Advertisement

बिहार: काले कानून से नीतीश के लिए मुसीबतों का दौर, सुशासन बाबू ने दिया तेजस्वी को मौका

 “विवादास्पद सशस्त्र पुलिस कानून और कई पुलिसिया सर्कूलर से कमजोर नीतीश ने मुसीबतों को बुलावा दिया,...
बिहार: काले कानून से नीतीश के लिए मुसीबतों का दौर, सुशासन बाबू ने दिया तेजस्वी को मौका

 “विवादास्पद सशस्त्र पुलिस कानून और कई पुलिसिया सर्कूलर से कमजोर नीतीश ने मुसीबतों को बुलावा दिया, विपक्ष को मिला मौका”

पिछले वर्ष बिहार विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व वाले महागठबंधन से कांटे की टक्कर मिलने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लगातार चौथी बार सरकार बनाने में भले ही सफलता पा ली हो, लेकिन इस कार्यकाल की शुरुआत से ही उन्हें आक्रामक विपक्ष का सामना करना पड़ रहा है। नवंबर में घोषित चुनाव परिणामों में सत्तारूढ़ एनडीए को बहुमत से मात्र तीन सीट अधिक मिलने के बाद यह तो संभावना जताई जा रही थी कि इस बार विरोधी दल सदन के भीतर और बाहर सरकार को कड़ी चुनौती देंगे, लेकिन जो कुछ विधानसभा में पिछले दिनों देखा गया, उसकी आशंका शायद किसी को न थी, स्वयं नीतीश कुमार को भी नहीं, जिनके पहले के तीन कार्यकाल में कमजोर विपक्ष ने कभी प्रभावी भूमिका नहीं निभाई। 

दरअसल, सरकार ने विधानसभा में बजट सत्र के दौरान 23 मार्च को बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 बिना विपक्ष के पास कराया, जिसके तहत बिहार पुलिस की विशेष इकाई, बिहार सैन्य पुलिस (बीएमपी) को नए नामकरण के साथ विशेष अधिकारों और शक्तियों से लैस करके एक नया आधुनिक पुलिस बल बनाया जा सकेगा, ताकि उसे हवाई अड्डों, बिजली संयंत्रों या बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर जैसे महत्वपूर्ण स्थानों या प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी जा सके। इसमें एक प्रावधान यह है कि सशस्त्र बल किसी को संदेह या विश्वास के आधार पर बिना वारंट गिरफ्तार कर सकता है।

लेकिन, विधेयक सदन में पारित हो, उसके पहले ही बखेड़ा खड़ा हो गया और विरोधियों को एक बड़ा मुद्दा मिल गया। सदन में विपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव ने सरकार पर बिहार में पुलिसिया राज स्थापित करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि राज्य पुलिस अब किसी को भी बिना किसी कारण के सिर्फ 'विश्वास' के आधार पर जेल भेज देगी। सरकार के तमाम स्पष्टीकरण के बावजूद यह विरोध इतना बढ़ा कि उस दिन सदन में ऐसे दृश्य देखने को मिले, जो अब तक के इतिहास में कभी नहीं देखा गया था। विपक्षी सदस्यों ने विधानसभा अध्यक्ष को उनके चैंबर के बाहर निकलने नहीं दिया, ताकि वे सदन की कार्यवाही न चला सकें और बिल को पारित ही न किया जा सके। सदन के भीतर भी माइक तोड़ी गई और कुर्सी-टेबल पटके गए। बात इतनी बढ़ गई कि सत्ता पक्ष के कुछ मंत्रियों और विपक्षी सदस्यों के बीच गुत्थम-गुत्था की नौबत आ गई। स्थिति को बेकाबू होता देख सदन के भीतर पुलिस बुलानी गई, जिसके बाद विपक्ष के सदस्यों को जबरन बाहर निकाला गया। इस दौरान महिला विधायकों समेत कई विधायकों के साथ पुलिस के दुर्व्यवहार के कई विडियो भी सामने आये, जिससे सियासी तापमान और बढ़ गया। बाद में, विपक्ष की अनुपस्थिति में ही विधेयक पारित कर दिया गया।

