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फिल्म/नजरिया: शिक्षक शाहरुख खान

एक व्यावसायिक मगर शिक्षाप्रद फिल्म जिसने युवाओं को सवाल पूछने के लिए प्रेरित किया
सवाल पूछती फिल्मः जवान ने इस दौर को परिभाषित किया

प्रश्न पूछना, प्रश्नों पर विचार करना, उनके उत्तर ढूंढना जैसे बौद्धिक काम और कौशल स‌िखाना शिक्षा की जिम्मेदारी है। अपने देश में शिक्षा की ज्यादातर संस्थाएं इस जिम्मेदारी से बचती हैं। करोड़ों बच्चे कई वर्ष स्कूल में बिताकर भी एक अच्छा सवाल पूछना नहीं सीख पाते। कई के मन में अच्छे-पैने सवाल उभरते हैं, पर वे उन्हें पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। स्कूल और कक्षा का माहौल प्रश्न उठाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। सवाल पूछने वाले लड़के-लड़कियां प्रायः डांट खाते हैं, स्कूल में भी, घर में भी। कुछेक शिक्षक प्रश्न सुनने को तैयार लगते हैं, पर वे भी ऐसे प्रश्न सुनने के आदी होते हैं जो कक्षा में पढ़ाई गई बातों को कुछ और स्पष्ट किए जाने की मांग करते हैं। किसी बात के सच को तर्क के घेरे में लाने वाले प्रश्न हमारी कक्षाओं में कम ही सुनने को मिलते हैं।

इस नजरिये से देखें तो जवान एक शिक्षाप्रद फिल्म ठहरती है, यद्यपि उसका प्रचार एक थ्रिलर के रूप में हो रहा है। करीब 70 साल पहले बनी जागृति की तरह जवान भी एकदम साफ-सुथरा संदेश देती है। जागृति के कई मशहूर गानों में से एक था, आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की। आज जब हम सिनेमाहाॅल के वातानुकूलित अंधेरे में आराम से बैठे जवान देख रहे होते हैं, तो हिंदुस्तान की झांकी के बीच शाहरुख खान के अभिनय और शब्दों से सहम जाते हैं। पुरानी फिल्मों की तरह पौने तीन घंटे चलकर खत्म होते समय जवान अपना आखिरी संदेश देती है, “सवाल पूछो।” यह संदेश यदि शिक्षा दे सकी होती तो शायद जवान बनाने और देखने की जरूरत न पड़ती। जागृति के अंत में भी एक संदेश था, “सपनों के मनमस्त हिंडोलों में न झूलो।” सत्तर साल उस संदेश को भूलने के लिए पर्याप्त साबित हुए, तभी जवान की नौबत आई है।

जवान के एक दृश्य में शाररुख खान

जवान के एक दृश्य में शाररुख खान

आजादी के पहले दशक की कई प्रसिद्ध फिल्मों में राज कपूर और नरगिस गांव से शहर तक फैली गरीबी और शोषण की व्यवस्था का मर्म समझाते थे। जिस भारत की झांकी जवान दिखाती है, वह चिकनी सड़कों और चमकती कारों वाला आधुनिक भारत है जिसमें किसान आत्महत्या करते हैं और अस्पताल में भर्ती शिशु ऑक्सीजन के अभाव में मर जाते हैं। हीरो की दोहरी भूमिका में शाहरुख खान विकास के तीखे अन्तर्विरोध दिखाने में संघर्षशील स्त्रियों की मदद लेते हैं। सूचनाओं और समाचारों के यथार्थ का प्रयोग भी यह फिल्म कुछ इस तरह करती है, जैसे किसी की गर्दन पकड़कर स्मार्टफोन से हटाकर सामने होती दुर्घटना की तरफ मोड़ी जाए। हीरो के साथ दर्शक भी सवालों से टकरा-टकरा कर कहानी में आगे बढ़ता है। मर्सिडीज खरीदने के लिए कर्ज की दर ट्रैक्टर के मुकाबले कम है अथवा बड़ी कंपनियों का टैक्स माफ हो जाता है, पर कर्ज में डूबा किसान अपनी जान खुद ले लेने की लाचारी महसूस करता है, ऐसे संवाद सुनते हुए हमारे मन में शैलेन्द्र और साहिर के कई पुराने गाने फूट पड़ते हैं।

देश के प्रति चिंतित होना कभी देशप्रेम की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति माना जाता था। धीरे-धीरे उस परंपरा ने पलटी खाई और अमूर्त महानता का गर्व ही गर्व रह गया। सवाल पूछने की जरूरत मिट गई और सही-गलत का फर्क वाट्सऐप की अनंत धारा में डूब गया। इस परिवर्तन से उपजी शांति को जवान निर्ममता से तोड़ती है, पर दर्शकों को बुरा नहीं लगता, वरना वे सुबह से शाम तक दिखाई जा रही इस अनोखी फिल्म की तरफ बेतहाशा क्यों दौड़ते। कॉलेज-विश्वविद्यालय जिस काम के लिए जाने जाते थे वह एक फिल्म कर रही है, यह बात शिक्षा के इतिहास में पहली बार नहीं घटी है। एक ही फर्क है इस बार- जागृति से लेकर तारे जमीं पर और यहां तक कि थ्री इडियट्स पर भी मनोरंजन कर माफ कर दिया गया था, पर यह इनायत जवान पर नहीं बरसी।

(लेखक प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री और टिप्पणीकार हैं)

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