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13 मई 2024 · MAY 13 , 2024

चमकीला/मतांतर: खतरनाक है सबको कलाकार कहना

यह बहस अश्लीलता और सभ्यता की है, जिसके लिए लकीर खींचना वाकई जरूरी है
चमकीला फिल्म में दिलजीत और परिणिति

एक औसत-सी फिल्म पर हंगामा है बरपा कि इसकी कहानी में गुदगुदाने वाले अश्लीलता के रेशे इंद्रियों को जकड़ने के लिए काफी हैं। पंजाब का एक गायक, जिसने ‘तू मुझे चाट ले मैं चीनी हूं तेरी’ से भी बढ़कर गाने लिखे, गाए, प्रसिद्धि पाई और पंजाब की गायिकी के इतिहास में सबसे ज्यादा कैसेट बिकने का रिकॉर्ड बनाया। किसी खांटी पंजाबी से पूछिए, तो वह यही कहेगा, ‘‘चमकीले का कोई तोड़ नहीं।’’ ऐसा नहीं है कि चमकीले (पंजाबी कभी चमकीला नहीं कहते) ने पहली बार स्त्रियों के अंग विशेष का तरन्नुम में वर्णन किया, पंजाबी लोकगीत भी कान की लवें गर्म करने को काफी हैं। जीजा-साली, देवर-भाभी से बढ़ कर यहां चाची और भतीजे को लेकर एकदम मसालेदार गीत हैं, इतने तीखे कि दिमाग भन्ना जाए। समाज का खुलापन ऐसा कि बहू का ससुर के साथ रहना बतंगड़ नहीं बनता है। तो फिर चमकीले ने ऐसा क्या गलत कर दिया? चमकीले ने गाने बनाए, गाए क्योंकि लोगों को यही पसंद था।

पहले भले ही वह ट्रक ड्राइवरों की पसंद रहा हो, लेकिन शायद वह इकलौता कलाकार था, जिसे आज की पीढ़ी भी सुनती है। मरने के बाद भी उसकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई। क्यों, इसका जवाब शायद पंजाबियत ही दे सकती है। लेकिन मूल प्रश्न यही है कि समाज में लोकप्रिय हो जाने से क्या हर गलत बात वैध हो जाती है। चमकीले के साथ भी शायद वही है। उसकी अश्लीलता ‘कला’ है क्योंकि वह लोगों की ‘पसंद’ है। अगर बात कलाकार होने की ही है, तो फिर दादा कोंडके, सनी लियोनी को भी कलाकार मानना ही चाहिए। कलाकार के संघर्ष की बात है, तो आइटम नंबर के अश्लील बोल पर भद्दे ढंग से नाचने वाली हर लड़की कलाकार है। और यदि प्रशंसकों की तादाद पैमाना है, तो दादा कोंडके की फैन फॉलोइंग भी कोई कम नहीं थी। उनके चाहने वाले लाखों में थे। उनकी फिल्मों का जनता बेसब्री से इंतजार करती थी।

दरअसल यह बहस फिल्म के अच्छे या बुरे होने पर नहीं है। यह बहस अश्लीलता और सभ्यता की है, जिसके लिए लकीर खींचना वाकई जरूरी है। पंजाबी के कुतर्क में भोजपुरी को खड़ा कर देने से चमकीले के गाने को जस्टिफाई वही लोग कर रहे हैं, जिन्हें बाइक या पुरुष अंतरवस्त्रों के विज्ञापन में लड़की को खड़ा कर देने से आपत्ति होती है। हां अगर चमकीला फिल्म पर बात करना ही है, तो इसमें जो नहीं दिखाया गया है, उस पर बात की जानी चाहिए। यह फिल्म एक तथ्य को खूबसूरती से छुपा गई, वो है कास्टिज्म यानी जातिवाद। जातिवाद से फिल्म की कहानी का आवरण झीना पड़ जाता, उसकी चमक खो जाती। दलित जाति का एक लड़का, जट वर्चस्व वाले समाज में ताल ठोक कर गाता है। जाहिर है, सिर्फ अपनी जाति की बदौलत वह आगे नहीं आया था। हर तबके का आदमी उसके पीछे था। पंजाब को भले ही गुरुओं की धरती कहा जाता हो, लेकिन जातिवाद की जड़ों ने यहां डेरों को जन्म दिया है। निचली जातियों के गुरुद्वारे अलग हैं। उन्हें जट गुरुद्वारों में जाने की इजाजत नहीं थी। इम्तियाज कलाकार का संघर्ष दिखाते हैं लेकिन जाति की वजह से भोगी गई हिकारत को गुम कर जाते हैं। जाति एंगल डालने से शायद उन्हें ‘एजेंडा फिल्म’ सूची में आने का खतरा मंडराता दिखा हो।

पूरी फिल्म में वे हर दूसरे-तीसरे वाक्य में, बाद के लगभग हर सीन में ‘लोगों को पसंद है’ का राग आलापते नजर आते हैं। लोगों को तो हत्या करना, चोरी करना भी पसंद है। तो क्यों न इन कामों को भी खुला छोड़ दिया जाए। एक पल को मान लिया जाए, चमकीले की जगह कोई और ले लेता। जैसे चमकीले ने ली किसी और की। उसकी हत्या न होती तब? तब तो कोई मामला ही नहीं बनता। वह संगत के सामने वह पूछता है, ‘‘क्या मैं अकेले ऐसे गाने गाता हूं? पंजाब के सारे कलाकार यही गा रहे हैं। पर नाम हमेशा मेरा आगे आ जाता है।’’ तो समझ ही जाना चाहिए कि बाकी के जो ऐसे ही गाने गा रहे थे, उनकी जाति क्या थी। 

क्या हो जाता यदि इम्तियाज एक दलित कलाकार के सवर्ण समाज में घुसपैठ की कहानी परदे पर पुरजोर ढंग से दिखाते। इतने जोरदार ढंग से कि अश्लील गानों को उसका संघर्ष ढक लेता।  तब निश्चित तौर पर फिल्म पर ऐसा तफसरा न हो रहा होता। तब हो सकता था, ओटीटी पर यह फिल्म आती और चली भी जाती। पंजाब तब भी ऐसा था, अब भी ऐसा है। तब दीवार के किसी छेद से कमरे में झांक कर गाने लिखे जा रहे थे। अब छेद बड़ा होकर खिड़की बन गई है। इस खिड़की में बंदूकें हैं, नशे का गुणगान है, दुनिया को कदमों में झुका लेने की ख्वाहिशें हैं। लेकिन बिक्री के आधार पर यदि किसी लोकप्रिय गायक को कलाकार मान लिया जाए, तब यह उसके अश्लील गानों से भी ज्यादा खतरनाक है। यह उन कलाकारों का अपमान है, जो साधना करते हैं। कलाकार शब्द पवित्रता से भले ही भरा हुआ न हो लेकिन इसमें मेहनत की सुगंध जरूर है। हां हम चमकीले के दलित होने पर होने वाली दुश्वारियों के साथ खड़े हैं। लेकिन दलित का संघर्ष डाउन मार्केट थीम है। यहां कोशिश तो हर गलत को ‘लोगों की पसंद’ की आड़ में वैध साबित करने की है। चमकीले की कहानी अपवाद थोड़ी है।        

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