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पुस्तक समीक्षाः स्त्री नहीं समाज का संघर्ष

ये लेख दलित स्त्रियों की पीड़ादायक, संघर्ष पूर्ण यात्रा को बहुत विश्वसनीय ढंग से सामने रखते हैं
स्त्री मुक्ति और यूटोपिया

मुक्ति भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न

बदले भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न

वरिष्ठ कवि अरुण कमल की ये पंक्तियां पुस्तक के मूल को बहुत अच्छे से परिभाषित करती है। साहित्य-समालोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॉ. राजीव रंजन गिरि द्वारा संपादित यह पुस्तक स्त्रीवाद पर एक सारगर्भित संकलन है।

संपादकीय में ही राजीव रंजन साफ कर देते हैं, कि विचारों में बहस की गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए, जिससे स्त्री मुक्ति की किसी भी बहस की धार कुंद न हो। संकलन स्त्री-विमर्श के अब तक के सफर, उससे जुड़े बहुत से मुबाहिसों, हिंदी साहित्य में स्त्रीवाद के वितान की विस्तार से बात करता है। पुस्तक में विमर्श पर कुछ साक्षात्कार-संवाद और एक महत्वपूर्ण परिचर्चा भी शामिल है, जो पाठको को पूरे परिदृश्य की यात्रा पर ले जाती है। ‘हाशिये का हाशिया’ नाम से खंड में दलित स्त्रियों पर भी मानीखेज लेख हैं। ये लेख दलित स्त्रियों की पीड़ादायक, संघर्ष पूर्ण यात्रा को बहुत विश्वसनीय ढंग से सामने रखते हैं।

स्त्री-विमर्श पर केंद्रित किताबों की भीड़ में यह संकलन कुछ बातों की वजह से एक ज़रूरी पाठ बनकर उभरता है। पहली और सबसे अच्छी बात यह कि अगर स्त्री-विमर्श और स्त्रीवाद पर किसी का अब तक कोई विशेष अध्ययन न रहा हो, तो भी यह किताब आम पाठक का हाथ थामकर इस बहस की अब तक की यात्रा के ज़रूरी पड़ावों पर इत्मीनान से उस दुनिया में ले जाती है, जहां जाने का रास्ता अब तक दिखाई नहीं पड़ता था। दूसरी बात, किताब तयशुदा वैचारिक बहसों पर सिमटने के बजाय विरोधी और विपरीत विचारों को टटोलती चलती है। तीसरा, संकलित सामग्री में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि समस्याओं पर बात करते हुए अगंभीर, गैरजरूरी निष्कर्षों पर पहुंचने की जल्दबाजी से पाठक को बचाया जाए।

कोई झूठे दिलासे न देकर भी यह किताब स्त्री-मुक्ति के बारहा नामुमकिन से दिखते विराट स्वप्न को हर बाधा, हर चुनौती से जूझने के लिए एक मुक़म्मल भरोसा देने की कोशिश करती है। सात अध्यायों में बंटी इस पुस्तक में पितृसत्ता और स्त्री की आजादी पर लंबे लेख हैं। जहां कानून का पक्ष हैं, तो नैतिक और अनैतिक की बहस। जहां पुरुष सत्ता का विखंडन हैं, तो स्त्री विमर्श के द्वंद्व भी। ‘यूटोपिया का यथार्थ’ अध्याय में प्रमोद कुमार ‘पावर वुमन और स्त्री शक्ति’ शीर्षक के आलेख में पावर वुमन की प्रचलित परिभाषा और अवधारणा पर चोट करते हैं। आखिर ये पावर वुमन कौन है और कहां से आई है। वे भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय लड़कियों के लिए बनी ‘रोल मॉडल’ की चर्चा करते हुए भारतीय ग्लैमर जगत की सेलेब्रिटियों के बरअक्स सामाजिक काम में नाम कमाने वाली स्त्रियों तक पहुंचते हैं।

पुस्तक के लेख संदर्भों और उदाहरण से यह स्थापित करते हैं कि स्त्री मुक्ति का यह संघर्ष सिर्फ महिलाओं का नहीं बल्कि एक सामाजिक संघर्ष भी है। लेखों से यह बात सामने आती है कि जब बदलाव पूरी दुनिया में दिखेगा, तभी महिलाओं की स्थिति में बदलाव आएगा। और यह बदलाव निश्चित तौर पर स्थायी बदलाव होगा। बाजार के बढ़ते प्रभाव से कोई नहीं बच सका है। लेकिन इस प्रभाव में सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं ही हुई हैं। उन्हें भी बाजार ने एक उत्पाद के रूप में देखना शुरू कर दिया है। ऐसे में यह समझना कठिन होता जाता है कि स्त्री का स्वावलंबन कहीं ऊपरी तौर पर दिखाई दे रहा भ्रम तो नहीं है।

यह पुस्तक इन्हीं सवालों के ठोस जवाब खोजने की कोशिश करती है। पितृसत्तात्मक समाज में यौनिकता के ख़तरे भी इस पुस्तक की चिन्ता का विषय हैं, जिन पर बात होनी ही चाहिए।

स्त्री-मुक्ति: यथार्थ और यूटोपिया

संपादकः राजीव रंजन गिरि

प्रकाशक | अनुज्ञा बुक्स

पृष्ठः 328 | मूल्यः 499

 

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