मुख्यमंत्री के कहा कि उन्होंने अपने संसदीय जीवन में सदन के भीतर ऐसे दृश्य कभी नहीं देखे थे। नीतीश ने कहा कि वे 1985 में पहली बार विधायक बने और उसके बाद लोकसभा के लिए चुने गए। पिछले चार बार से वे बिहार में सरकार में हैं लेकिन “इस तरह का दृश्य आज तक विधानसभा में नहीं देखा गया।” उन्होंने कहा, “अफसोस और दुख हो रहा था। राजनीति करने वाले स्वतंत्र हैं अपनी बात रखने को और कुछ करने को, लेकिन मैं इस विरोध को समझ नहीं पाया। डिस्कस कीजिये, अपनी बात रखिये, लेकिन अफवाह के लिए कोई जगह नहीं।”

हालांकि तेजस्वी का कहना है कि नीतीश ऐसा "काला कानून" ले आए हैं, जो कभी अंग्रेजी शासन के दौरान लाया गया था। राजद नेता ने कहा, “लोकतंत्र के मंदिर में पुलिस को बुलाया गया और महिला विधायकों को बाल पकड़ कर घसीटा गया। पुरुष विधायकों को लात-घूंसे से पीटा गया। यह सब कुछ सरकार के निर्देश पर किया गया।”

सरकार की दलील है कि यह कानून सिर्फ महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है और इसके प्रावधान सामान्य पुलिस के लिए लागू नहीं होते हैं। यह भी कहा गया की कई राज्यों में ऐसा कानून है। बोधगया मंदिर में 2013 में हुए आतंकी हमले का हवाला देते हुए नीतीश ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति ऐसे स्थानों पर फायरिंग करने लगता है तो क्या वहां तैनात सुरक्षाकर्मी उसे गिरफ्तार करने के लिए वारंट का इंतजार करेगा? (हालांकि भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) में ऐसे प्रावधान पहले से हैं इसलिए भी विपक्ष इस विशेष व्यवस्‍था पर शंका जाहिर ‌कर रहा है)। यह भी बताया गया कि सशस्त्र बल किसी को गिरफ्तार करके उसे संबंधित क्षेत्र के थाने को सौंप देगा और उसे वजह भी बतानी पड़ेगी।

लेकिन सवाल यह है कि अगर इस प्रस्तावित कानून का दायरा सिर्फ उन्हीं प्रतिष्ठानों तक सीमित है, तो यह विपक्ष के लिया इतना बड़ा हथियार कैसे बन गया? नीतीश को लगता है कि विधेयक के बारे में कई अफवाहें इसलिए फैलीं क्योंकि इसके प्रावधानों के बारे में मीडिया को पहले नहीं बताया गया। उन्होंने यह भी शंका जाहिर की कि कहीं पुलिस या गृह विभाग में काम कर रहा कोई व्यक्ति ही अफवाहें तो नहीं फैला रहा है, जो इससे खुश नहीं है? कारण जो भी हो, विधानसभा में हंगामा के बाद बिहार पुलिस और गृह विभाग के आला अधिकारियों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बिल के विभिन्न प्रावधानों के बारे में विस्तार से स्पष्टीकरण देना पड़ा। उन्होंने स्पष्ट किया कि नए कानून के तहत सामान्य पुलिस किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। यह कानून सिर्फ उस परिसर में लागू होगा, जहां विशेष सशस्त्र बल की तैनाती होगी।    

यह प्रशासनिक चूक हो या सोची-समझी राजनीति, यह शैली नीतीश के पहले के तीन कार्यकाल से मेल नहीं खाती। नवंबर 2005 में सत्ता में काबिज होने के बाद नीतीश सरकार ने कई नए कानून बनाए, लेकिन किसी भी विधेयक को सदन में पारित करने में उन्हें कोई जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। पहले कार्यकाल में नीतीश ने अपराधी पृष्ठभूमि वाले सांसदों और विधायकों के खिलाफ वर्षों से लंबित मुकदमों की रोजाना सुनवाई के लिए स्पीडी ट्रायल और फास्ट-ट्रैक कोर्ट की स्थापना की पहल की, जिसकी बदौलत मोहम्मद शहाबुद्दीन, सूरजभान सिंह, आनंद मोहन सिंह जैसे बाहुबलियों को सजा मिली और वे चुनाव लड़ने के अधिकार से वर्षों के लिए वंचित हो गए।

