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27 नवंबर 2023 · NOV 27 , 2023

स्वर स्मृति/कुमार गंधर्व: संगीत के गंधर्व

भारतीय शास्त्रीय संगीत के अमर गायक कुमार गंधर्व का यह साल जन्मशताब्दी वर्ष है
कुमार गंधर्व पर एकाग्र

भारतीय शास्त्रीय संगीत के अमर गायक कुमार गंधर्व का यह साल जन्मशताब्दी वर्ष है। साहित्य, कला और संस्कृति की समृद्धि के लिए कार्यरत रजा फाउंडेशन ने कवि-चिंतक अशोक वाजपेयी के संपादन में दो भाग में कुमार गंधर्व पर एकाग्र प्रकाशित किया है। इसमें समवेत से लेकर स्वरमुद्रा तक की लंबी फेहरिस्त है।

स्वरमुद्रा के दो जिल्दों के सात खंड हैं, पहले खंड में कुमार गंधर्व के लिखे को स्थान दिया गया है। इन लेखों से शास्त्रीय संगीत का एक आधुनिक परिदृश्य उभरता है। वे मानते थे कि शास्त्रीय संगीत के अनुशासन की सीमा के बाहर लोक संगीत का एक अद्भुत संसार है। वे यह भी मानते थे कि हमारे शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति इसी लोक संगीत से हुई। लोगों ने लोकगीतों के साहित्यिक पक्ष पर भले ध्यान दिया हो, लेकिन सांगीतिक पक्ष पर उपेक्षा ही बरती। कुमार जी का लेख अभिजात कलावती लता मंगेशकर पर है। अशोक वाजपेयी कहते हैं कि जो लोग छह सौ पृष्ठों में भी स्वर-साम्राज्ञी पर कायदे की बात नहीं कर पाते, उन्हें कुमार जी ने महज सात पृष्ठों में कह दिया है। लता जी के बारे में वे लिखते हैं कि उनका तीन-साढ़े तीन मिनट का एक गीत और किसी खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढ़े तीन घंटों की महफिल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक जैसा है। वह शास्त्रीय गायन में रंजकता के विरोधी नहीं थे, बल्कि उसके सरस होने के लिए इसे जरूरी मानते थे।

स्वरमुद्रा के दोनों अंकों को मिलाकर लेखक, अनुवादकों की संख्या सौ से ऊपर है। उनके समकालीन संगीतज्ञ हों, शिष्य हों या संगीत के रसिया श्रोता, सभी ने एक स्वर में उन्हें महान शास्त्रीय गायक माना है। वे परंपरागत राग-विस्तार, बंदिशें और प्रयोगात्मकता से सुरुचि-संपन्न थे। वे आजीवन शास्त्रीय संगीत को रूढ़िबद्धता से मुक्ति दिलाने के प्रयास में लगे रहे।

जीवन भर संगीत के मूल तत्वों की खोज में रहे कुमार गंधर्व के गायन में लोक संगीत और शास्त्रीयता का समन्वय साफ-साफ दिखता है। संपादकीय में अशोक वाजपेयी कहते हैं कि जिस तरह अधिकांश रागों के रचयिता अनाम रहे आए हैं वैसे ही लोक संगीतकार भी अनाम रहे हैं। शास्त्र और लोक के बीच आवाजाही बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही अवरुद्ध हो गई थी, इस अवरोध को दूर करने की चेष्टा कुमार गंधर्व ने की। वे आगे कहते हैं कि स्वयं भौतिक रूप से कठिन जीवन संघर्ष में फंसे कुमार जी के लिए संगीत लगभग शब्दशः जिजीविषा थी। वे जीने के लिए गाते थे और गाने के लिए जीते थे। वे अपने जीवन में मृत्यु के बहुत नजदीक पहुंचे थे। इसलिए उनका बाद का संगीत नश्वरता और काल की छाया में रचा-गया संगीत है।

