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गांधी जयंती/नैतिक राजनीति: देश बार-बार महात्मा को खोजता है

यह देश महात्मा गांधी का है, इस देश को जो भी खोजने निकलेगा, उसे महात्मा गांधी मिल ही जाएंगे
दो संतः शांति निकेतन में रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ महात्मा गांधी और कस्तूरबा

दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल लाने के लिए चला आंदोलन सभी को याद होगा। अगस्त 2011 में अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के आंदोलन का इतना व्यापक असर हुआ था कि तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार को झुकना पड़ा था। तब संसद में विधेयक पास हुआ। उस वक्त की दो बातें बेहद खास हैं। पहली, राहुल गांधी ने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की प्रशंसा की लेकिन भूख हड़ताल को “लोकतंत्र के लिए खतरनाक मिसाल” बताया था। दूसरी, संसद में अन्ना हजारे को महात्मा गांधी की तरह मान्यता देने की बात कही गई थी। इसके लिए बाकायदा विपक्ष के दो दर्जन से ज्यादा सांसदों ने अपनी बात रखी थी और अन्ना हजारे को मौजूदा वक्त का महात्मा बताया गया था।

 इसी तरह 1977 में भी इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी थी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे। तब खुले तौर पर जयप्रकाश नारायण को लेकर कहा जाने लगा था कि जेपी को महात्मा गांधी की तरह मान्यता देनी चाहिए। यह सवाल इतना बड़ा हो गया कि दिल्ली में सरकार बनने के बाद पहली बार जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जेपी से मिलने पटना के कदमकुआं उनके घर पर पहुंचे, तब मुलाकात के बाद सीढ़ियां उतरते मोरारजी देसाई को पत्रकारों ने घेर लिया। पत्रकारों ने पहला सवाल यही दागा, कि इमरजेंसी हटने के बाद नए राष्ट्र का निर्माण हुआ, क्या इसे ध्यान में रखकर नए राष्ट्रपिता की घोषणा हो सकती है, जैसा कि कुछ सांसद भी चाहते हैं? मोरारजी देसाई ने बिना देर किए सीधे जवाब दिया, ‘‘गांधी जी से किसी की तुलना नहीं की जी सकती। महात्मा गांधी भारत के जनमानस में आज भी उसी तरह समाए हुए हैं, जैसे आजादी के आंदोलन के वक्त थे। जब-जब किसी आंदोलन या संघर्ष ने राजनैतिक सत्ता से टकराने की हिम्मत की, तब-तब महात्मा गांधी के अक्स को खोजने में भी देश लगा रहा।’’

यह सोच बोफोर्स कांड के खिलाफ सत्ता छोड़कर राजीव गांधी की सरकार से टकराने वाले वीपी सिंह में दिखी, तो  आजादी के तुरंत बाद नेहरू की सत्ता को चुनौती देते राममनोहर लोहिया के उठाए प्रतिव्यक्ति आय वाले सवाल में भी थी। महात्मा गांधी के अक्स को भारत ने लालबहादुर शास्‍त्री में भी देखा। याद कीजिए 1965 का युद्ध। तब शास्‍त्री जी ने एक वक्त का भोजन छोड़ने से लेकर “जय जवान जय किसान” का नारा लगाया, तो समूचा देश उनके साथ खड़ा हुआ। लोगों ने दान देने के लिए खजाने खोल दिए। देश की खातिर महिलाओं ने अपने गहने दान दे दिए। पूरा देश उसी तर्ज पर एकजुट हो गया जैसे महात्मा गांधी के कहने पर नमक आंदोलन या विदेशी कपड़ों का बहिष्कार या अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे तले एकजुट हो गया था।

ध्यान दीजिए मौजूदा वक्त में जब राहुल गांधी “भारत जोड़ो यात्रा” निकालते हैं, तो सड़कों पर लोकतंत्र नृत्य करते हुए दिखाई देता है। दिल्ली से दूर के इलाकों में भी जिस तरह भारत जोड़ो यात्रा के रंग दिखाई देते हैं, उसके अक्स में भी देश के राजनैतिक टिप्‍पणीकार महात्मा गांधी को देखना चाहते हैं। राहुल गांधी को बार-बार यह कहना पड़ता है कि उन्होंने राहुल को मार दिया है। यानी जो राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर रहा है, वह एकदम अलग है। सवाल दो हैं। पहला, यह देश महात्मा गांधी का है। दूसरा, इस देश को जो भी खोजने निकलेगा, उसे महात्मा गांधी मिल ही जाएंगे। ऐसे में यह सवाल सबसे बड़ा है कि आखिर महात्मा गांधी को बार-बार भारत क्यों खोजता है? जब भी सवाल सत्ता से टकराने का हो तब सत्य और अहिंसा तले आंदोलन के अक्स में महात्मा गांधी के विचार और उनके संघर्ष को ही देखने का प्रयास भारत क्यों करता है? जबकि महात्मा गांधी तो राजनैतिक सत्ता से दूर रहे? यहां तक क‌ि 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, संसद रोशनी में नहाई हुई थी, दिल्ली जगमग थी, तब भी वे दिल्ली से करीब एक हजार मील दूर कलकत्ता की एक अंधेरी कोठरी में खामोशी ओढ़े हुए बैठे थे। यह सवाल उन्हें तब भी परेशान कर रहा था कि आजादी किसके लिए है?

