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शहरनामा/अंबिकापुर

साफ आबोहवा और शांत माहौल वाला शहर
यादों में शहर

वनस्पति की गंध

सरगुजा जिले का मुख्यालय अंबिकापुर अपनी साफ आबोहवा और शांत माहौल के लिए प्रसिद्ध है। स्थानीय लोग इसे मां महामाया की नगरी मानते हैं। अंबिकापुर के पूर्व में प्राचीन महामाया देवी का मंदिर है। महामाया या अंबिका देवी के नाम पर ही मुख्यालय का नामकरण अंबिकापुर हुआ। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस नगर पर मां की ही कृपा है, जो यहां हरियाली और शांति है। शहरी माहौल से दूर यह इलाका हर आने वाले को अपने जादू में बांध लेता है। मध्य प्रदेश से अलग होकर बने नए राज्य छत्तीसगढ़ को 22 वर्ष बीत गए हैं लेकिन अभी भी यहां भीड़ का नामोनिशान नहीं है।

मेघदूत की रचना

अंबिकापुर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से बहुत समृद्ध है। इसके दक्षिण में लगभग 45 किलोमीटर दूर रामगढ़ नाम का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल है। सरगुजा जिले का भी यह सबसे पुराना पुरातात्विक स्थल है। अंबिकापुर-बिलासपुर मार्ग स्थित इस जगह को रामगिरि भी कहा जाता है। रामगढ़ में ही सीता बेंगरा (सीता का निवास) और विश्व की सबसे प्राचीनतम नाट्य शाला है। यहां पत्थर की गुफा में मंच बना हुआ है। किंवदंती है कि वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता यहां कुछ समय ठहरे थे। इसी वजह से पहाड़ का नाम रामगिरि पड़ा। इस पर्वत पर बैठकर एक यक्ष ने अपनी पत्नी के विरह में पत्नी को मेघ पर पत्र लिखे थे, इसी विरह और मेघपत्र पर कालिदास ने मेघदूत की रचना की है।

यहां भी एक शिमला

मैनपाट को हरीभरी वादियों की वजह से छत्तीसगढ़ का शिमला कहा जाता है। यहां एक जगह ऐसी है, जहां जमीन पर उछलने से जमीन हिलती है। इस जगह को जलजली कहा जाता है। यहीं पर एक जगह उल्टा पानी है, जहां पानी का बहाव नीचे से ऊपर की ओर जाता है।

शहर में जंगल

अंबिकापुर शहर इतना खूबसूरत है, मानो खुद प्रकृति ने इस शहर को अपनी गोद में बैठा रखा हो। शहर के पूर्व में महामया पहाड़ इसके मुकुट जैसा प्रतीत होता है। पश्चिम में पिलखा पहाड़ ऐसे विद्यमान है, मानो धरती ने हरितिमा का घाघरा पहन लिया हो, दक्षिण में आंचल जैसी मैनपाट की विशाल पर्वत श्रृंखला फैली हुई है, वहीं उत्तर में खुली हुई धरती मानो दोनों हाथ पसारे हिमालय से आने वाली शीतल हवाओं का आलिंगन कर रही हो। पिलखा पहाड़ से लगी हुई झील, महामाया पहाड़ से लगी हुई बांक नदी पर बना बांकी डैम और मैनपाट से उतरी मछली नदी घुनघुट्टा डैम के रूप में आसपास की धरती को सींचती है। प्रकृति के कई अद्भुत संयोग आपको इस शहर में देखने को मिल जाएंगे। जंगल कट कर बसे शहर तो आपने बहुत देखे होंगे, लेकिन नगर निगम सीमा के अंदर ही 10 एकड़ से अधिक वन क्षेत्र देखना हो तो यहां जरूर आइए।

राजपरिवार का योगदान

सरगुजा रियासत का वैभवशाली इतिहास है, जो आज भी स्थानीय लोगों की जुबान पर है। आजादी के इतने वर्ष बाद भी यहां के लोग राजपरिवार के प्रति कृतज्ञ रहते हैं। क्योंकि यहां के महाराजा ने उस दौर में महिलाओं के लिए अलग अस्पताल बनाया। संपूर्ण छत्तीसगढ़ की इकलौती एक्सरे मशीन को यहां लाने का श्रेय भी सरगुजा रियासत को जाता है। आजादी के पहले ही सरगुजा रियासत ने 85 स्कूलें खोल दी थी। आज मध्यान्ह भोजन की जो परंपरा है, वह सरगुजा रियासत में सैकड़ों वर्ष पहले ही चलती थी। यह ऐसी रियासत थी जहां लोकतंत्र और रेवेन्यू सिस्टम था। लोगों से टैक्स सिर्फ जमीन पर लिया जाता था, फसल पर मालिकाना हक किसान का ही होता था। जैसा रेवेन्यू सिस्टम आज देश में है वैसा ही सरगुजा रियासत में आजादी के पहले भी था। महाराजा अकेले फैसला नहीं लेते थे। वह तब के गौंटिया यानी विधायकों से रायशुमारी करने के बाद ही कोई निर्णय लेते थे। रियासत में असेंबली और हाईकोर्ट था जहां सभी के मतानुसार फैसले होते थे। आजादी की लड़ाई में भी सरगुजा राजपरिवार का योगदान रहा। कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में 52 हाथी रसद (खाने- पीने की सामग्री सहित अधिवेशन में जरूरत की तमाम वस्तुएं) सरगुजा से जबलपुर भेजकर सरगुजा महाराज ने अधिवेशन को स्पांसर किया था।

जनजातीय छाप

खानपान पर यहां जनजातीय असर स्पष्ट देखा जा सकता है। घरों में त्योहारों पर पुआ, गुड़ का अरसा (अनरसा), उड़द दाल की डुबकी बनाई जाती है। पहले घरों में बनने वाली लकरा की चटनी अब कई होटल भी परोसने लगे हैं। एक जंगली बेल के फूल से बनी चटनी बहुत ही स्वादिष्ट होती है। इसे चावल के पेज (सरहर) के साथ खाया जाता है। सरहर पेट के लिए भी बहुत अच्छा होता है। नया धान आने पर घरों में खास तौर पर सरहर खाया जाता है। आजकल भले ही भारत में मोटा अनाज खाने की मुहिम जोर पकड़ रही हो लेकिन इस इलाके में बाजरा, मकई की रोटी रोजमर्रा के जीवन में आम है। मोटे अनाज की रोटी को सुकटी (सुकसी), लकड़ा, मेथी और चने के साग के साथ स्थानीय लोगों के साथ अब पर्यटन के लिए आने वाले भी खूब शौक से खाते हैं।

संजय गुहे

(जिला शिक्षा अधिकारी)

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