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कहां से चले कहां तक

पर्यटन स्थल नहीं बदले, वहां आ कर उसे निहारने वाले लोग बदल जाते हैं। ऐसे ही कुछ बदलावों पर एक नजर
कहां से चले कहां तक

शफ्फाक पत्थरों से बना ताजमहल सालों से यमुना किनारे खड़ा है। उसे कभी दर्शकों की बाट नहीं जोहनी पड़ती। कोडाइकनाल की हरियाली, शिमला की बर्फ, लाल किले के दालान, मीनाक्षी मंदिर के गोपुर, कोवलम के समुद्र की लहरें सब वैसी ही हैं सालों से। बस अलबम में लगे इनके चित्र के आसपास का कुछ नजारा बदला है। यहां आने वालों का पहनावा बदला है, काले-सफेद से ये चित्र रंगीन हो गए हैं और अब ये चित्र रंगीन होने के बाद एलबम में भी नहीं चिपकते। वहीं क्लिक होते हैं और बमुश्किल पंद्रह से बीस मिनट में चेन्नई के फोटो मुंबई, बद्री-केदार के फोटो लंदन और डिज्नीलैंड के फोटो लखनऊ पहुंच जाते हैं। फेसबुक या व्हॉट्स एप पर। यह बदला हुआ सैलानी है, जो घूमने के बजाय फोटो पर ध्यान देता है। सब कुछ बदल रहा है, बेडिंग रोल से लेकर स्लीपिंग बैग तक। होटलों के कमरों से लेकर टेंट तक। यायावरों की भीड़ का ही कमाल है कि रजीत और पूर्बी जैसे युवा सब कुछ अपना सब कुछ छोड़ कर एक कंपनी बनाते हैं और अपने शौक को रोजगार में बदलने की कोशिश में जुट जाते हैं। रजित कहते हैं, 'जब मैंने और पूरबी ने द ट्रेवलिंग गेको कंपनी शुरू की तो हमारे सामने भी कई चुनौतियां थीं। सबसे बड़ी चुनौती थी, अपने ग्राहकों को हमेशा कुछ नया देने की।Ó आखिर जब दौर बदल रहा है तो नयापन आना स्वाभाविक है। रजित ऐसा 'ट्रेवल ट्रिप डिजाइनÓ किया है, जिसमें उन्होंने तमिलनाडु के कुछ गांवों को अलग किया है, जहां ऐतिहासिक महत्व के मंदिर हैं। इन मंदिरों को देखने के इच्छुक लोगों के साथ इतिहास के जानकार किसी व्यक्ति को भेजा जाता है ताकि उस स्थान का महत्व समझा जा सके।

नानी के घर की तफरीह कब बदल गई यह पता नहीं चला ऐसा नहीं है। धीरे-धीरे प्रचार माध्यमों ने जब खूबसूरत चित्र सामने रख दिए तो लगा यहां चल कर देखा जाए। यह इच्छाशक्ति से ज्यादा चेतना को जगाने की कोशिश थी, जो कामयाब हुई। शिमला में अपनी ट्रेवल एजेंसी चलाने वाले यशोधर सिंह चौहान का अनुभव बहुत अलग नहीं है। वह कहते हैं, 'युवा तो बढ़े ही हैं, लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य होता है जब अधेड़ उम्र के जोड़े भी एडवेंचर टूर पर जाना चाहते हैं। बहुत से लोग फोन पर पूछते हैं कि जैसे टीवी में दिखाया जाता है या फलां किताब में छपा है वैसी जगह जाने के लिए कितने दिन चाहिए?Ó फुर्सत के क्षण निकालने के लिए जितनी जद्दोजहद की जाती है, एक शानदार जगह खोजने के लिए उनकी आधी मेहनत भी नहीं लगती। इंटरनेट पर सब मौजूद है। अगर किसी स्थान पर सिर्फ रात गुजारनी हो तो आपके पास बेड एंड ब्रेकफास्ट का विकल्प भी मौजूद है। शाम तक पहुंचिए। किसी के घर ठहरिए और सुबह का नाश्ता कर अपना पिट्ठू कंधे पर लटका कर दिन भर के लिए निकल पड़ें। महंगे होटल का खर्च न करना चाहें तो यह विकल्प बुरा नहीं।

कोई भी बदलाव केलेंडर की तरह बदलता हुआ नहीं दिखता। धीरे-धीरे यह लोगों के पहनावे, खान पान और बाहर ले जाने वाले सामान में दिखाई पडऩे लगता है। जैसे-लोहे की पेटी की जगह डफल बैग ने ली। डफल बैग को पिट्ठू ने कब का रिटायर कर दिया।

