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पुस्तक समीक्षा: विमर्श के शिखर से

कविराज दक्षिण एशियाई राजनीति व बौद्धिक इतिहास के विद्वान हैं
सुदीप्त कविराज पर किताब

आधुनिक भारतीय विचारक शृंखला के अंतर्गत हिलाल अहमद के संपादन में सुदीप्त कविराज पर प्रकाशित किताब उनके बौद्धिक योगदान से परिचय कराती है। कविराज दक्षिण एशियाई राजनीति व बौ‌द्धिक इतिहास के विद्वान हैं जो फिलहाल कोलंबिया विश्विद्यालय में पढ़ा रहे हैं। यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखे उनके लेखों का अनुवाद-संचयन है।

हिंदी संस्कण की भूमिका में वे कहते हैं कि भारत में अकादमिक विमर्श को एक कठिन समस्या का सामना करना पड़ता है। पहले की पीढ़ी के लेखकों ने भारतीय भाषाओं में बौद्धिक काम किया। इन भाषाओं की बौद्धिक संस्कृतियों के बीच सीधे आदान-प्रदान बहुत कम हुआ, अधिकांश अंग्रेजी के माध्यम से हुआ। आजादी के बाद सार्वजनिक अकादमिक चर्चा में भारत के कोने-कोने से अकादमिकों ने भागीदारी की, लेकिन विडंबना यह रही कि इस विचार-विमर्श की भाषा अंग्रेजी थी।

इस किताब के 42 पृष्ठों में हिलाल अहमद सुदीप्त कविराज का बौद्धिक परिचय तो देते ही हैं, उनके लेखों और निबंधों को समझने की कुंजी भी देते हैं। किताब के चार खंड और नौ अध्याय हैं। मार्क्सवाद, ग्राम्शी और भारत पहला खंड है। दूसरे खंड में उपनिवेशवाद की सैद्धांतिकी और भारत-विमर्श पर गंभीर चर्चा है। 'भारत की कल्पना' आलेख को समझने के लिए हिलाल अहमद कहते हैं कि राष्ट्रवाद की सैद्धांतिकता के पुनरावलोकन की सबसे बड़ी चुनौती भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापित कहानी है। वे कहते हैं कि कविराज राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद-विरोध में फर्क करते हैं। उपनिवेशवाद-विरोध, भारत के विचार और राष्ट्रवाद की विधिवत शुरुआत से कहीं पहले की परिघटना है। सुदीप्त कविराज का यह लेख सबाल्टर्न स्टडीज के सातवें खंड में प्रकाशित हुआ था। यह उनके श्रेष्ठ लेखों में है। आज के दौर में इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर जो शोर है, उस पर उनके कहे को यहां उद्धृत करना उचित जान पड़ता है। कविराज साफ-साफ कहते हैं कि यह विश्वास करना अव्यावहारिक है कि नए प्रकार का इतिहास सफलतापूर्वक पुराने इतिहास को त्याग देगा। अंत में कटाक्ष के स्वर में वे कहते हैं कि इतिहास-लेखन का व्यवसाय भी इतिहास का एक हिस्सा है।

'आधुनिकता और लोकतंत्र की भारतीय कहानी' खंड के तीन अध्याय हैं। आधुनिकता के संशोधनवादी सिद्धांत की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए वे इस लेख में कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई थी कि भारतीय समाज पर इसका दावा, इसके कानूनी संयंत्र, शासन की तकनीक और इसके दीर्घकालिक उद्देश्य पुराने साम्राज्यवादी राज्यों से गुणात्मक रूप से अलग थे। इसलिए उन्नीसवीं सदी के मध्य से भारत का राजनीतिक इतिहास आधुनिक राज्य की कहानी के अलावा किसी अन्य संदर्भ में नहीं लिखा जा सकता है।

चौथे खंड में एक ही अध्याय है और उसका शीर्षक है– साहित्य और सियासत का भारतीय तसव्वुर। इस लेख में महाभारत जैसे महाकाव्य को धर्म और धार्मिकता की परिधि से निकालकर इस कथा का दार्शनिक मूल्यांकन किया गया है। सुदीप्त मानते हैं कि आधुनिक गल्प अपने सबसे सशक्त रूप में दुनिया की ऐसी छवि प्रस्तुत करता है जो यथार्थ की तरह असल होती है। इसके ठीक विपरीत, महाभारत जैसी महाकाव्यात्मक कृतियां यथार्थ से आगे का संधान करती हैं। यह सच है कि एकबारगी जब कोई महाभारत पढऩा शुरू कर देता है तो पाठ की क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच हम बार-बार पाठ की ओर लौटते हैं। इस प्रकार, इस रचना को पढ़ना ऐसा कर्म बन जाता है जो कभी खत्म नहीं होता। यह बात सुदीप्त कविराज के लेखों और निबंधों पर भी लागू होती है। किताब के संपादक ने हर लेख के पहले संपादकीय टिप्पणी की है। यह टिप्पणी जरूरी उत्प्रेरक की भूमिका ‌निभाती है। सुदीप्त कविराज हमारे समय की महत्त्वपूर्ण बौद्धिक उपस्थिति हैं जिन्हें समझने की हमें कोशिश करनी चाहिए।

आधुनिक भारतीय विचारक: सुदीप्त कविराज

हिलाल अहमद

प्रकाशक | सेतु प्रकाशन

पृष्ठ: 510 | मूल्य: 1399

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