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मणिपुर में स्थायी शांति के लिए जरूरी है नागरिक समाज की सक्रियता

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के मणिपुर दौरे से सियासी गलियारों में हलचल उत्पन्न होना...
मणिपुर में स्थायी शांति के लिए जरूरी है नागरिक समाज की सक्रियता

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के मणिपुर दौरे से सियासी गलियारों में हलचल उत्पन्न होना स्वाभाविक है। पूर्वोत्तर भारत का यह राज्य नृजातीय हिंसा के कारण प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुर्खियों में छाया रहता है। सुरक्षाबलों की मौजूदगी और केंद्र सरकार की तत्परता के कारण स्थिति सामान्य दिख रही है। राज्य सरकार का दावा है कि अब यहां अमन-चैन है, लेकिन राहुल गांधी का मानना है कि इस मामले में अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। श्री गांधी ने प्रदेश के जिरीबाम व चुराचांदपुर जिलों में राहत शिविरों का दौरा किया एवं वहां रह रहे लोगों से बातचीत की और उनकी समस्याएं सुनीं।

गत वर्ष जब तीन मई को हिंसा की शुरुआत हुई थी तो विपक्षी दलों ने मणिपुर को लेकर केंद्र सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना की। तब विपक्षी गठबंधन "इंडिया"  के 21 सांसदों ने इस प्रदेश का दौरा किया था, वहां पहुंचने के बाद इन सांसदों ने दो समूहों में बंट कर हिंसा से प्रभावित दोनों समुदायों- मैतई व कुकी- के शरणार्थी शिविरों का जायजा लिया। मौजूदा दौर में मणिपुर की जमीनी हकीकत यह है कि दोनों समुदायों में एक-दूसरे के खिलाफ घृणा एवं डर की खाई और गहरी हो गयी है। अविश्वास के इस माहौल का तात्कालिक कारण मैतई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के मुद्दे को माना जाता है।

गौरतलब है कि मैतई अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल है, लेकिन मांग एसटी दर्जा प्राप्त करने की है। नृजातीय तनाव को बल मिला इम्फाल उच्च न्यायालय के उस आदेश से जिसमें राज्य सरकार को निर्देश दिया गया था कि वह केंद्र को मैतई की मांग के परिप्रेक्ष्य में अनुशंसा करे। यह मानना जल्दबाजी होगी कि मणिपुर फिर से संघर्ष के पुराने दिनों में लौट चला है। पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, लेकिन अब उन राज्यों में हथियारबंद समूहों की गतिविधियां नहीं के बराबर दिखाई देतीं हैं। लंबे समय तक अशांत रहा नगालैंड फिलहाल शांत है। ग्रेटर नगालैंड की मांग करने वाला संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक-मुइवा गुट) सकारात्मक बदलाव की ओर अग्रसर है। कभी मिजो हिल्स में छापामार युद्ध के कारण स्थिति इतनी भयावह थी कि इस इलाके में वायु सेना का उपयोग किया गया था, लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मिजो नेता ललडेंगा से शांतिवार्ता करके राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया।

समकालीन राजनीतिक इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि एक देशी रियासत रहा मणिपुर राज्य महाराजा बोधचंद्र सिंह के नेतृत्व में भारतीय संघ में शामिल हुआ था। यहां की राजनीतिक प्रक्रिया हमेशा उम्मीद जगाती रही है। कांग्रेस पार्टी एवं भाजपा की उपस्थिति इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि मणिपुर के निवासी राष्ट्र की मुख्यधारा में बने रहना जरूरी समझते हैं, लेकिन राज्य की जनजातियां इसके चरित्र को जटिल बनाती हैं। मणिपुर की भौगोलिक स्थिति और लोगों की बसावट भी गौर करने लायक है। राज्य का लगभग नब्बे प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ी है एवं शेष दस प्रतिशत मैदानी। किंतु साठ प्रतिशत लोग मैदानी इलाकों में बसते हैं, जबकि चालीस प्रतिशत पहाड़ों में। बहुसंख्यक मैतई समुदाय के लोग मैदानी भाग में रहते हैं, जबकि कुकी, नगा व कुछ अन्य छोटी जनजातियां पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती हैं।