इसी तरह, नीतीश सरकार एक ऐसा कानून भी लाई, जिसके तहत भ्रष्टाचार का आरोप झेल रहे सरकारी मुलाजिमों की चल-अचल संपत्ति उनके खिलाफ चल रहे केस की सुनवाई के दौरान ही जब्त की जा सके। नीतीश का मानना था कि ऐसे सरकारी कर्मचारी पैसे की ताकत की बदौलत अपने बचाव के लिए महंगे से महंगे वकील की सेवाएं ले लेते थे और उनका मुकदमा साल दर साल चलता रहता था। इस कानून के बनने से बिहार में एक पूर्व पुलिस महानिदेशक और सचिव स्तर के एक आइएएस अधिकारी के आवास को जब्त कर लिया गया और उनमें बच्चों के लिए स्कूल खोल दिए गए।

 नीतीश सरकार ने कई ऐसे कानून बनाए, जिन्हें प्रगतिशील समझा गया और जिनके कारण अपराधियों और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों पर नकेल कसी जा सकी। अपने तीसरे कार्यकाल में नीतीश ने शराबबंदी लागू की, जो तमाम खामियों के बावजूद आज भी लागू है।

ऐसे कानूनों से उन्हें ‘सुशासन बाबू’ कहा जाने लगा। लेकिन, वर्तमान कार्यकाल में कम समय में ही उनके उठाये अधिकतर कदम विवाद को बुलावा दे रहे हैं। इस वर्ष फरवरी में बिहार पुलिस के एक सर्कुलर पर बड़ा विवाद हो गया, जिसमें कहा गया कि विरोध प्रदर्शन जैसे “आपराधिक कृत्य’’ में पकड़े जाने पर सरकारी नौकरी या बैंक लोन नहीं मिलेगा। जनवरी में पुलिस ने मंत्रियों, सांसदों, विधायकों या अधिकारियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर झूठा पोस्ट करने पर कार्रवाई करने का सर्कुलर जारी किया था, जिसकी चौतरफा आलोचना हुई।

राजनैतिक टिप्पणीकार मानते हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद बदले परिदृश्य में नीतीश की स्थिति पहले वाली नहीं रही। सहयोगी दल भाजपा के ‘बड़े भाई’ के रूप में उभर कर आने के बाद अब वे सर्वशक्तिमान मुख्यमंत्री नहीं रह गए हैं। विपक्ष की बढ़ी ताकत भी उनके लिए परेशानी का सबब है। इस दौरान तेजस्वी विपक्ष के मजबूत चेहरे के रूप में उभरे हैं। अब इसकी संभावना कम दिखती है कि नीतीश भविष्य में अगर भाजपा से इतर राजनीति करते हैं तो राजद उन्हें तेजस्वी के स्थान पर महागठबंधन के नेता के रूप में स्वीकार करे, जैसा लालू प्रसाद यादव ने 2015 के विधानसभा चुनावों के पहले किया था।

हालांकि दोहरी चुनौती के बावजूद नीतीश अपने खोए सियासी वजूद को फिर से पाने की कोशिश में जुटे हैं। उनकी व्यक्तिगत छवि और विकासोन्मुखी राजनीति का संकल्प उनकी सबसे बड़ी सियासी जमा-पूंजी रही है, लेकिन विवादास्पद कानूनों से इसमें फिलहाल इजाफा होता नहीं दिख रहा है।

 

नीतीश कुमार 

“राजनीति करने वाले स्वतंत्र हैं अपनी बात रखने को और कुछ करने को, लेकिन मैं इस विरोध को समझ नहीं पाया”

नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री

 

तेजस्वी यादव

“लोकतंत्र के मंदिर में पुलिस बुलाई गई। महिला विधायकों को घसीटा गया। पुरुष विधायकों को लात-घूंसे से पीटा गया”

 तेजस्वी यादव, विपक्ष के नेता

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad