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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

फिल्म: समाज की लापता अच्छाइयों को रेखांकित करती लापता लेडीज

कई हिंदी फिल्में जड़ सामाजिक बंधनों पर सीधे प्रहार न करते हुए साधारण कहानी के जरिये अपनी बात रखती हैं। कहानी की यही ताकत उन्हें बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाती है
लापता लेडिज का दृश्य

भारतीय जीवन का यह सबसे अनूठा पक्ष है कि हम परिवार में जन्म लेते हैं और परिवार के साथ ही बड़े होते हैं। चाहे अनचाहे परिवार को देखते-सुनते-गुनते परिवार की परंपराएं हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। हम उन परंपराओं को किसी कसौटी पर कसने की कभी जरूरत नहीं महसूस करते, बस मान लेते हैं। बड़ों के पैर छूना है तो बस छूना है, हम कभी नहीं सोचते कि आखिर इसकी आवश्यकता क्या है। पीढि़यों से परंपराओं को मानते चले जाना किसी के लिए बेवकूफी हो सकती है, लेकिन हमारे लिए वह विश्वास है, ताकत है। लापता लेडीज के एक दृश्य में अपने पति से बिछड़ चुकी फूल सामान्य होते ही सबसे पहले अपने ‘खोंइछे’ को सुरक्षित रखती है, जो विवाह के बाद विदाई के समय उसकी मां ने दिया था। दादी, जिसने स्टेशन पर उसे शरण दी है, व्यंग्य से कहती है, ‘‘यह हल्दी, दूब और चावल से रक्षा करेगी... उस आदमी की जो खुद तुम्हारी रक्षा नहीं कर सका।’’ फिल्म के अंतिम दृश्यों में जब फूल सुरक्षित अपने पति के पास लौट जाती है, तो दादी अपने बक्से में रखे फूल के खोंइछे को देख हौले से मुस्कुरा देती है, जैसे फूल के विश्वास पर स्नेह बरसा रही हो। निर्देशक किरण राव पहले खोंइछे पर सवाल उठाती हैं, फिर खोंइछे की परंपरा का मान भी रख लेती हैं।

यह फिल्म एक ऐसे भारत की छवि को प्रस्तुत करती है जहां गलत लोग हाशिये पर हैं। पूरी फिल्म में एक ही गलत व्यक्ति दिखता है प्रदीप, जो थोड़ा दबंग भी है। पहली पत्नी की मौत में उसकी संलिप्तता की ओर भी इशारा है। उसे शराब और बाकी शौक भी हैं, लेकिन एक संवेदनशील थानेदार उसकी सारी कलफ उतार देता है। किरण राव यह दिखाने में कहीं कंजूसी नहीं करतीं कि समाज पर नियंत्रण भले लोगों का है। यहां एक ऐसा भारत हमें दिखता है जहां एक नवविवाहिता के रेलवे स्टेशन पर पति से बिछड़ जाने के बाद हर कोई उसकी मदद को तत्पर दिखता है। चाय की दुकान पर काम करने वाल छोटू, नकली लंगड़ा बन कर स्टेशन पर भीख मांगने वाल भिखारी, स्टेशन मास्टर और फिर स्टेशन पर चाय की दुकान चलाने वाली दादी तो हैं ही। भारतीय रेलवे स्टेशनों के बारे में एक पूर्वाग्रह बनाया गया है कि वहां चारों तरफ लुटेरे और गुंडे ही भरे होते हैं, वह भी इससे टूटता है। लापता लेडीज इसे खारिज कर वहां जीवन गुजार रहे लोगों के श्रम और सहृदयता को स्थापित करती है।

यह कथा भले ही घूंघट के कारण अपने पति से बिछड़ जाने वाली नवविवाहताओं की लगती हो, लेकिन कथा उससे एकदम विपरीत है। यह कथा है उस जया उर्फ पुष्पा की जो अपनी आगे की पढ़ाई के लिए अपने पति को छोड़ कर किसी अनजान के साथ भागने को तैयार है- जैसे इस बंधन से निकल गई तो आगे का रास्ता तो वह निकाल ही लेगी। यह आत्मविश्वास कौन से घूंघट में छुपाया जा सकता है? वह कहती भी है, वह तो पहचान ही रही थी कि कोई दूसरा उसे लेकर ट्रेन से उतर रहा है, लेकिन उसे लगा ईश्वर का यह इशारा है, अभी नहीं निकली, तो कभी नहीं निकल पाएगी। अब इसमें बेचारा घूंघट क्या करे?

