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कोटा खुदकशी/नजरिया: नंबर के भंवर में डूबते बच्चे

लाखों अभिभावकों की उम्मीद की नगरी कोटा रोजाना हो रही आत्महत्याओं से अब डराने लगी है
माता-पिता अपने अधूरे सपने को बच्चों के सहारे पूरा करना चाहते हैं। यहां से बच्चों पर दबाव बनना शुरू हो जाता है

पिछले दिनों चार घंटे के भीतर कोटा में दो विद्यार्थियों की आत्महत्या ने मुझे झकझोर कर रख दिया। आखिर यह क्या हो रहा है? विद्यार्थियों के साथ-साथ आखिर उनके अभिभावक समझ क्यों नहीं पा रहे कि किसी एक इम्तिहान के नतीजे पर आंखों में पल रहे सपनों का हिसाब-किताब लगाना संभव नहीं है।

लाखों छात्र और उनके माता-पिता जिन्होंने अंकों के आधार पर अपने सपने बुन लिए थे, वे टेस्ट में आए निराशाजनक नंबर के भंवर में अपनी उम्मीद की कश्ती को डुबो रहे हैं। सच्चाई यह है कि टेस्ट के नंबर आंकड़ों से ज्यादा कुछ नहीं होते। दुनिया के किसी भी टेस्ट में वह ताकत नहीं जो किसी बच्चे के हुनर और काबिलियत का सही मूल्यांकन कर सके।

माता-पिता अपनी खून-पसीने की कमाई, पुरखों की जमीन, सब कुछ दांव पर लगाकर बच्चों को कोटा भेज रहे हैं, इस उम्मीद में कि बस कुछ ही दिनों की तो बात है, फिर सभी का जीवन संवर जाएगा। यदि बेटे को कोटा में एडमिशन दिलवा दिया है, तो बेटा जल्दी ही डॉक्टर या इंजीनियर बनेगा। फिर खुशियों और पैसे की बरसात होगी। समाज में परिवार की प्रतिष्ठा, मान, यश स्थापित होगा। कुछ माता-पिता अनभिज्ञ होते हैं कि उन्होंने अपने बेटे को उस अंधेरी सुरंग में भेज दिया है जहां से वह फिर कभी वापस नहीं आएगा। यह काल्पनिक कहानी नहीं, बल्कि कोटा जाने वाले विद्यार्थियों की सच्चाई है। इस सच्चाई के गवाह बने हैं 2023 में कोटा में आत्महत्या करने वाले 23 विद्यार्थी। दुनिया छोड़ कर जाते हुए ये बच्चे सरकार और समाज के सामने कई प्रश्न छोड़ गए हैं। इस विषय पर बोलना, लिखना और समीक्षा करना आसान है, लेकिन बच्चों के गुजर जाने के बाद उसकी असहनीय पीड़ा का अनुभव उनके माता-पिता के अलावा और कोई नहीं कर सकता। जवान बच्चों की लाश देखकर माता-पिता पर क्या बीत रही होगी, इसका अनुमान लगाना असंभव है।

सवाल उठता है कि ऐसी नौबत आती ही क्यों है। आखिर कोटा या किसी और जगह पढ़ने जाने वाला बच्चा जीवन में इतना निराश, हताश क्यों हो जाता है कि उसे दुनिया के सभी रास्ते बंद दिखने लगते हैं? उम्मीद की कोई भी किरण उसे नजर नहीं आती है। दरअसल, आज के दौर में हमारे देश में कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो किसी का कोई सपना अपना नहीं है। सारे सपने उधार लिए हुए हैं। मोहल्ले में यदि कोई डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस बनता है तो देखा देखी माता-पिता के सपने भी वही हो जाते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बेटा-बेटी भी कुछ ऐसा ही करे। इतना ही नहीं, कई बार माता-पिता अपने अधूरे सपने को बच्चों के सहारे पूरा करना चाहते हैं। धीरे-धीरे उन्हें यकीन होने लगता है कि बच्चे उनके अधूरे सपनों में जरूर रंग भर देंगे। यहां से बच्चों पर दबाव बनना शुरू हो जाता है।

