है। मुंबई हमले के बाद दबाव की कूटनीति से भारत को जो हासिल होना था वह हो चुका और पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकतंत्र के खिलाफ अपेक्षया गंभीर कार्रवाई के लिए बाध्य होना पड़ा। दबाव की कूटनीति की एक सीमा होती है और विनाशकारी परमाणु युद्ध कोई विकल्प नहीं हैं। इसलिए वार्ता की कूटनीति के लिए जमीन तैयार करने की जरूरत थी। ब्लूचिस्तान के जिक्र को भी थोड़ा अलग ढंग से देखना चाहिए।
शांति के पासे फेंकने की जरूरत

दो देशों के बीच संबंधों की दिशा सिर्फ सरकारें और शासनाध्यक्ष ही नहीं तय करते जनता भी करती है, भले ही सरकारें और शासनाध्यक्ष जनता के ही प्रतिनिधि और उसके द्वारा ही चुने गए क्यों न हों। भारत और पाकिस्तान के बंटवारे की प्रक्रिया में पनपी त्रासदी और हिंसा ने दोनों देशों की जनता के बीच जो शक-सुबहे और असुरक्षा बोध के बीज बोए वे दोनों देशों के संबंधों की नियति और उनके सत्ता तंत्र के एक-दूसरे के साथ व्यवहार पर अपनी लंबी छाया डालते रहे हैं। इसलिए जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तानी यूसुफ रजा गिलानी के मिस्र के शर्म अल शेख  में जारी संयुक्त वक्तव्य पर बवाल मचा हुआ है तो हम एक नजर जनता या नागरिक समाज की पहल पर भी डालें। इस संदर्भ में दिवंगत गांधीवादी नेता निर्मला देशपांडे की याद आती है जिनकी बरसी भारत से ज्यादा पाकिस्तान में मार्मिक ढंग से मनी, भले ही दो महीने देर से इस जुलाई में, जबकि निर्मला जी का इंतकाल पिछले वर्ष मई में हुआ था। पिछले वर्षों में भारत के प्रबुद्ध वर्ग से ज्यादा लोकप्रिय वह पाकिस्तान के प्रबुद्ध नागरिकों में थीं। अपने फौजी सत्ता तंत्र द्वारा अफगानिस्तान पर नियंत्रण और भारत की अस्थिरता के लिए 30 वर्ष पूर्व छोड़े गए आतंकवाद के दैत्य से जूझता पाकिस्तान जिस आस्तित्विक संकट से जूझ रहा है उसके कारण उसका प्रबुद्ध नागरिक वर्ग शायद प्रक्रिया और शांतिदूतों में ज्यादा भावनात्मक निवेश करने को तैयार है।

 

जब पिछले वर्ष निर्मला देशपांडे गुजरीं तो पाकिस्तानी प्रबुद्ध समाज का एक उच्चस्तरीय दल उनका भस्म-कलश पाकिस्तान ले जाने आया जिसके लिए भारत सरकार ने बमुश्किल पांच लोगों को वीसा दिया था जिनमें पाकिस्तान की पूर्व मंत्री शेरी रहमान और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के सांसद चौधरी मंसूर जैसे लोग शामिल थे। इस दल के लिए विशेष विमान पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी ने मुहैया कराया था। दीदी-निर्मला देशपांडे को उनके पाकिस्तानी समर्थक भी यही कहते थे- की अस्थियां सिंध की सक्खर नदी में प्रभावित की गई थीं और 200 मुस्लिम पाकिस्तानी रात भर नदी किनारे एक मंदिर में, जिसकी बगल में एक मस्जिद थी, कीर्तन करते रहे थे। इस वर्ष निर्मला जी की वरसी पर उनके पाकिस्तानी समर्थक चाहते थे कि भारत से भी दीदी के सहयोगी रहें कुछ शांति कार्यकर्ता पाकिस्तान आएं लेकिन मुंबई 26/11 के बाद दोनों देशों के संबंधों में बिगाड़ के कारण मई में भारत से वहां जाने के लिए किसी को भी वीसा नहीं मिल पाया। जुलाई में बस तीन लोग जा सके, जिनकी मौजूदगी में कराची में पाकिस्तान के विभिन्न जनसंगठनों के 200 लोगों ने निर्मला देशपांडे की बरसी मनाई। जो लोग पाकिस्तान को भारत के प्रति जेहादी घृणा से चालित इकहरा देश समझते हैं उन्हें यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि किस तरह भारत से गए कार्यकर्ताओं को उठाने पर पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील उन सैकड़ों निर्दोष भारतीय लोगों के मामले उठाने को तैयार हो गए जो पाकिस्तानी जेलों में सालों से बंद हैं क्योंकि भूलवश या कार्यवश वे बिना पासपोर्ट -वीसा सीमा पार भटक आए थे। इनमें वे 573 भारतीय मछेरे भी शामिल हैं जो पाकिस्तानी समुद्री सीमा में भटक आए थे। इस देश में अफसल गुरू को अभी इसी मिनट फांसी देने की मांग करने वालों को जानना चाहिए कि कराची में बम विस्फोटों के लिए मृत्युदंड प्राप्त भारतीय सरबजीत को फांसी से बचाने के लिए प्रयत्नशील पाकिस्तानी वकील भी भारतीय शांति दल से मिले। इसी तरह के सैकड़ों निर्दोष पाकिस्तानी बंदी भी भारतीय जेलों में बंद हैं। दोनों देशों के तंत्र से न्याय का इंतजार है। निर्मला देशपांडे की बरसी पर जुटे पाकिस्तानियों के मन में भारत के साथ अमन की कशिश थी और यह उम्मीद कि आतंकवाद के साथ गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा पाकिस्तान भारत की तरफ से निश्चिंत हो सके। पाकिस्तानी प्रबुद्ध वर्ग सजग भारतीयों को यह एहसास कराना चाहता है कि जेहादी आतंकवाद यदि पाकिस्तान को लील गया तो यह भारत के लिए भी भारी संकट की घड़ी होगी। भारत लौटे शांति कार्य                                                कर्ता बताते हैं कि पाकिस्तान प्रबुद्ध नागरिक ब्लूचिस्तान की बगावत में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ दखलदांजी की अफवाहों से ज्यादा चिंतित थे कि कहीं यह पाकिस्तानी फौजी तंत्र में तालिबान के हमदर्दों को उनसे चोरीचुपके मिलीभगत का बहाना न दे दे।

