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न्यायिक देर से भी अंधेर हो सकता है

भारतीय संविधान के तहत उपलब्ध न्यायिक सुनवाई के अधिकार और संस्थाबद्ध प्रणालियों में त्वरित न्याययिक सुनवाई के अधिकार की ज्यादा गुंजाइश नहीं बनाई गई है, यह हाल में 40 साल बाद ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में आए फैसले से साबित है।
न्यायिक देर से भी अंधेर हो सकता है

 जीवन-मरण या स्वतंत्रताओं के खुल्लमखुल्ला घोर हनन जैसे आपात मसलों में तो जल्दी सुनवाई हो भी जाए पर अन्य मामलों में तो देर ही रीत है। सुविचारित न्याय यानी पूरी तरह दूध का दूध और पानी का पानी करने में हड़बड़ी आड़े आती है और थोड़ा वक्त लगना लाजिमी है। इसीलिए देर आयद, दुरुस्त आयद और देर है, पर अंधेर नहीं जैसी कहावतें लोकमन में अमिट हुईं। पर देर का अपना अंधेर होता है और विलंबित न्याय अक्सर अधूरा न्याय और कभी-कभी अन्याय तक बन जाता है। बरसों तक चलने वाले मामलों में सबूत और गवाह तक काल के ग्रास बन जाते हैं। इस तरह कोई ताकतवर मुजलिम बच जा सकता है और अंत में निर्दोष बताकर बरी किया व्यक्ति अकारण उम्रकैद की मियाद तक सजा काट चुका हो सकता है। और किसी पीडि़त की आंखें ताउम्र इंतजार में पथरा जा सकती हैं। यह तो हुई जाती जिंदगियों के साथ ज्यादती। लेकिन संवैधानिक मसलों में अगर देर का अंधेर हुआ तो वह देश में लोकतंत्र और अनेक जिंदगियों के लिए भारी पड़ सकता है।

इस संदर्भ में हाल में राजस्थान में आनन-फानन में लाए गए एक अध्यादेश के जरिये संविधान के 73वें संशोधन के तहत पारित पंचायती राज कानून में फेरबदल कर सरपंचों और अन्य पंचायत प्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यताएं निर्धारित कर कराए जा रहे चुनावों के बारे में एक रिट याचिका पर तत्काल कार्रवाई से इनकार करते हुए राजस्थान उच्च न्यायालय के ये उद्धरण देखिए। ‘हम प्रथमदृष्टया संतुष्ट हैं कि राजस्थान राज्य में, जहां साक्षरता की दर और औपचारिक शिक्षा के अवसर सीमित हैं पंचायतीराज संस्थाओं में न्यूनतम शैक्षिक स्तर के आधार पर पंचायतीराज संस्थाओं में चुनाव लड़ने की अयोग्यताएं निर्धारित करना, जो औपचारिक शिक्षा से वंचित जनता को बहिष्कृत करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन है। ... संविधान के अनुच्छेद 243 एफ के तहत राज्य विधानसभा सदस्यता की वे अयोग्यताएं नहीं निर्धारित कर सकती जो चरित्र या नैतिकता के दायरे से बाहर हैं। मसलन पंचायतों में भागीदारी से सिर्फ वही लोग वंचित किए जा सकते हैं जो गैर कानूनी गतिविधियों में दोषी हों या इसी तरह की अन्य अयोग्यताएं रखते हों। किसी अन्य तरह की अयोग्यता जमीनी स्तर पर स्वशासन, जन भागीदारी और सामाजिक न्याय के उद्देश्य के प्रतिकूल है1...कोई भी अध्यादेश, बहरहाल, कानून है जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। यदि समाज के बड़े तबके को पंचायती राज की लोकतांत्रिक संस्था में भागीदारी से वंचित करने वाली अयोग्यता निर्धारित की जाए, जो 73वें संविधान संशोधन के प्रतिकूल है तो उसे न्यायालय असंवैधानिक करार दे सकता है।’

