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पत्र संपादक के नाम

पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर भारत भर से आई प्रतिक्रियाएं

मात्र खानापूर्ति

चुनावी आते ही दो बातों पर पार्टियों का जोर रहता है। एक नारे और दूसरा  घोषणा पत्र। 27 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दे खाली, गारंटी पूरी’ एकदम सही समय पर आई है। राजनैतिक दल जितना हो सकता है, उतना घोषणा पत्रों को सजाते-संवारते हैं। हर चुनाव में वाया घोषणा पत्र ही सियासी उठा-पटक का खेल शुरू हो जाता है। पार्टियां घोषणा पत्र के जरिए ही एक-दूसरे से बढ़त हासिल करने की जुगत लगाने लगती है। इन घोषणा पत्रों को पढ़ कर लगता है जैसे, हर मतदाता भिखमंगा है और यदि सियासी दल उन्हें चावल, लैपटॉप, कपड़े, मुफ्त दवा न बांटे, तो देश्‍ा की जनता कुछ नहीं कर पाएगी। कोई कहेगा हम पांच लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज करा देंगे, तो दूसरा तुरंत उस रकम को आठ लाख कर देगा। कोई कहेगा हम इतने किलो चावल बांटेगे, तो दूसरा चावल के साथ तेल-चीनी-नमक का पैकेज बना देगा। ऐसे बेवकूफी भरे घोषणा पत्रों को फिर मीडिया की सुर्खियां भी मिलती हैं। लेकिन इनसे कोई यह नहीं पूछता कि अनाज उगाने वाले को क्या दोगे। उस मेहनतकश किसान को आपकी कर्ज माफी नहीं चाहिए। उसे समय पर फसल की सिंचाई करना है, उसके लिए पानी चाहिए। पानी देने के लिए उसकी उपलब्धता चाहिए। पानी को खेत में पहुंचाने के लिए मोटर चाहिए। मोटर के लिए बिजली चाहिए। समय पर खेत में डालने के लिए यूरिया चाहिए। जब फसल तैयार हो जाए, तो बिना परेशानी जोड़-जुगाड़ के उसे बेचने की सुविधा और उसकी वाजिब कीमत चाहिए। मुफ्त इलाज तो तब मिले, जब अस्पताल हों। खस्ताहाल, बिना डॉक्टर के चल रहे अस्पतालों में मरीज मुफ्त में क्या करा लेगा। गांव में रहने वाले लोगों को वहां तक पहुंचने की सुविधा चाहिए। लेकिन मुफ्त में जिसे जो मिल रहा है, वह उसे खोना नहीं चाहता और यही वजह है कि कोई कुछ पूछना भी नहीं चाहता। नेता आएंगे, मुफ्त में मत हासिल कर ऐसे हाल पर छोड़ देंगे कि फिर कुछ भी मुफ्त लेने लायक हम बचेंगे ही नहीं।

सतीश धवन | दिल्ली

सियासी दंगल

27 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दे खाली, गारंटी पूरी’ में एक बात तो बिलकुल सही लिखी है कि घोषणा पत्रों ने अपना अर्थ खो दिया है। पर इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता कि दशक भर पहले तक पार्टियों के घोषणा पत्रों को गंभीरता से लिया जाता रहा है, क्योंकि पहले भी इस पर बात होती थी कि किस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में क्या लिखा है। सभी जानते थे कि घोषणा पत्र में जो लिखा है, वह काम यकीनन नहीं होगा। लेकिन अब उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इन घोषणा पत्रों को मतदान की तारीखों के आसपास जारी ही इसलिए किया जाता है कि किसी का ध्यान इस पर न जाए। वैसे पहले इन घोषणा पत्रों को कोई पढ़ता रहा होगा, इस पर यकीन नहीं होता। अब कल्याणकारी योजनाओं का दौर आया ही इसलिए है, क्योंकि मतदाता समझदार हो गया है। अब वह इस हाथ दे उस हाथ ले कि नीति में भरोसा रखता है। यह बड़ा सामाजिक बदलाव है। मुफ्त सामान के बदले ही, समाज कम से कम जागरूक तो हुआ।