राज्य के मैदानी इलाकों में जिन कानूनी प्रावधानों के कारण जनसंख्या का दबाव अधिक है उनका समाधान भी आवश्यक है। जनजातियों की आपसी प्रतिस्पर्धा एवं हथियारबंद समूहों की सक्रियता सरकार के समक्ष नई चुनौतियां प्रस्तुत करतीं हैं। फिलहाल राज्य में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं, इसलिए केंद्र सरकार से बेहतर समन्वय कोई मुद्दा नहीं है। कुकी समुदाय के कुछ लोग अलग राज्य की मांग को आगे बढ़ाना चाहते हैं जबकि मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ऐसे तत्वों को कड़ी चेतावनी दे चुके हैं।

मैतई समुदाय प्रदेश की भौगोलिक स्थिति में किसी भी किस्म के परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर सकते, जब मणिपुर के पहाड़ी जिलों को ग्रेटर नगालैंड में शामिल करने की मांग हुई तो इसका मुखर विरोध किया गया। मणिपुर में स्थायी शांति के लिए यह जरूरी है कि संघर्षरत समुदायों की सत्ता में आनुपातिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए। साथ ही, राज्यसभा में पूर्वोत्तर भारत की जनजातियों के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए मनोनयन का भी प्रावधान हो। अविश्वास की गहरी खाई को पाटने के लिए निरंतर प्रयासों की जरूरत है। मणिपुर की नृजातीय संरचना के लिए गैर-कानूनी घुसपैठ भी एक बड़ी समस्या है। म्यांमार की सैन्य-राजनीतिक गतिविधियों से सीमावर्ती राज्यों की बसावट प्रभावित होती है, इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता. सीमापार से आने वाले लोग जब स्वजातीय कुकी बहुल क्षेत्रों में बसते हैं तो मैतई खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करते हैं।

मिजोरम में भी म्यांमार से प्रवासी आए. लेकिन वहां विरोध नहीं हुआ, बल्कि उनके समर्थन में आवाजें उठी। पूर्वोत्तर की सुरक्षा हेतु सिर्फ सरहदों पर निगाहें रखना ही काफी नहीं है, बल्कि नृजातीय संस्कृति के विशिष्ट आयाम को भी समझना होगा। कभी अलगाववादियों की हरकतों से असमवासियों का जीना मुश्किल हो गया था, लेकिन जब नागरिक समाज ने नई पहल की तो वहां राजनीतिक प्रक्रिया कामयाब हो गयी।

उग्रवादी संगठन "उल्फा" की डरावनी कहानियों से अब असमिया समाज मुक्त है। बोडो आदिवासी भी अब अलग प्रदेश की मांग नहीं कर रहे हैं। मुख्यमंत्री हेमंत विश्वसरमा की साहसिक कार्यशैली के कारण असम से उत्साहवर्धक खबरें आ रहीं हैं। असमिया अस्मिता की रक्षा के नाम पर गठित राजनीतिक दल "असम गण परिषद" और इसके नेता प्रफुल्ल कुमार महंत अब अप्रसांगिक हैं। राष्ट्रवादी शक्तियां जब सशक्त होती हैं तो संकीर्ण मानसिकता को बढ़ावा देने वाले नेताओं को जनता अस्वीकृत कर देती है। पूर्वोत्तर भारत के विकास में प्रवासियों का भी योगदान है, इस मुद्दे पर भी सार्थक संवाद की जरूरत है। राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं, इसलिए सरकार की कमियों की आलोचना उन्हें जरूर करनी चाहिए, किंतु राष्ट्रीय हितों के संवर्धन हेतु उन्हें सरकार के साथ सहयोग भी करना होगा।

(प्रशान्त कुमार मिश्र, स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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