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क्या लिंगायत फिर कर्नाटक का राजनीतिक समीकरण बदल देंगे?

-डॉ मेराज हुसैन गुजरात और हिमाचल लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद अब सबकी नजर इस साल होने वाले 8 राज्यों...
क्या लिंगायत फिर कर्नाटक का राजनीतिक समीकरण बदल देंगे?

-डॉ मेराज हुसैन

गुजरात और हिमाचल लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद अब सबकी नजर इस साल होने वाले 8 राज्यों में विधानसभा चुनावों पर है। इसमें सबसे अहम कर्नाटक की लड़ाई है। इसीलिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियां गुजरात-हिमाचल के परिणाम को पीछे छोड़ अब कर्नाटक में होने वाले चुनाव के लिए रणनीतियां बनाने में जुट गई हैं।

कर्नाटक में 2018 के अप्रैल महीने में 224 सीटों पर चुनाव होने हैं। 2013 में हुए कर्नाटक चुनाव की बात करे तो सिद्धारमैया की नैया पार लगाने में एक बहुत बड़ी भूमिका, भाजपा से नाराज मुख्यमंत्री येदुरप्पा ने निभाई थी। येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बाद मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था।

गौरतलब, कर्नाटक की 5.5 करोड़ जनसंख्या का 21 फीसदी भाग लिंगायत जाति का है जो कर्नाटक की 224 सीटों में से 80 सीटों को निर्णायक भूमिका में प्रभावित करती है और जिसके कारण लिंगायत जाती को कर्नाटक की सबसे प्रभावशाली जाती के तौर पर देखा जाता है।  लिंगायत से ही आने वाले येदुरप्पा का प्रभाव भी राज्य की राजनीति में प्रमुखता से देखा जा सकता है। यह पता लगता है जब उन्होंने भाजपा से अलग होने के बाद अपनी पार्टी KJP ( कर्नाटक जनता पार्टी) बनाकर चुनाव को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया था और भाजपा के मूल वोटो का बंटवारा कर 2013 चुनाव में 9.4 फीसद वोट प्राप्त किया था। लेकिन भाजपा को मिले इस बड़े झटके ने जल्द ही पार्टी नेताओ की आंखें खोल दी।  नतीजन, 2014 लोकसभा चुनाव में ये समीकरण एकबार फिर बदला और भाजपा यदुरप्पा को मनाने में कामयाब हो गयी, साथ ही KJP का एक बार फिर BJP में विलय हुआ।

2014 के आंकड़ो पर नजर डाले और असेम्बली के अनुसार सीटों पर वोटिंग प्रतिशत देखें तो जहां एक ओर इस समीकरण की बदौतल भाजपा को 40 नहीं 133 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली तो वही दूसरी ओर कांग्रेस को केवल 76 सीटों से संतोष करना पड़ा था। ये आंकड़े साफ तौर पर दर्शाते है की यकीनन यदुरप्पा की पकड़ लिंगायत वोट पर काफी मजबूत है और इसी कारण निश्चित तौर से भाजपा भी कर्नाटक में मजबूत स्थिति में नजर आती है|

इतना ही नहीं अगर कर्नाटक के सियासी इतिहास पर गौर करे तो कर्नाटक को 6 बार लिंगायत मुख्यमंत्री मिला है जिससे भी कर्नाटक पर लिंगायतो का वर्चस्व साफ झलकता है। इस बात में कोई दोराय नहीं है की बीजेपी को इसका सीधा फायदा मिला है, साथ ही कांग्रेस के पास येदुरप्पा जितना बड़ा चेहरा न होना भी बीजेपी की चुनावी राह को आसान बनाता है, हालांकि इस बार के कर्नाटक चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा की सिद्धारमैया का हाल में खेला गया लिंगायत कमीशन कार्ड कितना कारगर साबित होता है। 

भाजपा का अभी से योगी आदित्यनाथ दांव खेलना यह साफ जाहिर करता है की भाजपा लिंगायतो के साथ-साथ इस बार ध्रुवीकरण की राजनीति पर सियासी सतरंज खेलने जा रही है।  ऐसे में यह कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि अगर कर्नाटक में मौजूद 10 प्रतिशत अल्पसंख्यको का समर्थन JDS (जनता दल सेक्युलर) और कांग्रेस के बीच बंटता है तो भाजपा के लिए गुजरात जीत के बाद अब कर्नाटक पर फतेह पाने की राह निश्चित ही आसान हो जाएगी।

(लेखक राजनीतिक चिंतक एवं ग्लोबल स्ट्रेटेजी ग्रुप के फाउंडर चेयरमैन है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में सेंसर बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं।)

 

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