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पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

लोकतंत्र की धज्जियां

आउटलुक के 2 सितंबर अंक में, ‘हसीना का पतन भारत की चिंताएं’ लेख पड़ोसी मुल्क का सूरते हाल बताता है। अभी हाल ही में लगभग छह महीने पहले बांग्लादेश में चुनाव हुए थे। लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को मिली थी। बांग्लादेश की आयरन लेडी के नाम से मशहूर और बांग्लादेश के विकास और आर्थिक उन्नति का चेहरा रहीं शेख हसीना 2009 से बांग्लादेश के प्रधानमंत्री थीं। लेकिन बांग्लादेश के कोर्ट के एक निर्णय से देखते-देखते बांग्लादेश की चुनी हुई सरकार की प्रधानमंत्री को निर्वासन में जाना पड़ा। बांग्लादेश के तख्ता पलट के पीछे कई किरदार हैं, जिनमें छात्रों के साथ, विपक्षी दल, कट्टरवादी, तथा विदेशी ताकतों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। एक तरह से कहा जाए कि सत्ता पलट के बाद बांग्लादेश पाकिस्तान की राह पर चल पड़ा है तो गलत नहीं होगा। शेख हसीना की सरकार भारत के पक्ष में थी, इसलिए इसका असर भारत तक आएगा। स्थिति संवेदनशील है और भारत को सावधान रहना चाहिए।

विजय किशोर तिवारी | नई दिल्ली

अल्पसंख्यकों की मुसीबत

बांग्लादेश में शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद वहां अल्पसंख्यक मुसीबत में हैं। अंतरिम सरकार बनने के बाद भी वहां हिंसा हो रही है। इसका मतलब साफ है कि वहां कुछ लोग हैं, जो चाहते हैं कि देश में अराजक स्थिति बनी रहे। हिंदुओं को हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। भारत को इस मसले को गंभीरता से लेना चाहिए। बांग्लादेश में हसीना और आरक्षण के बहाने हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है। इतने बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यकों पर हमले को लेकर विश्व मीडिया की चुप्पी दिल दुखाती है। भारत में भी कुछ राजनीतिक दल ऐसा दिखा रहे हैं, जैसे बांग्लादेश में कुछ हुआ ही न हो। इस वक्त पार्टी या विचारधारा से ऊपर उठकर हिंदुओं के हित की बात करना चाहिए। भारत सरकार को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से इस विषय में बात करना चाहिए।

सुमेधा त्यागी | मेरठ, उत्तर प्रदेश

दखल दे भारत

आउटलुक के 2 सितंबर अंक में, ‘हसीना का पतन भारत की चिंताएं’ पढ़ा। बांग्लादेश में बड़ी संख्या में मंदिरों और हिंदुओं और अल्पसंख्यकों पर हमले और हिंदुओं की सुरक्षा की कोई व्यवस्था न होने ने भारत सरकार की चिंता को बढ़ा दिया है। आरक्षण विरोध के बहाने शेख हसीना को सत्ता से हटाने के दौरान लगातार हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं। खुद शेख हसीना भारत में शरण लिए हुए हैं। बांग्लादेश का शायद ही कोई ऐसा इलाका है, जहां से हिंदुओं के घरों, दुकानों और मंदिरों को निशाना न बनाया जा रहा हो। चिंता की बात है कि सेना उनकी रक्षा को उतनी तत्पर नहीं दिख रही, जितना उसे होना चाहिए। भारत को बंग्लादेश के हिंदुओं को बचाने के लिए कुछ करना होगा, वरना उनका वैसा ही बुरा हाल होगा जैसा अफगानिस्तान में हुआ और पाकिस्तान में हो रहा है। बांग्लादेश के भयावह दिख रहे भविष्य को देखते हुए वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों की दूरगामी सुरक्षा निश्चित करने के लिए आवश्यक है कि भारत के निकट उनके घनी आबादी वाले क्षेत्र स्थापित किए जाएं। अगर यह नहीं हो पाया तो फिर हम बांग्लादेश में घटती हिंदुओं की संख्या को विलुप्त होते देखेंगे। संभवतः उनकी सुरक्षा में हमारे पूर्वोत्तर के भविष्य की सुरक्षा भी निहित है।

शैलेन्द्र कुमार चतुर्वेदी | फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश

