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27 मई 2024 · MAY 27 , 2024

वाराणसी: बनारस में विरोधाभासी रंग

प्राचीन शहर को दो बार के सांसद नरेंद्र मोदी अपनी छवि और विकास में ढाल रहे, लेकिन बड़ा हिस्सा उपेक्षित
बदला रंग बनारस का

आस्‍थावान तीर्थयात्री की तरह वाराणसी सुबह तड़के उठता है। सुबह साढ़े चार बजे, दशाश्वमेध घाट की ओर जाने वाली सड़क पर, एक फूड स्टॉल का मालिक तवे पर डोसा बना रहा है, एक चमकीली पान की दुकान के बाहर कई ग्राहक खड़े हैं, कोई ठेले पर पूजा सामग्री बेच रहा है ‘10 का, 10 का, 10 का।’ घाट पर फेरीवाले, विदेशी पर्यटकों  पर बाज की तरह टूट पड़ते हैं, मुफ्त लॉकर, नाव की सवारी, गर्दन की मालिश। घाट पर 100 से अधिक लोग जुटे हैं और नावों, दीयों और भक्तों के झुंड के बीच गंगा में डुबकी लगाई जा रही है। यह सब सुबह के धुंधलके के तहत होता है, क्‍योंकि सूरज वाराणसी की गति से नहीं अपने समय से उगता है।

शहर के घाट शाश्वत हैं और उनसे जुड़े कर्मकांड भी। लेकिन उससे बमुश्किल  एक किलोमीटर की दूरी पर, यहां के सांसद नरेंद्र मोदी ने इस प्राचीन शहर को अपने रंग में ढालना शुरू कर दिया है। उनका खास प्रोजेक्ट, काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर 2019 की शुरुआत में शुरू हुआ। प्रसिद्ध विश्‍वनाथ मंदिर का निर्माण मराठा रानी अहिल्याबाई होलकर ने 17वीं सदी में कराया था। औरंगजेब के आदेश के बाद मंदिर ढहाए जाने के एक सदी बाद। यह राम मंदिर निर्माण से पहले शुरू हुआ और हिंदुत्‍व का वह नारा गूंज उठा, ‘अयोध्‍या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है।’

दोनों परियोजनाओं में महलनुमा भव्‍य परिसरों का निर्माण किया गया है, स्‍थानीय लोगों को विस्थापित किया गया और पुरानी सड़कों को नया रूप देकर दुकानों के बोर्ड तक को एक जैसा बना दिया गया है। इनका रंग, डिजाइन और लिखावट एक समान है। कुछ वर्ष बाद भले ही वाराणसी में अधिकांश बोर्ड के बीच-बीच के अक्षर गायब हो गए हों, जैसे कह रहे हों कि ज्‍यादा दिन तक यह दिखावा बर्दाश्‍त नहीं। किसी ‘वस्त्रालय’ के बोर्ड में ‘ल’ नहीं है, ‘परिधान’ में ‘न’ गायब है। ‘गांधी’ ‘गाधी’ बन गया है।

राम मंदिर की तरह, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर भी कारोबार और भक्ति की खिचड़ी है। इसमें एक फूड कोर्ट, एक किताबों की दुकान, एक हॉल (उपनयन, हल्दी और वैदिक विवाह के लिए किराए पर उपलब्ध), एचडीएफसी, एसबीआइ और केनरा बैंक के एटीएम, एलआइसी के सौजन्‍य से मुफ्त पीने का पानी वगैरह की सुविधाएं हैं। मुख्य मंदिर से नदी किनारे मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों और छतरियों की ओर जाता यह आलीशान गलियारा आपको कभी याद नहीं दिलाएगा कि कभी यहां किसी का मकान, दुकान या प्राचीन मंदिर हुआ करता था। उस ढहाए-हटाए ढांचों के कुछ निशान अब भी दिखाई देते हैं, जिनमें काशी विश्वनाथ परिसर के बगल में एक टूटा-फूटा आश्रम और एक स्कूल है।

विश्‍वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद, जीर्ण-शीर्ण गुंबदों के साथ, जर्द पीली दिखती है। लगभग 50 मीटर की दूरी पर खड़े दो पुलिसवालों ने रटा रटाया वाक्य दोहराकर वहां जाने से रोक दिया। विवादित प्रॉपर्टी हिंदुओं के लिए खुली नहीं है। स्थानीय मुसलमान अंदर प्रार्थना कर सकते हैं। पुलिस कभी-कभी अनजाने चेहरों और बाहरी लक्षण दिखने वाले ‘संदिग्ध’ मुसलमानों का आधार कार्ड जांचती है। लेकिन मंदिर में मैं कभी भी संदिग्ध नहीं बना। वाराणसी में भटके हुए हिंदू हो सकते हैं, भटके हुए मुसलमान नहीं।

भगवान शिव के विभिन्न रूपों की तरह उनकी यह नगरी भी विविधता का संगीत है। दशाश्वमेध से अस्सी घाट तक दो किलोमीटर के भीतर वास्तुकला, उत्पत्ति, क्षेत्र, धर्म, जाति और रीति-रिवाजों की विविधता मिलेगी। यहां शांत और साफ-सुथरे जैन, निशाद, तुलसी और जानकी घाट हैं। जिनमें नियमित अंतराल पर शौचालय, कूड़ेदान और कपड़े बदलने की जगह है। कपड़े बदलने का एक रूम नदी में तैरता है।

