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पुस्तक समीक्षा: यह संग साथ जरूरी है

किताब में शामिल कई संस्मरण हमारे समय और हमारी परंपरा के बड़े लेखकों से जुड़े हैं
स्मृतियों से गुंथी दिलचस्प किताब

आज जिंदगी जितनी आसान और रंगीन हो गई है, जीना उतना ही फीका, मुश्किल और इकहरा होता जा रहा है। पिछले दिनों वरिष्ठ लेखक-प्रकाशक अशोक अग्रवाल की किताब ‘संग-साथ’ को पढ़ते हुए यही खयाल आते रहे। यह किताब उन हिंदी लेखकों पर है जो जिंदगी को अपनी शर्तों पर साधने की कोशिश करते रहे। इन तमाम लोगों के साथ अशोक अग्रवाल के निजी संबंध रहे। स्मृतियों से गुंथी यह किताब बहुत दिलचस्प है।

किताब में शामिल कई संस्मरण हमारे समय और हमारी परंपरा के बड़े लेखकों से जुड़े हैं। अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर जैसे दिग्गजों को नए सिरे से और नई रोशनी में देखने का एक सुख है। यह बात भी किंचित विस्मय में डालती है कि हापु़ड़ में रहते हुए अशोक अग्रवाल हिंदी के कितने और कितनी तरह के लेखकों से घनिष्ठ रहे और उनके पास संस्मरणों का कैसा जीवंत खजाना है।

अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर या विनोद कुमार शुक्ल जैसे मूर्धन्यों को तो हम फिर भी जानते हैं, ज्ञानेंद्रपति, पंकज सिंह और नवीन सागर को भी पहचानते हैं। इन्हें कुछ और करीब से और नए कोण से देखने का अवसर मिलता है, लेकिन मेरी तरह के पाठक के लिए नई सूचना और अंतर्दृष्टि देने वाले वे संस्मरण हैं जिनके केंद्र में आज की तारीख में कुछ कम चर्चित शख्सियतें हैं- छायाकार अशोक माहेश्वरी, कथाकार विश्वेश्वर या प्रकाश प्रियदर्शी, अमितेश्वर या सुमन श्रीवास्तव आदि। इनको पढ़ते हुए जितना आप इन लोगों को जानते हैं और इस पर कुछ चकित होते हैं कि कितनी जल्दी हमने अपने कुछ मेधावी विशिष्ट लोगों को भुला दिया, उतना ही उस समय को, उसकी सरलता को और उसके संकटों को भी पहचानते हैं- सबसे ज्यादा उस संवादधर्मिता को जो बहुत सारे पुलों के टूटने के बाद भी उनको सहज भाव से जोड़ लिया करती थी। प्रकाश प्रियदर्शी और विश्वेश्वर का बीहड़ व्यक्तित्व इस किताब को कुछ ठहर कर पढ़ने की मांग करता है। ये लोग ऐसे बोहेमियन क्यों थे? क्या वे अपने समय की उपज थे? क्या वे अपने हालात के मारे थे? क्या वे जिंदगी के व्याकरण में न समाने की कीमत चुका रहे थे? क्या सफलता और समृद्धि से भी कोई बड़ी चीज़ उन्हें खींचती थी और किसी शून्य में धकेल देती थी? क्या वे अपने संकटों का निर्माण करते थे और अपने दुखों से शक्ति ग्रहण करते थे?

यह खयाल भी आता है कि अगर ये ऐसे नहीं होते तो क्या इनका लेखन उतना उत्तप्त और अंतर्दृष्टिपूर्ण, अनुभव-समृद्ध होता, जैसा वह हो पाया? किताब में न ये सवाल हैं, न इनके जवाब हैं, लेकिन एक गहरी हूक और वेदना इन्हें पढ़ते हुए होती है। 

इन संस्मरणों को इस तरह लिख पाना संभव नहीं होता अगर अशोक अग्रवाल के पास बहुत अच्छी स्मृति, बहुत गहरी अंतर्दृष्टि और बहुत समृद्ध भाषा नहीं होती। यह बहुत सहज, पानीदार और प्रवाहमयी भाषा है- दृश्यों को सजीव करती हुई, ध्वनियों को जीवंत करती हुई, चुप्पियों और सन्नाटों को उनकी एकांतिकता भंग किए बिना व्यक्त करती हुई।

एक उदास सा खयाल आता है- कहां चले गए ये सारे लोग। उन दिनों के मेले-ठेले उजड़ चुके, रेलगाड़ियां अपने गंतव्य पूरे कर चुकी हैं, समय का स्टेशन उजाड़ पड़ा है। अब नए लोग हैं, नई भूल-चूकें हैं, नई शिकायतें-मोहब्बतें हैं और नए जमाने की नई कहानियां हैं। किताब याद दिलाती है कि सब कुछ बीत जाता है, फिर भी हमारे भीतर बना रहता है- किसी दूसरे रूप में प्रकट भी होता रहता है।

यह किताब ऐसे समय आई जब अशोक अग्रवाल बेहद बीमार रहे। अब फिर से वे जिंदगी का सिरा थामने में कामयाब हैं। इस जीवट का स्रोत कहां है, यह किताब उसे भी बताती है।

 

संग साथ

अशोक अग्रवाल

प्रकाशकः संभावना

मूल्य: 300 रुपये

पृष्ठ: 224

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