पावनी साठे | कोल्हापुर, महाराष्ट्र

नेता ही तय नहीं

आउटलुक के 13 नवंबर के अंक में ‘टिकाऊ एकता’ में सही कहा गया है कि विपक्षी एकता की बात तभी कही जाती है, जब सत्तारूढ़ दल का मुखिया राजनैतिक रूप से ‘मजबूत’ समझा जाता है। मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए गठित महागठबंधन इंडिया में आजकल सहयोगी दल कांग्रेस को लेकर खासे नाराज हैं। बिहार के मुख्यमंत्री एवं गठबंधन के मुख्य सूत्रधार नीतीश कुमार ने हाल ही में कांग्रेस पर हमला बोला। गठबंधन का आरोप है कि कांग्रेस अपनी महत्वाकांक्षा की खातिर सहयोगी दलों को भाव नहीं दे रही है। कांग्रेस को लग रहा है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसे उम्मीद से ज्यादा सफलता प्राप्त होगी और इसी आधार पर वह 2024 के लोकसभा चुनाव में कप्तानी के लिए दावा ठोकेगी। बिहार के मुख्यमंत्री एवं गठबंधन के मुख्य सूत्रधार नीतीश कुमार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी कांग्रेस से नाखुश लग रहे हैं। ममता बनर्जी अपनी पार्टी और अपने प्रदेश से आगे कुछ सोच ही नहीं पाती हैं। उद्धव ठाकरे और शरद पवार भी अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में कांग्रेस की घुसपैठ नहीं चाहते। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने मौन साधा हुआ है। ऐसे में विपक्षी गठबंधन से आखिर क्या उम्मीद रखी जाए।

युगल किशोर राही | छपरा, बिहार

सराहनीय पहल

27 नवंबर के अंक में, ‘आदिवासी वोटों पर निशाना’ अच्छा लेख है। इस वर्ष भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिवस और झारखंड स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके गांव पहुंचे। यह अच्छा संदेश है। आदिवासियों को भी लगना चाहिए कि कोई उनकी सुध ले रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने बिरसा जयंती के अवसर पर जनजातीय गौरव दिवस पूरे देश में मनाने का फैसला लिया है। भले ही यह कुछ समय बाद होने जा रहे झारखंड विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हो, भले ही इससे आदिवासी समाज में वोट बैंक की राजनीति का कार्ड खेला जा रहा हो लेकिन यह सराहनीय पहल है। समय-समय पर आदिवासियों समुदाय को पता चलते रहना चाहिए कि वे भी भारत के ही नागरिक हैं।

मीना धानिया | नई दिल्ली

सौहार्द की धरोहर

27 नवंबर के अंक में, एक युद्धग्रस्त चट्टानी गांव की यादें मन की गहराइयों में उतर गई। पहाड़ों में प्राचीन चट्टानों के बीच बसी बस्तियों को देखना कैसा सुखद अनुभव होता होगा। रॉक हाउस के बारे में जान कर अच्छा लगा। इससे पहले हुंदरमान ब्रोक गांव के बारे में कहीं पढ़ा नहीं था। कम ऊंचाई की छत, छोटे दरवाजे और छोटी खिड़की वाले ये चट्टानी घर संग्रहालय गांव में तब्दील हो गए हैं। यह कितनी सार्थक और सराहनीय पहल है। तीन घरों में ‘अनलॉक हुंदरमान- म्यूजियम ऑफ मेमोरीज’ बन गया है। इस मेमोरी के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को पता चलना चाहिए। यहां रखे हथगोले, बंदूक की गोलियां, पुराने जूते, कपड़े, विभाजित परिवारों के पत्र, छर्रे, सेना के पुराने हेलमेट, पुराने घरेलू सामान, गांव के हस्तशिल्प और मुद्रा जैसी हर चीज के पीछे एक कहानी है। कोई चाहे तो वहां खड़े होकर कितनी कल्पना कर सकता है। यह गांव तो भारत और पाकिस्‍तान दोनों के लिए सौहार्द की धरोहर है।