भव्यता की कीमतः काशी कॉरीडोर ने बाहर इसकी छवि बदली लेकिन शहर अब भी बदहाल

भव्यता की कीमतः काशी कॉरीडोर ने बाहर इसकी छवि बदली लेकिन शहर अब भी बदहाल

पांच मिनट चलने पर हार्मनी बुक शॉप है, जिसके मालिक राकेश सिंह ने शहर में पांच दशक बिताए हैं। उन्होंने हाल के बदलावों को देखा है। कोलाहल, तीर्थयात्रियों, पिकनिक मनाने आने वालों और प्रमियों और युवा पर्यटकों की संख्या में वे बढ़ोतरी देखते हैं। अपनी दुकान पर आने वालों से वे पूछते हैं, ‘‘वाराणसी में उन्हें क्या बुलाता है?’’ ज्यादातर दो बातें कहते हैं, ‘‘इंस्टाग्राम पोस्ट और रील्स।’’ उनका कहना है, अब लोग यहां दिल की आवाज से नहीं, नैरेटिव के वशीभूत आते हैं। यह किसी चीज को संदर्भ से हटकर रूमानी बना देने जैसा है।

दूसरी जगहों से आने वाले लोग मोदी की प्रशंसा करते हैं। जिनकी घर-दुकानें खत्‍म हो गईं, उनकी चिंताओं को यह कहकर खारिज कर देते हैं कि ‘‘उन्हें दोगुना पैसा मिला।’’ राकेश सिंह ऐसे लोगों को जवाब देते हैं, ‘‘उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा। यह उन्होंने स्वेच्छा से नहीं किया।” वे मानते हैं विकास समावेशी, संतुलित और समग्र होना चाहिए। आप अतीत को मिटा कर नहीं। जो लोग (भारी) मुआवजे की बात करते हैं, वे वही हैं जिन्होंने अपना घर नहीं खोया है।’’

लेकिन बनारस में कम से कम एक चीज तो है, जो अब तक शाश्वत बनी हुई है, वहां की गलियां। दस फुट से भी कम चौड़ी ये गलियां दोनों तरफ की दुकानों के अलावा, पैदल चलने वालों, साइकिल, स्कूटर, गाय, कुत्ते, सब की भीड़भाड़ से भरी होती हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर से लगभग एक किलोमीटर दूर दालमंडी गलियों का ऐसा ही चक्रव्यूह है। चाय वाला चलते समय चीनी मिट्टी की प्लेटें बजाता है, फेरीवाले ग्राहकों को लुभाने के लिए अपने फेफड़े पर जोर डालता है, ‘‘बीस रुपये में कंगन’’, ‘‘बच्चे के कपड़े’’, ‘‘मेकअप का सामान।’’

स्थानीय लोगों के अनुसार, आजादी से पहले और बाद के दशकों में यह बाजार महफिल था। दुकानों के ऊपर दो मंजिला मकानों से संगीत बज रहा होता था, आलाप, ठुमरी, तबला, शहनाई। दालमंडी ने बनारस घराने के हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों को जन्म दिया- जद्दनबाई, हुस्नाबाई, रसूलनबाई, गौहर जान, सिद्धेश्वरी देवी, निर्मला देवी और कई। लेकिन यह सब 70 के दशक की शुरुआत में बंद हो गया, जब तवायफों को मुश्किल हालात का सामना करना पड़ा और पुलिस ने उन्हें यौनकर्मियों के बराबर मानकर उन्हें बाहर कर दिया।

आज, दालमंडी में उनके अवशेष ढूंढना भी मुश्किल है। मसलन, महान तबला वादक लच्छू महाराज की हवेली अब छोटा-सा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है, जहां मोबाइल एक्सेसरीज बिकती है। लेकिन एक घर है, जो अभी भी खड़ा है, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का। हालांकि उसे ढूंढना आसान नहीं है। दुकानदार हर मोड़ के साथ पतली होती गलियों की ओर इशारा करते हैं। उनके घर (जहां नेमप्लेट पर भारत रतन उस्ताद बिस्मिल्लाह खान लिखा है) के बाहर की कूड़े से बंद हो जाती है। बिजली गुल होने की आशंका वाले शहर में तीसरे पहर ढाई बजे भी स्ट्रीट लैंप जलते मिलते हैं।

बगल में एक 75 वर्षीय दुकानदार, नसीबुल्लाह उर्फ कल्लू बैठते हैं। राकेश सिंह की ही तरह वे बताते हैं कि कैसे कॉरीडोर से ‘सुकून’ छिन ‍गया है, गाडि़यों की भीड़भाड़ बढ़ गई है और विकास को काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास के छोटे-से इलाके तक सीमित कर दिया गया है। उदाहरण के तौर पर वे दालमंडी की गिरावट का हवाला देते हैं, जो गंदगी से भरी है। बाजार में सन्‍नाटा है। यह बनारस इंस्टाग्राम रील्स या यूट्यूब में दिखाई नहीं देता।

अधिकांश भारतीय शहरों की तरह, वाराणसी भी विरोधाभासों से भरा है, पुराना और नया, गंदा और दिखावटी, उपेक्षित और विकसित। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण नए बने घाट ‘नमो’ पर मिलता है, जिसका उद्घाटन करीब दो साल पहले किया गया था। हाथ जोड़े 25 फुट और 15 फुट ऊंची तीन कांस्य प्रतिमाएं उन पर्यटकों को लुभाती हैं, जो वैसा ही पोज कर फोटो खिंचवाना चाहते हैं।

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