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गोदावरी दत्ता: वह कलाकार जिन्होंने मिथिला को विश्व में पहचान दिलाई

  गोदावरी दत्ता (1930 – 14 अगस्त 2024) भारत ने 14 अगस्त 2024 को एक प्रिय कलाकार को खो दिया, जब मधुबनी पेंटिंग की...
गोदावरी दत्ता: वह कलाकार जिन्होंने मिथिला को विश्व में पहचान दिलाई

 

गोदावरी दत्ता (1930 – 14 अगस्त 2024)

भारत ने 14 अगस्त 2024 को एक प्रिय कलाकार को खो दिया, जब मधुबनी पेंटिंग की प्रमुख हस्ती, गोदावरी दत्ता का निधन हो गया। 93 वर्ष की आयु में, उन्होंने मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर को न केवल सहेजा बल्कि उसे विश्व स्तर पर भी पहचान दिलाई। बिहार के एक छोटे से गाँव से अंतरराष्ट्रीय पहचान तक का उनका सफर इस बात का प्रमाण है कि कला कैसे सीमाओं को पार कर सकती है।

प्रारंभिक जीवन और प्रभाव

1930 में बिहार के दरभंगा जिले के बहादुरपुर गाँव में जन्मी गोदावरी दत्ता का जीवन मिथिला की परंपराओं से ओत-प्रोत था। उनकी माँ, सुभद्रा देवी, जो स्वयं एक कलाकार थीं, ने उन्हें मधुबनी पेंटिंग से परिचित कराया एक पारंपरिक कला रूप जो गोदावरी के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया। कम उम्र में ही पिता को खो देने के बावजूद, अपनी माँ के प्रोत्साहन से गोदावरी ने अपनी कला यात्रा को जारी रखा। उनके कला में परिवार, परंपरा,और ग्रामीण भारत की महिलाओं के दैनिक जीवन के अन्तर्सम्बन्ध प्रमुखता से दिखाई देता है। 

कलात्मक यात्रा और वैश्विक पहचान

गोदावरी दत्ता ने अपने घर की दीवारों पर पेंटिंग बनाने का काम बहुत ही छोटी उम्र में शुरू क्र दिया था, जो उनकी समुदाय की प्रथा थी। इसी क्रम में हम पाते हैं जब वह  1971 में उन्होंने कागज़ पर पेंटिंग करना शुरू किया, और कैसे उनकी कला विशाल कलाप्रेमी वर्ग तक पहुँचती है । वह विशेष रूप से कयस्थ शैली की मधुबनी पेंटिंग में कुशल थीं, जो काले और सफेद रंग के कंट्रास्ट के लिए जानी जाती है। उनकी पेंटिंग्स में अक्सर रामायण और महाभारत जैसे हिंदू महाकाव्यों के दृश्य, अनुष्ठान, त्यौहार और दैनिक गतिविधियाँ दर्शाई जाती थीं। ये विषय, गहरे सांस्कृतिक प्रतीकों और बारीक विवरणों के साथ, भारत और विदेशों में लोगों की कल्पनाओं को मोहित कर लेते थे।

गोदावरी दत्ता के कार्यों को राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिहार में सूखे के दौरान गाँवों का दौरा किया था। उसी क्रम में उन्होंने  ग्रामीण घरों की दीवारों पर अनोखी कला देखी। इस दौरे से मधुबनी पेंटिंग में एक नए सिरे से रुचि पैदा हुई, जिसने इसे एक पारंपरिक कला रूप से एक आजीविका के साधन में बदलने में भी मदद की।

जल्द ही, गोदावरी की प्रतिभा ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई। उन्होंने जर्मनी और जापान की यात्रा की, जहाँ उनके कार्यों को जापान के ताकोमाची में मिथिला म्यूज़ियम और फुकुओका एशियन आर्ट म्यूज़ियम जैसी प्रसिद्ध जगहों पर प्रदर्शित किया गया। इन प्रदर्शनों ने मिथिला की समृद्ध कला को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया और गोदावरी दत्ता को एक प्रमुख कलाकार के रूप में स्थापित किया।

सामाजिक प्रभाव और विरासत

1983 में, गोदावरी दत्ता ने मिथिला कला विकास समिति नामक एक गैर-सरकारी संगठन की स्थापना की, जो कला के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए समर्पित था। इस संगठन के माध्यम से, उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा देने और ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए काम किया। यह बताना वाकई महत्पूर्ण है कि कैसे उन्होंने घरेलू महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग में प्रशिक्षित किया। जिससे इन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिली और परिणाम सवरूप कई परिवारों को गरीबी की चक्र से बहार निकला।

गोदावरी दत्ता ने भारत के सांस्कृतिक संसाधन और प्रशिक्षण केंद्र (सीसीआरटी) के माध्यम से छात्रों और शिक्षकों को प्रशिक्षण देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह मानती थीं कि कला सभी के लिए सुलभ होनी चाहिए क्योंकि  इसमें जीवन बदलने की शक्ति होती है। यह विश्वास उनके अपने जीवन में भी झलकता था, वह अक्सर कहती थीं कि कला ने उन्हें जीवन के संघर्षों से उबारा और उन्हें उद्देश्य और दिशा दी।अपने लंबे करियर के दौरान, गोदावरी दत्ता को कई सम्मान प्राप्त हुए, जिनमें 2006 में शिल्प गुरु पुरस्कार और 2019 में पद्मश्री, जो भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है, शामिल हैं।

अंतिम दिन और श्रद्धांजलि

गोदावरी दत्ता ने अपने अंतिम दिन मधुबनी जिले के अपने पैतृक गाँव रांटी में बिताए, जहाँ वह एक सम्मानित हस्ती के रूप में जानी जाती थीं। अपनी उम्र के बावजूद, वह 90 वर्ष की आयु तक मधुबनी पेंटिंग बनाती रहीं। 14 अगस्त 2024 को एक संक्षिप्त बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। उनके निधन के साथ ही मिथिला कला के एक युग का अंत हो गया, और उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत को भर पाना कठिन होगा।

गोदावरी दत्ता को न केवल एक महान चित्रकार के रूप में बल्कि एक दूरदर्शी के रूप में भी याद किया जाएगा, जिन्होंने अपनी कला का उपयोग अपने समुदाय को ऊपर उठाने और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए किया। उनके जीवन के कार्यों ने यह सुनिश्चित किया है कि प्राचीन मधुबनी कला आने वाले वर्षों में दुनिया को प्रेरित और समृद्ध करती रहेगी।

(आशुतोष कुमार ठाकुर, पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं, देश के प्रमुख मिडिया संस्थानों में लगातार इंग्लिश और हिंदी में समीक्षाएँ, साक्षत्कार आदि लिखते हैं। इनसे संपर्क ashutoshbthakur@gmail.com पर किया जा सकता है)

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