लापता लेडीज सिर्फ घूंघट की नहीं, उस परिवार की अच्छाई की भी कहानी है जो एक अनजान अपरिचित महिला को अपने की तरह परिवार में स्थान देती है। कौन कहता है कि देश में जाति ही सब कुछ है? पुष्पा को अपने घर में रखते हुए कोई पूछता भी है क्या कि तुम कौन जात हो? परिवार के बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक उसे एक जवाबदेही समझ कर रखते हैं। दीपक उसे अपनी पत्नी समझ घर लाया है, लेकिन पूरी फिल्म में पुष्पा के प्रति एक सम्मान भाव ही दीपक की नजर में दिखता है। स्त्री-पुरुष संबंध को सिनेमा ने जिस सीमित नजरिये से देखने की शुरुआत की है, लापता लेडीज उसका भी जवाब देती है। हां, लड़का और लड़की दोस्त भी हो सकते हैं।

यह कहानी फूल की भी है, जिसे उसकी मां ने एक भले घर की बेटी के रूप में तैयार किया है, उसे घर के काम तो सिखाए, लेकिन पढ़ाया नहीं। उसे अपने ससुराल के गांव का नाम तक याद नहीं। स्टेशन पर शरण के लिए वह जिस दादी के पास आई है वह व्यंग्य में कहती है, ‘‘फ्रॉड समझती हो, इस देश में लड़की लोगों के साथ हजारों साल से यह फ्रॉड चला आ रहा है। इसका नाम है भले घर की बहू-बेटी।’’ फूल को अपने भले घर की बेटी होने पर गर्व है। दादी कहती है, ‘‘बुड़बक होना शर्म का बात नहीं, बुड़बक होने पर गर्व करना शर्म की बात है। तुम्हारी मां ने तुमको अच्छा नहीं बनाया, बुड़बक बनाया है।’’ फूल बगैर किसी हिचक के कहती है, ‘‘मुझे बुड़बक नहीं बनाया, मुझे सिलाई करना, खाना बनाना, भजन-कीर्तन करना आता है।’’ किरण राव के निर्देशन का यह कमाल है कि वे उसके इसी हुनर को उसकी ताकत के रूप में स्‍थापित करती हैं। स्टेशन पर दादी उसे शरण देती, वह दादी के घरेलू काम में ही हाथ नहीं बंटाती बल्कि अपने हुनर से दुकान को बेहतर बनाने की भी कोशिश करती है। जब वह मिठाई बना कर लाती है, तो दादी का उत्साह बगैर शब्द के बहुत कुछ कह जाता है। यहां अकेले बिछड़ गई महिला की ताकत के रूप में बस उसका हुनर और उसका स्वभाव ही दिखता है जो मां ने उसे अच्छी लड़की के रूप में दिया था। वास्तव में शिक्षा को सीमित अर्थों में नहीं देखा जा सकता। किरण राव एक ओर पुष्पा तो दूसरी ओर फूल को अपने-अपने तरीके से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते दिखा कर शायद यही कहना चाहती हैं।

फिल्म स्त्रियों की दुनिया में झांकती हैं। लेकिन इस झांकने में दादी के रूप में, जो खिड़की खुलती हैं वह थोड़े स्टीरियोटाइप फेमेनिज्म से आगे नहीं बढ़ पाती। दादी के संवाद फिल्म की आत्मा से अलग दिखाई पड़ते हैं। पति को भगा कर स्वालंबी बनती स्त्री को दिखा कर संभवतः किरण संतुलन दिखाना चाहती हों। 

लापता लेडीज एक ऐसी लड़की की भी कहानी है, जिसकी रुचि कृषि विज्ञान में है और जो अपनी रुचि के लिए किसी भी परिस्थिति से लड़ने को तैयार है। यह उस लड़की की भी कहानी है, जो खुद संकट में होते हुए भी दूसरे के लिए लड़ सकती है। यह उस लड़के की कहानी भी है, जो अपनी पत्नी से प्यार करना जानता है और दूसरी महिला का सम्मान करना भी। यह कहानी बुरे की संवेदना जागृत कर देती है। कोई कहे ऐसा भी होता है क्या? सब अच्छे हैं इसमें तो? फिल्मकार ने वह दिखाया जो हमें होना चाहिए। हम ऐसे नहीं हैं, तो इसमें फिल्मकार की क्या गलती? जब अधिकांश फिल्मों में बुराइयों का अतिरेक हम स्वीकार कर लेते हैं, तो एक फिल्म में अच्छाई स्वीकार क्यों नहीं करते?

विनोद अनुपम

(विनोद अनुपम राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं)

 

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