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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

जनादेश ’24/उत्तर प्रदेश: उत्तर नहीं, मैं प्रश्न हूं...

आम चुनाव के नतीजों में भाजपा के बहुमत से चूक जाने का सबसे बड़ा कारण अकेले उत्तर प्रदेश है, पर ऐसा हुआ कैसे
अखिलेश यादव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 4 जून की शाम को आम चुनाव के नतीजों की धुंध साफ होने पर भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली मुख्यालय में नमूदार हुए, तो उन्होंने ‘जय जगन्नाथ’ कह कर पार्टी के पदाधिकारियों को संबोधित किया। इसे सोशल मीडिया पर ओडिशा में पार्टी की कामयाबी से जोड़कर देखा गया। कुछ लोगों ने इसे पुरी से चुनाव जीते संबित पात्रा की फिसली जबान से भी जोड़ कर देखा जिसमें उन्होंेने कह दिया था, ‘‘भगवान जगन्नाथ मोदी के भक्त हैं।’’ उत्तर प्रदेश में कुछ लोगों ने इसे दो तरीके से देखा, एक मोदी ने अयोध्या में चुनाव हारते ही अपना भगवान बदल लिया दूसरा यह बनारस में निर्माणाधीन जगन्नाथ कॉरीडोर के कारण अबकी गंवाए भाजपाई वोटों का प्रायश्चित है।

चुनाव परिणामों के बाद लोकप्रिय चर्चाएं एक तरफ रख दें, तो एक बात ध्यान देने वाली थी कि मोदी ने अपने संबोधन में उत्तर प्रदेश पर एक शब्द भी नहीं कहा। जिस राज्य ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया और भाजपा को दो बार पूर्ण बहुमत दिलवाया, आज वह उनके सामने एक ऐसा प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है जिसके आगे वे निरुत्तर दिखे।

अयोध्या और बनारस

यूपी के जनादेश से मोदी के लिए निकले सवालों के दो अहम केंद्र हैं, पहला अयोध्या‍ और दूसरा बनारस। अयोध्या यानी फैजाबाद लोकसभा सीट ने सांप्रदायिकत की चिंता में डूबे लोगों को पहली बार तब चौंकाया था, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के ठीक बाद 1998 के लोकसभा चुनाव में उसने कम्युनिस्ट नेता मित्रसेन यादव को जितवा दिया था। अबकी इतिहास ने खुद को दोहराया है, जब राम मंदिर बन कर पूरे प्राण-प्रण से तैयार खड़ा है। इस बार फिर भाजपा को हराने वाला प्रत्याशी समाजवादी पार्टी से ही है और वह दलित है। मोदी ने राम को बदल कर जगन्नाथ को भगवान मान लिया, यह बात इसलिए यहां से निकली है। 

सीटों की हिस्सेदारी

सवाल का दूसरा केंद्र बनारस है, जहां तीसरी बार प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी महज डेढ़ लाख वोट से चुनाव जीत सका। नरेंद्र मोदी 4 जून को दोपहर बारह बजे के आसपास तक कांग्रेस के प्रत्याशी अजय राय से पिछड़ रहे थे। चौतरफा इसका हल्ला मच गया था। बाद में वे आगे तो निकल गए, लेकिन बनारस ने उन्हें डेढ़ लाख के अंतर पर थाम लिया। यह अंतर 2014 की जीत के अंतर का आधा है जबकि 2019 में मोदी का बढ़ा हुआ मार्जिन 4.8 लाख था। इतना ही नहीं, वाराणसी लोकसभा में 70,000 मतदाता इस बार बढ़े लेकिन मोदी को 60,000 कम वोट मिले जिसके चलते उनका वोट प्रतिशत पिछली बार की तुलना में नौ प्रतिशत से ज्यादा गिर गया।

भांप लिया था परिणाम

बुंदेलखंड और अवध की जिन दर्जन भर सीटों को आउटलुक ने भाजपा की कड़ी चुनौती लिखा था, उनमें अधिकतर पर भाजपा हार गई है