पड़ोस में परेशानी

आउटलुक के 2 सितंबर अंक में प्रकाशित ‘हसीना का पतन भारत की चिंताएं’ में बांग्लादेश की निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना का सटीक विश्लेषण किया गया है। शेख हसीना ने बांग्लादेश पर पिछले 15 वर्षों से बहुत सख्ती से शासन किया। उन्होंने विपक्ष का जबरदस्त दमन किया और यहां तक कि सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को या तो जेल में ठूंस दिया या नजरबंद कर दिया। विपक्ष की मौजूदगी आवश्यक है। विपक्ष के अभाव में सरकारें मनमानी करने लगती हैं। यही शेख हसीना के साथ हुआ। अवामी लीग अकेले चुनाव लड़ी थी। विपक्ष ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था। अब वहां अस्थिरता पैदा हो गई है। बांग्लादेश के अंतरिम सरकार के मुखिया मुहम्मद यूनुस के सामने सबसे कठिन कार्य देश में शांति बहाल करना है। अब यूनुस के लिए मुख्य कार्य नए चुनावों की तैयारी करना है।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

झूठ पर झूठ

आउटलुक के 2 सितंबर के अंक में, ‘त्रासदी का अध्याय साहस के प्रसंग’ भारत में होने वाली प्राकृतिक आपदा को अच्छे से चित्रित करता है। वायनाड में हुई प्राकृतिक आपदा बहुत भयंकर थी। वहां परिवारजन लाशों के लिए घंटों इंतजार करते रहे। ऐसी स्थिति में वायनाड के लोगों का गुस्सा फूटना स्वाभाविक था। अगर पहले से थोड़ी सी भी सावधानी बरती जाती, तो मृतकों की संख्या बढ़ने से रोकी जा सकती थी। लोगों को पहले से चेतावनी देने के मसले पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को झूठा बयान नहीं देना था। मुख्यमंत्री विजयन ने ऐसी किसी भी चेतावनी से इनकार कर दिया। यह ठीक किया। वहां की जिला पंचायत ने बचाव में बहुत अहम भूमिका अदा की। इस तरह की प्राकृतिक आपदा के लिए सरकार को पहले से तैयारी करके रखना चाहिए। एक तो तैयारी पूरी नहीं रहती ऊपर से केंद्र सरकार झूठ भी बोलती है। कम से कम ऐसे मौकों पर झूठ नहीं बोला जाना चाहिए।

शारदा मलिक | नोएडा, उत्तर प्रदेश

आपदा और आफत

देश में कभी न कभी किसी राज्य में प्राकृतिक आपदा आती रहती है। लेकिन सरकार की तैयारी पूरी नहीं रहती है। वायनाड में लगातार बारिश के कारण पेड़-पौधे गिरे और इसी के साथ मकान भी गिर गए। इससे राहत कार्य में देरी हुई। इससे जान-माल का नुकसान भी बहुत हुआ। लगातार जब इतनी भारी बारिश हो रही थी, तब प्रशासन को थोड़ा सचेत रहना चाहिए था। अगर लोगों को समय से निकाल लिया गया होता, तो कई जानें बच सकती थीं। वायनाड का यह हिस्सा वैसे भी भूस्खलन के लिए जाना जाता है। ऐसे में बारिश से पहले जरूरी सावधानियां बरतनी ही चाहिए। सरकार को ऐसा कोई नक्शा बनाना चाहिए कि लोग हर कहीं मकान न बना लें। सरकार को कुछ हिस्सा प्रतिबंधित कर देना चाहिए, ताकि बारिश ऐसा रौद्र रूप धरे, तो लोगों को जल्द से जल्द वहां से निकाला जा सके। (2 सितंबर, ‘त्रासदी का अध्याय साहस के प्रसंग’)