 

पता नहीं, निर्मला देशपांडे की पाकिस्तान में बरसी से उठी ये सदाएं मनमोहन सिंह पहुंची या यह उनकी अंत: प्रेरणा थी अथवा अमेरिकी उत्प्रेरणा, जैसा कि कुछ लोग विश्‍वास करना चाहते हैं, शर्म अल शेख के संयुक्त वक्तव्य में ब्लूचिस्तान के जिक्र के लिए राजी होकर और भारत-पाक समग्र वार्ता के लिए भारत में आतंकवादी हमले रोकने की पूर्व शर्त को ढीला करके भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति के लिए एक जुआ खेला है। मुंबई हमले के बाद दबाव की कूटनीति से भारत को जो हासिल होना था वह हो चुका और पाकिस्तान को लश्कर-ए-तैयबा के आतंकतंत्र के खिलाफ अपेक्षया गंभीर कार्रवाई के लिए बाध्य होना पड़ा। दबाव की कूटनीति की एक सीमा होती है और विनाशकारी परमाणु युद्ध कोई विकल्प नहीं हैं। इसलिए वार्ता की कूटनीति के लिए जमीन तैयार करने की जरूरत थी। ब्लूचिस्तान के जिक्र को भी थोड़ा अलग ढंग से देखना चाहिए। एक तरफ यह पाकिस्तानी फौजी तंत्र मे आतंकवाद की तालिबानी सियासत के हिमायतियों के लिए बहानों के दरवाजें कुछ भेड़ता है। दूसरी तरफ जो पाकिस्तान कश्मीर का भारतीय राष्‍ट्रीयता की समस्या के रूप में अंतर्राष्ट्रीयकरण करके फूला न समाता था वह खुद ही साझा बयान में ब्लूचिस्तान के रूप में अपनी राष्ट्रीयता की समस्या का कश्मीर की तरह ही अंतर्राष्ट्रीयकरण कर बैठा है। जिक्र न होता तो भी तालिबान से ध्यान हटाने के लिए पाकिस्तानी तंत्र का कुटिल हिस्सा भारत पर ब्लूचिस्तान में दखलदांजी के आरोप से कभी बाज न आता लेकिन ब्लूचिस्तान के रूप में पाकिस्तानी राष्ट्रीयता की समस्या हमेशा अंतर्राष्ट्रीय निगाहों से पर्दे में रहती। जिस तरह भारत में कश्मीर की समस्या विभाजन बाद 1948 में रियासत के विलय से पैदा हुई उसी तरह पाकिस्तान के लिए भी ब्लूचिस्तान में समस्या तत्कालीन कालात की रियासत के विलय से पैदा हुई। कश्मीर की तरह ही बलूचिस्तान में भी कई बार केंद्रीय सत्ता के प्रति बगावत हो चुकी है -1948, 1958, 1962-63, 1973-77, और 2003 में। सन 2003 की बगावत अब तक जारी है। ताजा बगावत के पीछे बलूचिस्तान में घुसपैठिये तालिबानी पश्तूनों की बाढ़ से पैदा भय तथा पाकिस्तानी चीनी परियोजनाओं से विस्थापन है। हल यह नहीं है कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर  और बलूचिस्तान पर झगड़ें बल्कि हल यह है कि दक्षिण एशिया के इसे पूरे इलाके के हुक्मरान और प्रबुद्ध समाज दुनिया के इस हिस्से में मौजूद अंतर्राष्ट्रीयता की वास्तविक समस्याओं का तार्किक एवं शांतिपूर्ण हल ढूंढें।

 

निर्मला देशपांडे ने राज्य सभा सदस्य की हैसियत से भारत-पाक संसदीय फोरम बनाया था। उसमें पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग सदस्य लेने के बाद मामला एमक्यूएम और पीएमएल क्यू के बीच फंस गया कि किसका सदस्य बची हुई जगह पर लिया जाए। पाकिस्तानियों ने फैसला निर्मला जी पर ही छोड़ दिया। काश वह दिन आए कि दोनों देशों के लोग कई अहम मामलों में दूसरे देश के मान्य नैतिक व्यक्तित्वों के विवेक पर ऐसा भरोसा कर सकें।

 

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