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पलायन पुराण

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को लेकर विभिन्न स्तर के कोई चार सौ से ज्यादा अध्ययन हुए हैं और लगभग सबका निष्कर्ष है कि कई तरह की कमियों और गड़बडिय़ों के बावजूद इससे तीन बड़े फायदे हुए हैं,
पलायन पुराण


महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को लेकर विभिन्न स्तर के कोई चार सौ से ज्यादा अध्ययन हुए हैं और लगभग सबका निष्कर्ष है कि कई तरह की कमियों और गड़बडिय़ों के बावजूद इससे तीन बड़े फायदे हुए हैं, ग्रामीण गरीबी में कमी, मजदूरी में वृद्धि और मजîदूरों  के पलायन में कमी। आखिरी फायदा इस लिहाज से और महत्व का है कि आज की आर्थिक गिनती में गांव-किसानी का महत्व घटा है, शहरीकरण की सारी सीमाओं के बावजूद वहां सुविधाएं जुटाने का क्रम तेज हुआ है और गांव में रोजगार के विकल्प तेजी से कम होते जा रहे हैं। आज विकास का जो मॉडल सारी दुनिया में अपना डंका बजवा रहा है उसमें खेती-किसानी और गांव का महत्व कुछ नहीं है। ऐसे में कई सारे लोग इस वजह से भी मनरेगा की आलोचना कर रहे हैं कि यह चीजों को उल्टी दिशा में ले जा रहा है। उनका दूसरा तर्क है कि पलायन जितना ज्यादा होता है उस व्यक्ति, महानगर, और इलाके का उसी अनुपात में विकास होता है। इसलिए अगर कहीं से मजदूर या अन्य लोग निकल कर किसी और इलाके में नहीं जा रहे हैं तो यह प्रवृत्ति विकास के लिए उचित नहीं है। कभी कैलोरी की खपत तो ऊर्जा की प्रति व्यक्ति एवज को विकास का पैमाना मानने वाला यह समूह पलायन करने वालों के समाज और आबादी में अनुपात को विकास का पैमाना मानने वाला है।
ऐसे में अगर हम बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ जैसे इलाकों को विकास तथा समृद्घि के सही पैमानों पर सबसे नीचे देखते हैं तो यही चीज पर्याप्त चिंता का आधार बनती है, लेकिन जब हम इन इलाकों के पिछड़ेपन और उसके निरंतर पिछड़ते जाने की प्रक्रिया को देखते हैं तब यह गोलमाल और ज्यादा रहस्यमय प्रतीत होता है। जब हम विदेश में ही नहीं अपने मुल्क और शहरों में ही प्रवासी मजदूरों को मारपीट और अपमान से लेकर हर किस्म की मुश्किल झेलते देखते हैं तब विकास के इस मॉडल के पैरोकार कहीं नजर नहीं आते, अगर दिखते भी हैं तो सरकार बनाती प्रतिगामी शिव सेना और नगर प्रशासन चलाती महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के साथ ही। अगर हम हिसाब लगाने ही बैठें तो यह बिहार जैसे प्रदेश के लिए घोर संकट के दौर का और उससे भी अंधकारमय भविष्य की तरफ ही इशारा करता मिलेगा। आज बिहार से कितने लोग बाहर गए हैं, इसका अंदाज किसी के भी पास नहीं है। पर कोई भी अनुमान सवा-डेढ़ करोड़ से कम नहीं है। कई लोग तो इसे दो-ढाई करोड़ तक मानते हैं और जैसे ही आप दिल्ली की गंदी बस्तियों में, मुंबई के उपनगरों में, सूरत, बेंगलूरु,जयपुर जैसे तेजी से उभरते औद्योगिक नगरों में, पंजाब-हरियाणा-पश्चिम उत्तर प्रदेश के हरित क्रांति वाले क्षेत्र में ही नहीं, कश्मीर की दुर्गम और जोखिम भरी घाटियों तथा कर्नाटक की गन्ना मिलों और गुजरात के कपड़ा व्यवसाय के केंद्रों पर नजर डालेंगे आपको पग-पग पर दिखने वाले बिहारी मजदूर इन सारे अंदाजों को झुठलाने लगेंगे। बेहतर रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा के लिए राज्य के बाहर जाने वालों की संख्या एकदम अलग है। आज जो मजदूर बिहार से चलकर, ओडि़सा से चलकर, पूर्वी उत्तर प्रदेश से, नेपाल से और राजस्थान से आकर पंजाब में काम करता है, दिल्ली में काम करता है, बंबई-सूरत-अहमदाबाद जाता है, श्रीनगर और कश्मीर घाटी तक जा रहा है, वह एक अलग श्रेणी का है। उसे 'प्रवासीÓ की पुरानी परिभाषा से नहीं समझा जा सकता है। वह 'पलायनÓ  के लिए भी हाड़तोड़ मेहनत करता है। शिक्षा, तकनीकी ज्ञान, कमाई बढ़ाने लायक भाषा और ढंग उसके पास नहीं है। परदेसी तो पंजाब के भी कम लोग नहीं हुए हैं; बल्कि पंजाब की समृद्धि में उनका भी हाथ है। अकेले जालंधर जिले में प्रथम विश्वयुद्ध के पहले हर साल 25 से 30 लाख रुपये या मनीऑर्डर आया करते थे। सन 1934 में पंजाब बैंकिंग की पूछताछ  के अनुसार जब जालंधर और होशियारपुर में प्रति वर्ष 12 लाख रुपये अकेले इंपीरियल बैंक (आज के भारतीय स्टेट बैंक) के माध्यम से ही आते थे। आज भी पंजाब से बाहर जाने वालों की संख्या कम नहीं है। अगर वे अपने यहां रोजगार और कमाई के पर्याप्त अवसरों को छोड़कर आज तक जा रहे हैं तो इसका कारण बेहतर कमाई है। दुनिया के स्तर पर भी मजदूरों  की इस प्रवृत्ति को जानने, समझने के लिए बहुत अध्ययन नहीं हुए हैं और भारत में तो और भी कम। बीस-पच्चीस वर्षों से देश के सबसे पिछड़े इलाकों से अनपढ़, अकुशल और जवान मजदूरों का जो पलायन हो रहा है उस बारे में तो और भी कम अध्ययन हुए हैं। पंजाब और दिल्ली में इस बारे में थोड़ी जागरूकता दिखती भी है तो जिन इलाकों से पलायन हो रहा है, वहां एकदम खामोशी है। जितने अध्ययन दुनिया के स्तर पर हुए हैं और उनसे जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, वे इस नई प्रवृत्ति पर न तो प्रकाश डाल पाते हैं, न ही उनके निष्कर्षों को आधार मानकर नया काम ही किया जा सकता है। सबसे पहली जरूरत तो इस प्रवृत्ति को देखने-समझने की ही है।


(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)

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