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प्रथम दृष्टि: बीते दौर का हैंगओवर

अब महज बाहुबल के सहारे चुनाव नहीं जीता जा सकता। उम्मीदवारों के चयन के दौरान इस बात को उन दलों को समझना होगा जो लगता है, पुराने दौर के हैंगओवर से अब तक उबर नहीं पाए हैं
चुनाव में अभी भी बाहुबलियों का राज

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार में पिछले कुछ वर्षों में विकास हुआ है। सिर्फ राजधानी पटना ही नहीं, प्रदेश के कई शहर अब ‘आधुनिक’ दिख रहे हैं। बिजली, सड़क और पानी की समस्या बहुत हद तक दूर हो गई है। स्वास्‍थ्य, शिक्षा और कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में भी सुधार हुआ है। इसके बावजूद, कुछ चीजें जस की तस हैं, खासकर इस चुनावी मौसम में। बाहुबलियों की बढ़ती पूछ देखकर लगता है कि सियासत में कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं।

खबर आई कि राज्य के एक उम्रदराज बाहुबली ने आनन-फानन शादी रचाई, ताकि नई-नवेली दुल्हन को लोकसभा चुनाव में राज्य के प्रमुख दल राजद का प्रत्याशी बनाया जा सके। बाहुबली लंबी सजा काटकर कुछ महीने पहले निकले हैं और कानूनी रूप से फिलहाल चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हैं। जाहिर है, ‘जनता की सेवा’ के लिए उन्हें अपनी जगह ऐसा ‘प्रॉक्सी’ उम्मीदवार चाहिए जिसकी बदौलत वह अपने क्षेत्र में रसूख बरकरार रख सकें। हालांकि बिहार में चुनाव के पहले ‘चट मंगनी पट ब्याह’ के ऐसे उदाहरण पहले से मौजूद हैं। 2011 में बिहार विधानसभा के एक उपचुनाव में सत्तारूढ़ जनता दल-यूनाइटेड ने कथित बाहुबली को यह कहकर टिकट देने से इनकार दिया था कि उसके खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं। दरअसल उस बाहुबली की मां पार्टी की विधायक थीं जिनकी मृत्यु हो गई थी। तब पार्टी ने उसके लिए एक रास्ता निकाला ताकि विधानसभा सीट उसके परिवार में ही रहे। युवा बाहुबली को फौरन शादी करनी पड़ी। इसके बाद उसकी पत्नी को पार्टी का टिकट मिल गया। वे न सिर्फ विधायक बनीं, बाद में संसद में भी पहुंचीं।

बिहार में ऐसे दृष्टान्तों की कमी नहीं रही है। पिछले कुछ वर्षों में कई सजायाफ्ता बाहुबलियों ने अपनी पत्नियों को अपनी जगह चुनावों में उम्मीदवार बनवाया ताकि उनकी क्षेत्र में पैठ बनी रही। उनमें से कई ने तो प्रदेश में मंत्री पदों की शोभा भी बढ़ाई। दरअसल नवंबर 2005 में नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के बाद चुनावी राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने के लिए ऐसे बाहुबलियों के खिलाफ स्पीडी ट्रायल की व्यवस्था करवाई थी। उस समय प्रदेश में ऐसे अनेक सांसद-विधायक थे जिनके खिलाफ वर्षों से आपराधिक मुकदमें लंबित थे, लेकिन वे चुनाव दर चुनाव आसानी से अपनी जीत दर्ज कराते आ रहे थे। नीतीश सरकार के पहले कार्यकाल में इनमें से कई बाहुबली नेताओं को दो वर्ष से अधिक की सजा सुनाई गई जिसके फलस्वरूप उन्हें चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया गया। लेकिन, उनमें से कई बाहुबलियों ने पत्नी को ही चुनावी मैदान में अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाया और उनमें से कई को जीत भी हासिल हुई।

इस बार के चुनाव में यह उम्मीद थी कि बिहार में स्थितियां बदलेंगी और प्रदेश की सभी पार्टियां सिर्फ स्वच्छ छवि वालों को ही उम्मीदवार बनाएंगी। हाल के वर्षों में एक आम धारणा बनी थी कि राज्य में बाहुबली नेताओं के दिन लद गए हैं क्योंकि जनता के समर्थन की अपेक्षा आज के दौर में सिर्फ वैसे उम्मीदवार कर सकते हैं, जो विकास की सियासत करते हैं, बाहुबल की नहीं। लेकिन, फिलहाल जो स्थिति नजर आ रही है, उससे तो यही लगता है कि बाहुबलियों का दमखम कम से कम उनके दलों की नजर में बरकरार है। दरअसल, राजद के लिए यह चुनाव करो या मरो वाली स्थिति का है। पांच वर्ष पहले आम चुनाव में पार्टी राज्य की 40 लोकसभा सीट में से एक भी जीतने में सफल नहीं हो पाई थी, जो उसकी स्थापना के बाद से सबसे बुरा प्रदर्शन था। एनडीए ने उस चुनाव में 39 सीटें जीती थीं और इस बार वह वैसे ही प्रदर्शन की उम्मीद लेकर मैदान में उतरी है।

जाहिर है, राजद बिहार में किसी भी सूरत में 2019 के चुनाव परिणाम की पुनरावृत्ति नहीं चाहती। शायद बाहुबलियों के बल पर चुनाव जीतना उसी दृष्टि से बनाई गई रणनीतियों में से एक है। लेकिन क्या ऐसी रणनीति सफल होगी, खासकर जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए विकास के मुद्दे पर चुनावी समर में उतर रही है। हाल के वर्षों में राजद के युवा चेहरे तेजस्वी प्रसाद यादव ने पार्टी की छवि बदलने के बारे में कई बार अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है लेकिन पार्टी सुप्रीमो लालू प्रसाद को शायद लगता है कि बाहुबली नेता अभी भी चुनावों में वैसी ही करामात दिखाने में सक्षम हैं जैसी नब्बे के दशक में दिखाया करते थे। सवाल यह है कि क्या 2024 में हालात वैसे ही हैं जो ढ़ाई दशक पहले थे? क्या प्रदेश के बाहुबलियों के पास अभी भी वैसे ही संसाधन और सत्ता का संरक्षण है, जिसकी बदौलत वे चुनावों में जीत हासिल करते थे। शायद नहीं।

पिछले एक दशक में मतदाताओं की ऐसी नई पीढ़ी सामने आई है, जो उस दौर से परिचित नहीं है जब बाहुबलियों का चुनाव जीतना सामान्य घटना समझी जाती थी। अब महज बाहुबल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। उम्मीदवारों के चयन के दौरान इस बात को उन दलों को समझना होगा, जो लगता है प्रदेश की 1990 की राजनीति के हैंगओवर से अब तक उबर नहीं पाए हैं।

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