जहां पहले समुद्र की लहरें टकराती थीं अब वहां एक कैफे है। वहां बैठ कर भी इंटरनेट पर सब देखा जा सकता है, जो दफ्तर के कंप्यूटर पर आता है, सब कुछ। तिरुपति के मंदिर के दरवाजे पर अब भीड़ की मारा-मारी नहीं होती, एक बैंड हाथ में पहना दिया जाता है, उस पर दर्शन का समय अंकित है। दर्शन के वक्त से आधा घंटा पहले पहुंचिए और बालाजी वहां मुस्तैद मिलेंगे। कोणार्क के सूर्य मंदिर के सामने किसी फोटोग्राफर को खोजने के लिए समय की बर्बादी नहीं करना है, अपना 6मेगापिक्सल कैमरे वाला मोबाइल निकालना है और किसी को भी थमा देना है। अतिरिक्त मैमोरी कार्ड है, जितनी चाहे क्लिक-क्लिक कर लो। फोटो रोल खरीदने की झंझट नहीं, उसे धुलवाने की नहीं। घर पर लैपटाप में फोटो छांट ली जाएगी। दूध में गुंथे आटे के पराठे, मठरियां और सूखे करेले ले जाने की कौन फिक्र करे। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पिज्जा हट और मैकडोनल्ड है। इस बदलाव ने बहुत सी सुविधाएं दीं हैं। लेकिन स्थानीय खाने की लज्जत, स्थानीय पहनावे की रंगत फीकी कर दी है।

नई आमद दुनिया को रौशन करती है। उस रौशनी में हर रंग निखर जाता है, साल दर साल जैसे बदलता है बदलती है उससे जुड़ी बातें भी।

अब सब में एक यायावर

मैं खुद को एक यायावर मानता हूं। घूमने के लिए मैं योजनाएं नहीं बनाता और जहां मन रम जाए रूक जाता हूं। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी रगों में खून के बजाए रास्ते दौड़ते हैं! कितने सालों से घूम रहा हूं, यह गिनने की फुर्सत मुझे कभी नहीं रही। घूमना अब 'हॉलीडेÓ में बदल गया है। पहले कहीं भी जाने के पीछे कोई  कारण होता था। अब घर में रुकने की कोई खास वजह न हो तो लोग घूमने निकल जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अब परिवार की जिम्मेदारियां वैसी नहीं रहीं जैसी संयुक्त परिवार के वक्त होती थीं। एकल परिवारों का चलन बढ़ा है और छोटा परिवार होने से छुट्टियों की योजना बनाने में परेशानी नहीं होती। वैसे भी अब घूमने का मतलब सिर्फ बिस्तर-पेटी उठा कर किसी रिश्तेदार के यहां चल देना नहीं है न किसी शादी-ब्याह में पहुंच जाना भर है। पहले घूमने का मतलब होता था, हफ्ते भर किसी रिश्तेदार के यहां रहे, उस शहर की दो-चार जगहें देखीं, थोड़ी खरीदारी की और हो गया घूमना।

यह दौर वीकएंड ट्रेवल के दिन हैं। हफ्तों की बात छोडि़ए, दो दिन भी घूमने के लिए पर्याप्त हैं। साल भर पहले से केलेंडर में छुट्टियां देख ली जाती हैं और तभी 'डेस्टिनेशनÓ भी तय हो जाता है। इस बदलाव का पूरा श्रेय मैं इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली नई पीढ़ी को देता हूं। यही वह पीढ़ी है, जिसे नई-नई जगहें खोजने और उन्हें देखने का जुनून है। जहां कोई न गया हो वहां जाने का चलन दिन-प्रति-दिन बढ़ा है। अब न टिकट की बुकिंग के लिए लंबी कतार में नहीं लगना है न होटल के लिए परेशान होना है। सब घर बैठे ऑनलाइन किया जा सकता है। एक और जो बड़ा बदलाव मैंने शिद्दत से महसूस किया है वह है, बजट। क्रेडिट कार्ड ने खर्च की सीमा को लगभग खत्म कर दिया है। यह इतना बड़ा बदलवा है कि इसने घूमने-फिरने का पूरा दृश्य बदल दिया है। यदि आपको टिकट न भी मिला तो एक से एक गाडिय़ां हैं, जिन पर सवार हो कर आप भारत में कभी भी कहीं भी घूम सकते हैं। हाइवे इतने अच्छे हो गए हैं कि सफर की परेशानी पता ही नहीं लगती। एसयूवी (स्पोर्टस यूटिलिटी व्हीकल) के आ जाने के बाद तो जैसे हर व्यक्ति के अंदर एक यायावर रहने लगा है।

आशीष लिमये

(मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत हैं और यायावरी के शौकीन हैं)

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