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पुस्तक समीक्षाः रोजनामचा एक कवि पत्नी का

कहते हैं, किसी के घर में ताक-झांक नहीं करनी चाहिए। लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह दूसरे के घर में...
पुस्तक समीक्षाः रोजनामचा एक कवि पत्नी का

कहते हैं, किसी के घर में ताक-झांक नहीं करनी चाहिए। लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह दूसरे के घर में झांकने की कोशिश जरूर करता है। रोजनामचा एक कवि पत्नी का साहित्यकार उद्भ्रांत की पत्नी उषा शर्मा की डायरी है। किसी साहित्यकार की गैर साहित्यिक पत्नी कैसा अनुभव करती है। उसे किन स्थितियों से दो चार होना पड़ता है। वह कैसे घर के मोर्चे के साथ अपने पति को भी संभालती है। उसकी संवेदनाएं कैसी हैं। कैसे वह अपने पति के साथ हर स्थिति में अचल खड़ी नजर आती हैं, यह इस रोजनामचे को पढ़ने से पता लगता है। इसे रोजनामचा कह सकते हैं, लेकिन यह है नहीं, क्योंकि इसे रोज नहीं लिखा गया। शायद ही एक सप्ताह की लगातार डायरी इसमें हो। कभी दो चार दिन की लगातार है, तो कभी बीच में एक दो-चार दिन का अंतराल है। कभी दस-पंद्रह दिन और एक महीने का भी। इसमें 20-1-77 से (उद्भ्रांत से विवाह के एक साल बाद से) 28-12-83 तक की डायरी है। किसी-किसी दिन की डायरी तो चार छह लाइन की ही है और कुछ दो तीन पेज की। यह कोई साहित्यिक रचना नहीं है। यह एक पत्नी का अपनी पीड़ा को साफ-साफ कह देना भर है। इसमें नितांत घरेलू बातें हैं। आम भारतीय घरों में होने वाले देवर-भाभी और सास-बहू के टकराव की बातें हैं। आर्थिक संकट की आहट है, तो वह उससे कैसे निपट रहीं हैं, यह भी है। छोटी-छोटी खुशियां हैं, तो मन का कठिन द्वंद्व भी जिसमें वह जान देने तक की सोच लेती हैं।

डायरी के पन्ने एक बंडल में लेखक पति को मिलते हैं। हो सकता हो और पन्ने रहे हों, जो कालक्रम में नष्ट हो गए हों। बेटी मना भी करती है लेकिन वह इसे प्रकाशित करने का निर्णय ले लेते हैं। उद्भ्रांत अपनी आत्मकथा में जितनी साफगोई से बातें रखते हैं उनके लिए इस डायरी को अप्रकाशित रखना कठिन होता।

रोजनामचा एक कवि पत्नी का

उषा शर्मा

संपादक: उद्भ्रांत

रश्मि प्रकाशन

पृष्ठः 105

मूल्यः 200 रुपये

समीक्षकः रामधनी द्विवेदी

 

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