मोदी ने अपने ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ काशी विश्वनाथ कॉरीडोर का उद्घाटन मार्च 2019 में किया था। इसके पहले सैकड़ों लोगों को विस्थापित किया गया, दो सौ से ज्यादा विग्रह तोड़े गए, इतने ही मकान गिरा दिए गए। हजारों बरस पुरानी गलियां गायब हो गईं। घाट खत्म कर दिए गए। पीढि़यों से रह रहे लोगों को उजाड़ दिया गया। उस वक्त काशी के पक्कालमहाल की गलियों में मंदिर बचाओ आंदोलन चला। उसी साल बनारस में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर आक्रोश पनप चुका था। तीन से चार दशक पुराने स्वयंसेवकों का मोदी और भाजपा से मोहभंग हो चुका था, लेकिन पुलवामा की हवा में सारी बगावत बह गई। बीते पांच साल में कॉरीडोर के नाम पर हुई तबाही का असर लोगों ने अपने जीवन पर रोज महसूस किया है।

मायावती

बसपा सुप्रीमो मायावती

इसलिए अबकी जब जगन्नाथ कॉरीडोर नाम की एक नई परियोजना के लिए शहर में रिहायशी जमीन कब्जाने का खेल शुरू हुआ, तो लोग भड़क गए। ऊपर से कांग्रेस और सपा का गठबंधन भाजपा पर तकनीकी रूप से भारी पड़ गया। किसी तरह मोदी सीट निकाल सके। अगर 2019 में पुलवामा से उपजा अंधराष्ट्रवादी उन्माद नहीं होता तो मोदी का मार्जिन उसी चुनाव में कम हो गया होता। इस बार हालांकि बनारस के मतदाता मोदी के जबरदस्त  घटे मार्जिन को अपनी नैतिक जीत मान कर चल रहे हैं। आउटलुक ने चुनाव के दौरान यूपी पर अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में बनारस की जगन्नाथ कॉरीडोर परियोजना का जिक्र किया था।

गढ़ में दुर्गति

यानी भाजपा और मोदी की सत्ता के दो मुख्य परनाले अब चोक हो चुके हैं। जाहिर है, बाकी धाराओं पर भी इसका असर पड़ना ही था। आउटलुक ने चुनाव के दो चरण पूरा होने के बाद उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और अवध की दर्जन भर सीटों का दौरा कर के एक आकलन दिया था कि यह चुनाव संविधान को बचाने के मुद्दे पर खड़ा हो चुका है। ये वे इलाके थे जहां भाजपा ने पिछली बार 28 में से 26 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसलिए संकेत यह निकल रहा था कि यदि भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ बुंदेलखंड और मध्य यूपी ही दरक रहा है, तो बाकी के बारे में सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। आउटलुक का आकलन चुनाव परिणामों से पुष्ट हुआ है। बांदा, हमीरपुर, जालौन, कन्नौज, फतेहपुर, बाराबंकी, रायबरेली, अमेठी, सीतापुर, धौरहरा, मोहनलालगंज, इटावा और फैजाबाद में भाजपा हार गई है। ये बिलकुल वही सीटें हैं जहां से आउटलुक ने भाजपा को संविधान के मसले पर विपक्षी गठबंधन की ओर से तगड़ी चुनौती मिलने की रिपोर्ट की थी। विडंबना देखिए, न केवल अयोध्या, बल्कि राजा राम की दूसरी नगरी चित्रकूट से भी भाजपा ने मुंह की खाई है।  