नरेंद्र झा | पटना, बिहार

आपदा की तैयारी

2 सितंबर के अंक में, ‘त्रासदी का अध्याय साहस के प्रसंग’ दुखद है। भारी बारिश के चलते कितने ही लोगों ने जान गंवा दी। आपदा की तैयारी होती, तो शायद कुछ और जिंदगियां बचाई जा सकती थीं। किसी भी आपदा के बाद समय से राहत कार्य किया जाना सबसे ज्यादा जरूरी है। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है, जब बचाव दल के पास समुचित साधन हों। लेकिन ऐसा अक्सर नहीं हो पाता। ऐसा इसलिए है कि राजनीतिक दलों को इतनी फुर्सत ही नहीं होती कि वे इस तरह की ‘छोटी’ चिंताओं के लिए समय निकालें। नेताओं को ऐसी प्राकृतिक आपदाओं पर किसी भी प्रकार की राजनीति नहीं करनी चाहिए। लेकिन हमने देखा कि इस बार भी राहत की समीक्षा करने से पहले केंद्र और राज्य चेतावनी को लेकर उलझ गए। जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे मौके पर आपस में सहयोग कर पीड़ित जनता का साथ मिल कर दुख बांटा जाता। दोनों को ही मिल कर पूर्ण रूप से साथ देना चाहिए। मौसम विभाग को भी अलर्ट रहना चाहिए। यदि वाकई केंद्र ने राज्य को पहले चेतावनी दी थी, तो क्या वह चेतावनी राज्य को सीथे नहीं दी जा सकती थी। बल्कि ऐसी चेतावनियों को तो सार्वजनिक रूप से बार-बार जारी किया जाना चाहिए। जो भी इस पर राजनीति समझ से परे है। इस प्रकार की आपदाओं में जरूरी है कि विस्तृत रूप से आम जनता तक इसकी जानकारी पहुंचे। प्रशासन को इस तरह की आपदाओं में हमेशा तैयार रहना चाहिए। तभी आम जनता का जीवन बच पाएगा।

मीना धानिया | दिल्ली

गोल्डन गर्ल

2 सितंबर के अंक में, ‘पेरिस ओलंपिक मेडल बस सौ ग्राम दूर’ लेख पढ़कर लगा कि पदक का सारा दारोमदार सिर्फ विनेश फोगाट पर ही था, जबकि दूसरे खिलाड़ी भी तैयारी के साथ जाते हैं। सरकार उन पर इतना पैसा लगाती है लेकिन जब वे खाली हाथ लौटते हैं, तो उनसे कोई सवाल नहीं पूछता। ओलंपिक में विनेश पदक की मजबूत दावेदार थीं लेकिन वह पदक नहीं जीत पाईं। फाइनल मुकाबले के कुछ घंटे पहले उनका वजन बढ़ना दुर्भाग्य ही है। वह भी मात्र सौ ग्राम अधिक होना सच में दिल तोड़ने वाला है। इससे विनेश फोगाट का सपना तो टूटा ही, देशवासियों की आशाओं पर भी तुषारापात हुआ है। एक तरह से हाथ आया पदक फिसल गया। इससे सबक लिया जाना चाहिए ताकि भविष्य में किसी अन्य खिलाड़ी के साथ ऐसा न हो। इस ओलंपिक में विनेश ने 53 किलोग्राम के स्वाभाविक भार वर्ग में जगह नहीं दी गई तो 50 किलो भार वर्ग में कुश्ती लड़ना तय किया था। विनेश फोगाट भले ही कोई मेडल नहीं जीत पाईं लेकिन वे देशवासियों के लिए गोल्डन गर्ल से कम नहीं है।

मोहम्मद सिराज | भोपाल, मध्य प्रदेश

 

पुरस्कृत पत्र: संविधान का सहारा

आउटलुक के 2 सितंबर अंक में बहुत जरूरी मुद्दे पर बात की गई है। संविधान को लेकर हो रहे हल्ले के बीच, ‘संविधान गया तो लोकतंत्र नहीं बचेगा’ जैसे लेख अंधेरे में आशा की किरण के समान हैं। इस लेख से संविधान को लेकर तमाम भ्रांतियां भी दूरी होती हैं। दरअसल अब मीडिया में ऐसे विश्लेषण कम ही देखने को मिलते हैं, जिसमें किसी विषय के हर पहलू पर बात की गई हो। हाल ही में संविधान को लेकर इतनी बातें हुईं लेकिन आम आदमी के समझ से परे रहीं। आखिर आम आदमी संविधान की फिक्र क्यों करे या तीसरी बार सरकार बना चुकी पार्टी संविधान के साथ क्या खिलवाड़ कर रही है, यह समझ से परे था। इस अंक को पढ़ने के बाद इससे जुड़ी बातें समझ आईं। ऐसे लेख आम जनता को संविधान जैसे जरूरी विषय से अवगत कराते हैं।

आरजू सैनी|पलवल, हरियाणा

 

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