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शिक्षा के सपने का कानूनी ककहरा

बच्चों को शिक्षा के लिए सदमे और डर से मुक्त माहौल देने के लिए शारीरिक दंड एवं वार्षिक परीक्षा आधारित पास-फेल की प्रणाली खत्म कर दी जा रही है। इसके बदले निरंतर मूल्यांकन की व्यवस्था की गई है। विधेयक में सभी विद्यालयों के पाठ्याचार को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप ढालने का प्रावधान किया है। इससे कुछ संस्थाओं, संगठनों के स्कूलों में सांप्रदायिक और इस तरह के अन्य एजेंडे को सीमित करने मे मदद मिलेगी।
शिक्षा के सपने का कानूनी ककहरा

नए विधेयक के तहत सरकार सभी बच्चों की शिक्षा के लिए जवाबदेह हो जाएगी

बाजारों और सरकारों के अत्याचार, बहशी आतंकवाद तथा मंदी के दौर में नए साल के मुहाने पर इस गीत के साथ एक खूबसूरत सपना देखें तो कैसा रहे:

चलेगी थैले में पट्टी, बजेगी शाला की घंटी।

कि अब तो सीखने आए, सारी दुनिया के बच्चे।

क ख खा रहा ककड़ी, ग घ तोड़ रहा लकड़ी,

कि लकड़ी छोडक़र आए सारी दुनिया के बच्चे।

च छ पहन रहे चप्पल, ज झ भाग गए जंगल।

हवा में झूमते आए सारी दुनिया के बच्चे...

ब भ चरा रही बकरी, न म खोद रहा मिट्टी।

डक मिट्टी छोडक़र आए सारी दुनिया के बच्चे...

लाली जला रही चूल्हा, ल व कर रही कुल्ला।

कि चूल्हा छोडक़र आए सारी दुनिया के बच्चे...

क्ष ने देख ली दुनिया, त्र ज्ञ बांट रहे खुशियां।

कि खुशियां लूटने आए सारी दुनिया के बच्चे।

राजस्थान के तिलोनिया में स्वयंसेवी संस्था समाज कार्य अनुसंधान केंद्र की रात्रिशालाओं के लिए शिव और उनके साथियों के बनाए इस गीत के बोल लकड़ी, बकरी, मिट्टी, चूल्हे आदि से बने भारतीय बचपन के श्रम संसार को बखूबी रचते हैं लेकिन फिर भी उड़ान भरती धुन के साथ ज्ञान के अथाह संभावना संसार में झुमाते-झुलाते ले जाते हैं जो भारतीय समाज के बड़े तबके के लिए अब भी मरीचिका है। वे दलित बच्चे याद आते हैं जिन्हें कई किलोमीटर दूर स्कूल जाते वक्त सवर्णों के टोलों, ढाणियों से गालियां और मार झेलते जाना पड़ता है। शिक्षक की सदा अनुपस्थिति के शिकार एक गंवई स्कूल की चौथी कक्षा का सोनू भी याद आता है जो लौकी को पहचान तो जाता है लेकिन अपनी एकमात्र परिचित भाषा हिंदी में लिख नहीं पाता। तेरह साल का वह राजेसर भी याद आता है जो मास्टर की मार के जवाब में उन पर हमला कर स्कूल, गांव, घर से भाग शहर में घरेलु नौकर बन आ गया।

लिंग, वर्ग, जाति और संप्रदाय की लकीरों से अक्सर बदरूप भारतीय समाज में सबकी शिक्षा आजादी के 61 सालों के बाद भी दूर की कौड़ी है। हालांकि हमारे संविधान निर्माताओं ने महज दस वर्ष के अंदर इस समाज को सर्वशिक्षित बना डालने की समय सीमा संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत तय की थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 4.5 करोड़ बच्चे स्कूल के बाहर हैं। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार ऐसे बच्चों की संख्या लगभग 7-8 करोड़ है जिनमें ज्यादातर बाल मजदूरों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमानों के अनुसार बाल श्रम का संपूर्ण उन्मूलन दुनिया के सकल घरेलु उत्पादन में 4000 अरब डॉलर की बढ़ोतरी करा देगा। चूंकि विश्व के कुल एक चौथाई बाल मजदूर भारत में हैं। इसलिए यदि श्रम बाजार से स्कूलों में ले जाकर इन बच्चों का हुनर बढ़ाया जाए तो भारत के सकल घरेलू उत्पादन में इससे करीब 1000 अरब डॉलर की वृद्धि अंतत: दर्ज होगी। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अनुभव शिक्षा में बढ़ोतरी और बाल श्रम में गिरावट के बीच सीधा संबंध दर्शाता है। मसलन केरल में बाल मजदूरी न्यूनतम है जहां लगभग सभी बच्चे स्कूल जाते हैं।