तो क्या महात्मा गांधी राजनीतिक नहीं, बल्कि समाज सुधारक थे? सत्य के प्रयोग में तो महात्मा गांधी देश के उन सवालों से ही जूझते नजर आते हैं जो आज भी मौजूद हैं। राजनीति उन्हीं सवालों के कंधे पर सवार होकर सत्ता पाती है। मसलन, जाति का सवाल आज देश की राजनीति को हांक रहा है। ‘सत्य के प्रयोग’ में महात्मा गांधी ने बाकायदा अपनी जाति के भीतर के उन सवालों को उठाया जो उन्हें विलायत जाने से रोक रहे थे। महज 18 बरस की उम्र में विलायत जाने की खबर ही जाति में खलबली मचा देती है। मोढ़ बनिया जाति से कोई विलायत नहीं गया था। समुद्र पार करने की मनाही थी। धर्म भ्रष्ट होने से लेकर खानपान तक के सवाल थे। लेकिन तब भी महात्मा गांधी लड़ते हैं। जाति से उन्हें बाहर किया जाता है। कोई मदद करने नहीं आता। जाति के दबाव में परिवार के सदस्य भी आर्थिक मदद नहीं करते। तमाम संघर्षों के बीच कैसे महात्मा गांधी विलायत जाते हैं, कानून की डिग्री हासिल करते हैं, लेकिन भारत लौटने पर अपना पेशा ‘खेडुत’ यानी किसान लिखते हैं। यह आज भी पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट की विजिटर बुक में दर्ज है।

क्या समाज सुधारक अक्सर राजनैतिक सत्ता को चुनौती देते हैं? देश में जब-जब किसी भी नेता ने राजनीति में रहते हुए अपनी राजनीति के लिए समाज सुधारने के प्रयोग करना चाहे, जनता ने उसे पसंद किया। या मौजूदा वक्त में सरकार के गवर्नेंस के तौर-तरीकों के खिलाफ कोई खड़ा होता है, तो वह तब तक सफल हो नहीं पाता जब तक जनता से उसका तालमेल न बैठे। कह सकते हैं कि महात्मा गांधी के तमाम प्रयोग आम लोगों के लिए और आम लोगों की भागीदारी से सफल हुए।

मौजूदा वक्त में जीएसटी को लें। जीएसटी गरीबों और रईसों से बराबर वसूला जाता है। राहुल गांधी ने कई मौकों पर यह सवाल उठाया लेकिन यह आंदोलन की शक्ल न ले सका। यहां गुजरात का खेड़ा-सत्याग्रह याद कीजिए। वहां मजदूर-किसानों की मांग इतनी साफ और साधारण थी कि लड़ने की जरूरत होनी नहीं चाहिए थी। कानून यह था कि अगर फसल चार आने या उससे कम हो, तो लगान माफ करना चाहिए। सरकारी अधिकारियों ने चार आने से कम की फसल को भी चार आने से ज्यादा बताया। सरकार ने पंच बैठाने की मांग नहीं मानी। आखिर में सत्याग्रह का रास्ता अपनाया गया। महात्मा गांधी ने आंदोलन की कमान ही लोगों के हाथ में यह कहकर दे दी कि अगर समर्थ लोगों ने लगान जमा कर दिया, तो असमर्थ लोग घबराहट में पड़कर कुछ बेचकर या कर्ज लेकर लगान जमा करा देंगे और दुख उठाएंगे। इससे ‘गरीबों की रक्षा करना समर्थ लोगों का कर्तव्य है’, लोगों में यह संदेश गया और खेड़ा की लड़ाई जीत ली गई।

 मौजूदा वक्त में राहुल गांधी की राजनीति को भी परखें, तो वह कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से बिलकुल जुदा है। राहुल ने नैतिकता का या कहें नैतिक राजनीति का रास्ता पकड़ा है। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी रियल पॉलिटिक्स के मास्टर हैं। चुनावी परिस्थितियां राहुल के प्रतिकूल हैं। यानी कांग्रेस बतौर राजनैतिक दल चुनाव जीत जाए या जनता ही राहुल की राजनीति को आत्मसात कर ले और कांग्रेस को चुनाव जितवा दे, ये दो बिलकुल अलग-अलग रास्ते हैं। दूसरी तरफ भाजपा और नरेंद्र मोदी की राजनीति सत्ता पाने और उसे न खोने की है। दरअसल महात्मा गांधी का अक्स मौजूदा राजनीति में कितना असर और साथ ही भ्रम पैदा करता है, यह गोडसे, सावरकर या महात्मा गांधी का नाम जपने की सियासत से भी समझा जा सकता है। अन्ना आंदोलन के वक्त रामलीला मैदान में महात्मा गांधी की बड़ी-सी तस्वीर लगाई गई थी, लेकिन आम आदमी पार्टी सत्ता में आई, तो सरकारी दफ्तरों में भगत सिंह और बाबा साहेब आंबेडकर की तस्वीर लगाकर सत्ता मथने में जुट गई। ध्यान दीजिए, राजनीति में गोडसे और सावरकर की एन्ट्री के लिए भी महात्मा गांधी को ही साधना पड़ता रहा है।

दरअसल, आजादी के बाद महात्मा गांधी के नाम की मौजूदगी राजनैतिक सत्ता की तिकड़मों में अक्सर नजर आती है। लेकिन सच यह भी है कि देश बार-बार धोखा खाता है। फिर भी बार-बार महात्मा गांधी को ही खोजता है।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(लेखक वरिष्‍पत्रकार और टिप्‍पणीकार हैं। विचार निजी हैं)

 

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