जीत का रिश्ताः प्रियंका गांधी और अमेठी से विजयी किशोरीलाल शर्मा

जीत का रिश्ताः प्रियंका गांधी और अमेठी से विजयी किशोरीलाल शर्मा

लिहाजा भाजपा इस चुनाव में 2014 के प्रदर्शन से भी नीचे आ गई है। उत्तर प्रदेश में 2014 में उसे 42.32 प्रतिशत वोट मिले थे, जो पुलवामा की हवा में 2019 में बढ़कर 49.56 प्रतिशत पर पहुंच गए। अबकी भाजपा का कोई सिक्का नहीं चला। केवल मोदी के नाम और चेहरे पर लड़े गए इस चुनाव ने भाजपा को 41.37 प्रतिशत वोटों पर ला पटका। उसकी सीटें घट कर मात्र 33 रह गईं। अगर लोकदल की बागपत और बिजनौर तथा अनुप्रिया पटेल की मिर्जापुर सीट को जोड़ लें, तो एनडीए का खाता यूपी में 36 पर सिमट जाता है। इससे ज्यादा सीटें तो अकेले समाजवादी पार्टी के खाते में आई हैं (37) जबकि उसके गठबंधन सहयोगी कांग्रेस को छह सीटें मिल गई हैं। कुल 80 में से बची एक सीट, तो उसे नगीना लोकसभा से चंद्रशेखर आजाद निकाल ले गए जहां से बहुजन समाज पार्टी के युवा नेतृत्व और पार्टी सुप्रीमो मायावती के उत्तराधिकारी आकाश आनंद को लॉन्च किया गया था, लेकिन बीच राह ‘राजनीतिक अपरिपक्वता’ का हवाला देकर बैठा दिया गया।   

इस तरह भाजपा अपनी राजनीतिक सत्ता के गढ़ में ही मात खा गई। ऐसी प्रत्याशा किसी को नहीं थी। जमीन पर काम कर रहे लोगों का मानना था कि बहुत से बहुत भाजपा घटेगी भी तो उसकी पचास सीटें कहीं नहीं गई हैं। इस गिरावट के पीछे मुख्य कारक पूर्वांचल की सीटों को माना जा रहा था जहां मुख्तार अंसारी का फैक्टर काम कर रहा था। बावजूद इसके गाजीपुर, चंदौली, घोसी, आजमगढ़ के अलावा किसी और पूरब की सीट पर भाजपा के हारने की उम्मीद उतनी पक्की नहीं थी। इस लिहाज से जौनपुर में बाबूसिंह कुशवाहा और बलिया में सनातन पांडे की जीत चौंकाती है। ऐसा लगता है कि संविधान, बेरोजगारी, परचा लीक और आरक्षण का मुद्दा वाकई एक सोते के रूप में चुपचाप सतह के नीचे समूचे सूबे में बह रहा था। उस पर से विपक्ष के अभूतपूर्व टिकट वितरण ने उसके मुद्दों को पार लगा दिया।

सत्ता के संसाधन और चकाचौंध के विरुद्ध लोकतांत्रिक युद्ध में काशी की जनता ने स्नेह दियाः अजय राय, कांग्रेस प्रत्याशी, वाराणसी

सत्ता के संसाधन और चकाचौंध के विरुद्ध लोकतांत्रिक युद्ध में काशी की जनता ने स्नेह दियाः अजय राय, कांग्रेस प्रत्याशी, वाराणसी

कुल 62 सीटों पर लड़ी समाजवादी पार्टी ने आश्चर्यजनक रूप से 32 पिछड़ी जाति और 16 दलित उम्मीदवारों को टिकट बांटे। पिछड़ों में 20 जीते और दलितों में सात जीते हैं। इस समीकरण ने बीस साल पहले 35 सीटों वाला दिवंगत मुलायम सिंह यादव का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। इन्हीं आंकड़ों के सहारे भाजपा की दुर्गति की कहानी समझी जा सकती है। जिन 32 ओबीसी को सपा ने टिकट दिए उनमें महज चार यादव थेः खुद अखिलेश यादव और डिंपल यादव को मिलाकर। बाकी, वर्मा, निषाद, पटेल, जाट, कुशवाहा, पाल, राजभर, बिंद और गुर्जर प्रत्याशी थे। चार मुसलमान और 10 सवर्ण प्रत्याशी भी थे। जातियों का यह सम्मिश्रण काम कर गया। 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित पर जो दांव खेला था, उससे बना उसका आशियाना बिखर गया और यूपी का मतदाता पार्टी की संक्षिप्त वफादारी को छोड़कर अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवार पर आकर टिक गया।