विजय शंकर मिश्र तो यहां तक कहते हैं कि गंधर्व जैसा उपाधि सूचक विशेषण युक्त संबोधन देवलोक के गायकों के लिए प्रयुक्त होता था। हिंदू, बौद्ध और जैन आदि ग्रंथों में भू-स्वर्ग के गायकों के लिए गंधर्व और नर्तकियों के लिए अप्सरा शब्द का प्रयोग हुआ है। शिवपुत्र की औपचारिक संगीत शिक्षा नौ वर्ष की उम्र में प्रोफेसर बी.आर. देवधर के विद्यालय में तब शुरू हुई जब वह कुमार गंधर्व बन गया था। संस्कृतज्ञ राधावल्लभ त्रिपाठी को अन्य गायकों की तुलना में कुमार जी इसलिए दिलचस्प लगते हैं कि वे जितना ध्यान गायकी पर देते हैं, उतना ही गीत के अर्थ को समझने और उसकी कविता को सुर में ढालने पर देते हैं। पंडित रविशंकर के लेख, देवधर स्कूल जो उनके आत्मकथा का छोटा-सा हिस्सा भर है, में वे कहते हैं कि कभी चमत्कार था कुमार गंधर्व। और अधिकतर ऐसे चमत्कृत करने वाले प्रतिभाशालियों का जो हश्र होता है, वही उसका भी हुआ। शिल्प की दृष्टि से विकास नहीं कर सका। उसके बाद उसे टी.बी. हो गई। बीमारी के बाद लेटे-लेटे उसने बहुत दिनों तक विचार किया। बाद में एक गायक के रूप में कुमार का नया जन्म हुआ। फिर वह एक बहुत बड़ा गवैया हो गया।

मुकुंद लाठ ने अपने लेख में जिक्र किया है कि कुमार जी ने राग गाए ही नहीं, बनाए भी हैं–जैसे गांधी मल्हार। कम लोगों को पता है कि 44 वर्षीय कुमार गंधर्व ने 2 अक्टूबर 1969 को राजघाट पर महात्मा गांधी के जन्मदिन पर अखिल भारतीय शताब्दी-समारोह में गांधी-मल्हार गाया था। उसके बोल थे,  तुम हो धीर हो रे/संजीवन भारत के विराट हो रे।।/आहत के आरत के सखा रे/पावन आलोक अनोखे हो रे।।

हिंदी से भी ज्यादा उन पर मराठी में लिखा गया। कुमार जी की जीवनसंगिनी वसुंधरा कोमकली बकुल के फूल के बारे में लिखते हुए कुमार जी के स्वभाव का जिक्र करती हैं। मेरे फूल ताजा थे, कुछ में मिट्टी लगी थी, मैंने सबको धो भी दिया था, लेकिन कुछ फूलों के किनारों में हल्‍की-सी कुम्हलाहट थी, जिससे उनका रंग थोड़ा तांबई हो गया था, जबकि कुमार का हर फूल इस एकदम सफेद था। उन्होंने फूल ही ऐसे चुने थे। इन शब्दों में कुमार जी का पूरा व्यक्तित्व स्पष्ट हो जाता है।

पीयूष दइया ने सुरुचि और कल्पनाशीलता के साथ स्वर मुद्रा के इस अंक का संपादन किया है। साठ साल से भी ज्यादा के समय में कुमार जी के बकुल के सफेद फूल चुनने के स्वभाव के अनुरूप संपादक पीयूष दइया ने इस अंक में लेख जुटाए हैं। यह संकलन संगीत साधकों के लिए ही नहीं, आम पाठकों के लिए भी संग्रहणीय है।

स्वरमुद्रा (कुमार गन्‍धर्व पर एकाग्र)

संपादक पियूष दईया

प्रकाशक | सेतु

पृष्ठः 560,570 | मूल्य ` 400 (दोनों जिल्द)

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