संसछ के शीत सत्र मे पेश शिक्षा के अधिकार विधेयक ने देश में सर्वशिक्षा की जटिल चुनौतियों से निपटने के लिए एक झरोखा खोला है। सर्वशिक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम 2002 में संविधान के 86वें संशोधन के जरिये शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाकर उठाया गया जब नए अनुच्छेद 21-ए के तहत राज्य ने 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बीड़ा उठाया। हालांकि अफसोस कि इस संविधान संशोधन को अमल में लाने के कानून के लिए विधेयक 6 साल बाद लाया गया है। अच्छा है कि विधेयक राज्य सभा में पेश किया गया क्योंकि वर्तमान लोकसभा भंग हो जाने के बाद भी अगली सरकार के वक्त तक यह जिंदा रखा जा सकेगा।

विधेयक की ताकत उसके महत्वपूर्ण शब्दों 'मुफ्त और अनिवार्य' की रचनात्मक परिभाषा में है। बच्चों को स्कूल भेजने की अनिवार्यता परंपरा से सिर्फ माता-पिता के लिए मानी जाती थी। अब बच्चों को स्कूल भेजना राज्य के लिए अनिवार्य किया गया है क्योंकि उनके स्कूल न जा पाने के पीछे कई बार ऐसे सामाजिक एवं आर्थिक कारक होते हैं जिन पर मां-बाप का बस नहीं होता। इन आर्थिक कारकों को संबोधित करने के लिए ही विधेयक में मुफ्त की परिभाषा में सिर्फ फीस माफी की जगह हर बच्चे की शिक्षा के लिए उसकी पुस्तकों, स्टेशनरी, परिवहन आदि पर खर्च के लिए भी राज्य को पूर्ण जिम्मेवार बनाया गया है।

विधेयक अंशत: समता का भी ख्याल रखता है। अब तक वंचित बच्चे तो अर्ध प्रशिक्षित पैरा शिक्षकों और साधनहीन स्कूलों के हवाले थे जबकि सुविधासंपन्न बच्चों की शिक्षा के लिए बेहतरीन निजी स्कूल और केंद्रीय विद्यालयों एवं नवोदय विद्यालयों जैसे सरकारी स्कूल उपलब्ध थे। अब सभी स्कूलों के लिए न्यूनतम सुविधाएं अनिवार्य कर दी गई हैं जैसे उपयुक्त कक्ष, शिक्षण सामग्री, पर्याप्त छात्र-शिक्षक अनुपात, खेल का मैदान और पुस्तकालय। विधेयक के कानून बन जाने पर हर बच्चे केा तीन वर्ष के अंदर अपने निर्धारित पड़ोसी विद्यालय में प्रवेश का अधिकार मिल जाएगा। कैपिटेशन फीस और माता-पिता के इंटरव्यू को समाप्त कर उससे पैदा होने वाले वर्ग भेद को न्यून करने की कोशिश की गई है। सभी स्कूलों में गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ाने के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई हैं। सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र लागत के हिसाब से इसकी भरपाई सरकार करेगी।

बच्चों को शिक्षा के लिए सदमे और डर से मुक्त माहौल देने के लिए शारीरिक दंड एवं वार्षिक परीक्षा आधारित पास-फेल की प्रणाली खत्म कर दी जा रही है। इसके बदले निरंतर मूल्यांकन की व्यवस्था की गई है। विधेयक में सभी विद्यालयों के पाठ्याचार को संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप ढालने का प्रावधान किया है। इससे कुछ संस्थाओं, संगठनों के स्कूलों में सांप्रदायिक और इस तरह के अन्य एजेंडे को सीमित करने मे मदद मिलेगी।

इन सबके लिए धन की जरूरत होगी। पहले चार साल तक सर्व शिक्षा अभियान के वर्तमान खर्च के ऊपर प्रतिवर्ष 12000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। मुक्त बाजार लॉबी कहेगी कि यह जिम्मेवारी वित्तीय उत्तरदायित्व अधिनियम के प्रतिकूल होगी। लेकिन अतिरिक्त खर्च के बावजूद शिक्षा व्यय सकल घरेलू उत्पादन के 6 प्रतिशत से कम होगा जो आमतौर पर मान्य है - सत्तारूढ़ गठबंधन केआम न्यूनतम कार्यक्रम द्वारा भी। लेकिन शिक्षा की राह में बाधक जाति और लिंग संबंधी पूर्वाग्रहों और बाल श्रम के शोषण की प्रोत्साहक प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए सरकार ज्यादा सक्रिया होगी तभी सर्व शिक्षा का सपना पूरा हो जाएगा।

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