नतीजा सामने है- 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में अपना 19 प्रतिशत वोट कायम रखने वाली बसपा के दस प्रतिशत वोट कट के गठबंधन को चले गए। दलितों ने (और बसपा के परंपरागत वोटरों ने भी) यह मानते हुए गठबंधन को वोट दिया कि बहनजी को 2027 में देखा जाएगा। आउटलुक ने अपनी रिपोर्ट में मोहनलालगंज, धौरहरा और सीतापुर के बसपा काडरों के हवाले से बिलकुल यही बात लिखी थी। बसपा, जो कथित तौर पर 2027 के विधानसभा चुनाव की जमीन तैयार करने के लिए इस बार लड़ रही थी, अपनी आधी जमीन गंवा बैठी। भाजपा से जो गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित का अंश गठबंधन की ओर आया, उसने पार्टी का वोट प्रतिशत 2019 के 49.56 से आठ प्रतिशत गिराकर 41.37 प्रतिशत पर ला दिया। यानी ये आठ प्रतिशत और बसपा के 10 प्रतिशत को जोड़ कर जो 18 प्रतिशत बनता है, वह सीधे-सीधे कांग्रेस और सपा में बंटता हुआ दिख रहा है। कांग्रेस पिछली बार के मुकाबले तीन प्रतिशत बढ़ी है और सपा के वोटों में 15 प्रतिशत की उछाल आई है।

एक और दिलचस्प स्थिति यह है कि भाजपा की जीत वाली 33 सीटों में से 18 सीटें ऐसी हैं जहां उसकी जीत का मार्जिन 50,000 वोटों से कम है। इनमें तीन पर मार्जिन 5000 से कम है- फूलपुर, बांसगांव और फर्रुखाबाद। बसपा के प्रत्यािशयों को फूलपुर, बांसगांव और फर्रुखाबाद में क्रमश: 82000, 64000 और 45000 के आसपास वोट मिले हैं। इसी तरह 14 सीटें ऐसी हैं जहां-जहां बसपा के अच्छे वोट आए हैं- पर्याप्त इतने कि बसपा का प्रत्याशी न होने पर भी इन सीटों पर भाजपा के खाते में बमुश्किल 15 सीटें आतीं और इतनी ही गठबंधन में जुड़ जातीं।

ठीकरा किसके सिर?

फिर भी, भाजपा की यह हार मामूली नहीं है इसे समझना जरूरी है। भाजपा अपने दम पर बहुमत से 32 सीट चूक गई है। यूपी में उसे अकेले 29 सीटों का नुकसान हुआ है। यानी अगर वह 2019 के 62 वाले आंकड़े पर भी कायम रहती तो स्पष्ट बहुमत के लिए केवल तीन सांसदों की जरूरत पड़ती। यह नहीं हो सका। अकेले यूपी ने भाजपा को अधर में लटका दिया।  जाहिर है, किसी न किसी को तो इसका जवाब देना ही होगा।

नरेंद्र मोदी ने, तो यूपी पर एक शब्द नहीं कहा। बाकी, भाजपा के भीतर कौन किससे जवाब मांगे इसका असमंजस है। इसलिए नैतिक आधार पर इस्तीफा देने के उदाहरण से दबाव की आंतरिक राजनीति चालू हो चुकी है। महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने पार्टी के कमजोर प्रदर्शन के चलते इस्तीफे की पेशकश कर दी है। महाराष्ट्र से यूपी में निशाना लगाया गया है। लखनऊ के सियासी गलियारों में चर्चा है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने, तो 35 ऐसे प्रत्याशियों की सूची अमित शाह को पकड़ाई ही थी जिनके बारे में वे हार जाने का दावा कर रहे थे, लेकिन शाह ने उन सब को टिकट दे डाला। यूपी के आम मतदाता पूछ रहे हैं कि ऐसे में महंतजी की क्या गलती? संघ के लोगों का कहना है कि दूसरी विचारधारा के नेताओं, भ्रष्टाचारियों और दलबदलुओं को पार्टी में शामिल करना बड़ी भूल थी। 

लखनऊ से लेकर बनारस तक बैठकों का दौर जारी है। लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि वहां चर्चा जोर पकड़ चुकी हैं कि सरकार बनने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है। यदि यह संभव नहीं हुआ तो धूल खा रही यूपी के विभाजन की फाइल को जिंदा किया जा सकता है जिसके अनुसार सूबे को चार हिस्सों में बांटा जाना है।