सपने को धरातल पर उतारने के लिए जेब से मजबूत होना जरूरी होता है। कोचिंग सेंटर की भारी-भरकम फीस, हॉस्टल का किराया, तरह-तरह की किताबें और न जाने क्या-क्या। निर्धन परिवार की तो बात छोड़ दीजिए, इंजीनियर, डॉक्टर बनने के लिए कोचिंग करना मध्यमवर्गीय परिवार पर भी बड़ा बोझ बन जाता है। इसके बाद जब सब कुछ बेचकर या उधार लेकर माता-पिता अपने बच्चों का एडमिशन कराते हैं, तो बच्चे बोझ से दब जाते हैं। उनके कंधे पर बोझ होता है कि यदि कामयाब नहीं हुए तो, परिवार खत्म हो जाएगा। रही सही कसर कोचिंग संस्थान पूरी कर देते हैं। कोचिंग संस्थान दिखावे के लिए एडमिशन टेस्ट लेते हैं। उनको केवल बिजनेस टारगेट पूरा करना होता है। वे मां-बाप से मोटी रकम वसूलते हैं और बच्चे का एडमिशन हो जाता है, चाहे वह बच्चा इंजीनियर, डॉक्टर बनने की क्षमता रखता हो या न रखता हो। सब उसे दौड़ लगाने के लिए मजबूर कर देते हैं। पूछने की बात तो छोड़ ही दें, इस बारे में तो कोई सोचता भी नहीं कि छात्र आखिर क्या चाहता है, उसकी रुचि क्या है। बेचारा छात्र बेमन से पढ़ाई में लग जाता है।

कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक चलता है, लेकिन जैसे ही मॉक टेस्ट का दौर शुरू होता है, कभी-कभी कुछ छात्रों के जीवन की उलटी गिनती शुरू हो जाती है। ऐसी कठिन परिस्थिति में बच्चा विषय समझना चाहता है लेकिन उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता। शिक्षक भी आसान सवाल पूछने पर उसका उपहास उड़ा देते हैं। इससे वह दोबारा प्रश्न पूछने से घबराने लगता है। प्रतियोगिता के इस दौर में होशियार बच्चे किसी दूसरे को समय देना नहीं चाहते हैं। वे कमजोर विद्यार्थियों की मदद करने को समय की बर्बादी समझते हैं। तब कमजोर विद्यार्थी चारों ओर से घिर जाता है। अकेला पड़ जाता है। वह घर लौटना चाहता है लेकिन कोचिंग सेंटर फीस लौटाने से मना कर देते हैं। घर से फोन आने और पढ़ाई के विषय में पूछने पर बच्चे पर दबाव की सारी सीमाएं पार हो जाती हैं। अंततः वह जीवन से हार कर खुद को ही समाप्त कर लेता है।

ऐसा नहीं होना चाहिए, हरगिज नहीं क्योंकि ऐसी घटनाओं से न सिर्फ परिवार टूट जाता है, बल्कि समाज में खासकर युवा पीढ़ी में नकारात्मक संदेश जाता है। इसके लिए शुरू से माता-पिता को बच्चों पर दबाव नहीं बनाना चाहिए। माता-पिता को बच्चों से मित्रवत व्यवहार करना चाहिए और समस्या जाननी चाहिए। केवल अपनी सफलता ही जीवन में सब कुछ नहीं होती है। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों पर किसी भी तरह का कोई भी अनावश्यक दबाव न बनाएं। बच्चों को चहकने का मौका दें। उन्हें खिलने दें। उन्हें खुले आसमान में उड़ने दें। आखिर एक ही तो जिंदगी है।

आनंद कुमार

(लेखक बहुचर्चित सुपर 30 के संस्थापक हैं)

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