इति श्रीवास्तव | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

उजड़ी कहानियां

‘हुंदरमान ब्रोक’ के बारे में 27 नवंबर के अंक में पढ़ा। क्या खूब लेख है। एक गांव जो उजड़ गया लेकिन वहां की हर चीज यादों में बस गई। सड़क दिखता सुरू नदी के पार का प्राचीन सिल्क रूट। लद्दाख के पर्यटन विभाग के बनाए हुंदरमान एलओसी व्‍यू पाइंट। यहां जो सामान सहेजा रखा है, उसकी यादें हैं हीं लेकिन जो सामान नहीं है, उसकी कहानियां भी कम नहीं होंगी। इसलिए ही तो इस गांव का नाम ही है, ‘अनलॉक हुंदरमान (म्‍यूजियम ऑफ मेमोरीज)। एलओसी पर स्थित करगिल में उजाड़ पुगरी बस्ती है, जो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत के अधीन आ गई। इस बस्ती की नए सिरे से खोज युद्धग्रस्त गांव की विभिषिका से रू-ब-रू कराती है।’ इस गांव की यादों को इसलिए सहेजना चाहिए कि लोग जान सकें युद्ध किसी के लिए जीत हो सकती है लेकिन वहां को लोगों के लिए यह हमेशा हार और तबाही ही होती है।

प्रबल सिंह हांडा | देवघर, झारखंड

बाजी पलट दी

इस बार हो रहे क्रिकेट विश्वकप को शमी की बॉलिंग के लिए याद किया जाएगा। 27 नवंबर के अंक में, ‘संघर्षों से निखरा जादुई शमी’ लेख उनकी शोहरत की पूरी कहानी को तफसील से बयान करता है। मोहम्मद शमी यूं ही नहीं यहां तक पहुंच गए हैं। अभी की दिख रही शोहरत के पीछे उनका लंबा संघर्ष रहा है। बेनामी के लंबे दौर के बाद अब वे चमके हैं। इस शोहरत के पीछे उनके पिता की भी मेहनत है। एक वक्त था, जब उन्हें उत्तर प्रदेश की अंडर-19 टीम में जगह नहीं मिली थी और आज एक वक्त है, जब वे भारतीय टीम की जीत का अनिवार्य पक्ष बन गए हैं। अगर उनके पिता शमी को कोलकाता न ले गए होते, तो भारतीय क्रिकेट टीम का यह सितारा आज न जाने कहां होता। सौरभ गांगुली की सिफारिश पर शमी को बंगाल की रणजी टीम में खेलने को मिला। उन्होंने कई असफलताएं झेलीं, पत्नी के साथ पारिवारिक झगड़े में फंसे लेकिन इन तमाम परेशानियों के बीच भी अपना लक्ष्य नहीं भूले। यही मेहनत रंग लाई और अब भारतीय टीम उनके बिना मैदान में उतरने के बारे में सोच भी नहीं सकती। यह जज्बा हो, तो सफलता खुद कदमों में आती है। मोहम्मद शमी ने इसे साबित किया है।

प्रेरणा भार्गव | झूंझुनू, राजस्थान

पुरस्कृत पत्र: घोषणा-पत्र से आगे

‘मुद्दे खाली, गारंटी पूरी’ शीर्षक से आउटलुक की 27 नवंबर की आवरण कथा पढ़ कर लगा कि घोषणा पत्र पूरी तरह बेमानी हो चुके हैं। नेता हर सभा में कोई न कोई घोषणा करते हैं और जनता भी उन्हें उस सभा से बाहर निकलते ही भूल जाती है। पहले विकास की रफ्तार धीमी थी। भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं था। इसलिए कोई भी काम होने में बहुत समय लगता था। तब तक दूसरा चुनाव आ जाता था इसलिए घोषणा पत्र जरूरी था। अब बोले गए शब्द रिकॉर्ड हो जाते हैं, वीडियो के रूप में वादे सुरक्षित रहते हैं। इसलिए अब चुनाव घोषणा पत्रों से बहुत आगे निकल चुके हैं। बेहतर हो कि कोई पार्टी बिना घोषणा पत्र के चुनाव लड़े और कागज बचाने की नई पहल की शुरुआत करे।

सरोज वर्मा | महू, मध्य प्रदेश

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