विश्लेषण का संकट

यूपी में भाजपा को लगा झटका एक ऐसा सवाल बनकर उभरा है जिसका जवाब किसी को सूझ नहीं रहा। भाजपा के आम कार्यकर्ता मतदाताओं को ही शक की नजर से देखने लगे हैं। महाराजगंज के डॉ. भीमराव आंबेडकर राजकीय महाविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्राचार्य डॉ. विनोद कुमार पाल ने 2019 के चुनाव में दलित और ओबीसी की भूमिका पर एक शोधपत्र लिखा था। इसमें उन्होंने बताया था कि 2014 का लोकसभा चुनाव वर्ग (क्लास) के आधार पर हुआ था लेकिन 2019 के चुनाव पर जाति की छाया पड़ गई और नब्बे के दशक वाली राजनीति की आहट सुनाई देने लगी। डॉ. पाल ने लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़ों के सहारे बताया है कि कैसे 2014 से 2019 के बीच भाजपा ने चुनाव को वर्ग से जाति पर लाने का काम किया। यदि इसी तर्क को पकड़ कर चलें, तो ऐसा लगता है कि 2024 में यूपी का लोकसभा चुनाव भाजपा की जातिगत किलेबंदी के टूटने की विशुद्ध और स्वाभाविक परिघटना है। इसकी पुष्टि बिहार के परिणामों से भी की जा सकती है जहां राष्ट्रीय जनता दल ने सपा की तर्ज पर टिकट बांटे और चार सीटें निकाल लीं। पिछली बार उसके हाथ एक भी सीट नहीं आई थी।

यानी धर्म की परंपरागत राजनीति करने वाली भाजपा ने 2014 में वर्गीय आकांक्षाओं से शुरुआत करने के बाद अपने चुनावी लाभ के लिए 2019 में जाति के छत्ते को जो छेड़ा, तो दस साल बाद जाति की राजनीति के धुरंधर दलों ने अपने मैदान में उसे पटक दिया। यह चालू व्याख्या उन जानकारों की समझ के अनुकूल दिखती है जो जाति-आधारित ‘सामाजिक न्यााय’ को हिंदुत्व के खिलाफ खड़ा कर के उसका अंतिम उपचार बताते हैं। इसके बावजूद यह पर्याप्त व्याख्या नहीं हो सकती क्योंकि कांग्रेस ने ओबीसी आरक्षण का मुद्दा खुलकर उठाने के बावजूद बीते विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों को गंवा दिया था।

आने वाले समय में काफी दिनों तक यूपी के पलटने की कहानी कही जाती रहेगी और इसके कारणों का संधान किया जाता रहेगा, लेकिन इस परिणाम के राजनीतिक निहितार्थ और प्रभाव जल्दं ही दिख जाएंगे जब मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार का तीसरी बार गठन होगा। बिहार चुनाव अगले साल है और यूपी का चुनाव 2027 में है। उससे पहले लोकसभा की सीटों का परिसीमन होना है। परिसीमन के लिए जनगणना करवाना अनिवार्य है, जो 2011 के बाद नहीं करवाई गई। परिसीमन के बाद यूपी और बिहार को मिलाकर लोकसभा में 222 सीटें हो जाएंगी जबकि दक्षिण भारत की 175 के आसपास और बाकी राज्यों  को मिलाकर 400 से कुछ ज्यादा सीटें बनेंगी। यह स्थिति ऐसी होगी कि दक्षिण भारत को छोड़ कर भी भाजपा चाहे तो यूपी-बिहार के भरोसे और बाकी राज्यों को साथ लेकर स्थायी सरकार बना लेगी।

विपक्ष इस खतरे को बखूबी समझता है। इसीलिए परिसीमन के पहले होने वाली जनगणना में जातिगत जनगणना का अड़ंगा जरूर आएगा। यह एक ऐसा नुक्ता है, जो लोकसभा में सवा दो सौ विपक्षी सांसदों और गठबंधन सरकार के केंद्र में रहते हिंदुत्व की हांडी को चूल्हे पर नहीं चढ़ने देगा। यानी आने वाला राजनीतिक समय जाति और हिंदुत्व के आपसी टकरावों और सौदेबाजियों से निकलने वाली सियासी इबारत का ही गवाह रहने वाला है। जाहिर है, अगले पंचवर्षीय चुनाव तक उस इबारत में उत्तर प्रदेश किसी उत्तर की तरह नहीं, सत्ता के लिए एक प्रश्न की तरह उपस्थित रहेगा।

(लेख का शीर्षक धर्मवीर भारती की एक कविता से)

 

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