याचिका से इस हद तक प्रथमदृष्टया सहमति के बावजूद हाईकोर्ट ने तत्काल कार्रवाई करने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि अनुच्छेद 243 ओ के तहत चुनाव प्रक्रिया घोषित हो जाने के बाद उसमें न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हो सकता और चुनाव बीत जाने के बाद ही अदालत समीक्षा कर सकती है। हालांकि याचिका के लिए बहस करते वक्त वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने ध्यान दिलाया था कि वह चुनाव प्रक्रिया पर स्थगन आदेश नहीं मान रहीं बल्कि नामांकन की तिथि बढ़ाने की मांग कर रही थीं। उन्होंने यह भी ध्यान दिलाया था कि याचिकाकर्ता चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के पहले अदालत में आए थे लेकिन अदालत ने तब सर्दियों की छुट्टी होने की वजह से तत्काल याचिका पर सुनवाई नहीं शुरू की थी। छुट्टियों का लाभ उठाकर आनन-फानन में राजस्थान सरकार एक ऐसा संवैधानिक अध्यादेश ले आई तो क्या छुट्टियों की वजह से किसी असंवैधानिकता के विरूद्ध भी पीडि़त जनता को सुनवाई का अधिकार नहीं है।

इसके बाद इसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों न्यायमूर्ति चेलामेश्वर और रोहिंग्टन एफ नरीमन ने भी मोटे तौर पर याचिका से वैसी ही प्रथमदृष्टया सहमति जाहिर की जैसी राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी महा न्यायवादी मुकुल रोहतगी से यह आश्वासन मिलने पर तत्काल कार्रवाई करने से इनकार कर दिया कि ‘अगर अध्यादेश असंवैधानिक पाया जाता है तो सारा चुनाव निरस्त हो जाएगा।’ सर्वोच्च न्यायालय ने फिर याचिकाकर्ताओं से वापस हाईकोर्ट जाकर अध्यादेश की संवैधानिकता पर वहां सुनवाई पूरी होने और फैसला आने तक इंतजार करने को कहा। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट से यह जरूर कहा कि बिना किसी और विलंब के मामले की सुनवाई पूरी कर उसपर अपना निर्णय दे।

मतलब न्यायिक प्रक्रिया में त्वरित सुनवाई के अधिकार और प्रणालियों की गुंजाइश न हो से अहम संवैधानिक मसलों में भी न्याय का उद्देश्य बाधित हो सकता है। इस छिद्र का लाभ उठाकर कोई भी सरकार आराम से कोई असंवैधानिक राह अपना सकती है। इसी मामले में मान लीजिए चुनाव हो गए, नए पंचायतराज प्रतिनिधियों ने पद ग्रहण कर लिया, उनके हाथों करदाताओं की विशाल राशि विकास कार्यों पर कालक्रम में खर्च हो गई और तब जाकर यदि अध्यादेश असंवैधानिक सिद्ध हुआ तो इस असंवैधानिक प्रक्रिया की कीमत देश का लोकतंत्र और करदाता नागरिक ही तो उठाएंगे। मान लीजिए इस बीच सरकार ने अध्यादेश की जगह कानून विधानसभा में पारित कर दिया तो फिर उसके खिलाफ प्रतिनिधितव के और समानता के अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित जनता फिर नई याचिका लाने के लिए बाध्य होगी क्योंकि तब पुरानी याचिका अपने आप निरस्त हो जाएगी और इस क्रम में तबतक एक असंवैधानिक गैर लोकतांत्रिक कदम नागरिकों और देश से कीमत वसूलता रहेगा। चुनाव प्रक्रिया से किसी फालतू खिलवाड़ पर लगाम लगाने के लिए उसमें न्यायिक अहस्तक्षेप का प्रावधान किया गया था। लेकिन संविधान और लोकतंत्र से ही कार्यपालिका के गंभीर छेड़छाड़ संबंधी मामलों में तो त्वरित सुनवाई की संस्थाबद्ध गुंजाइश होनी चाहिए। न्यायिक सुनवाई के अधिकार में समुचित समयबद्ध सुनवाई का अधिकार शामिल होना चाहिए।

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