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सांस्कृतिक दूत होते हैं कलाकार-सेन

भारत सरकार की ओर से नाटककार, गायक, संगीतकार और अभिनेता शेखर सेन को इस वर्ष पद्मश्री से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई है। हाल ही में, उन्हें संगीत नाटक अकादेमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। उनके पास अकादमी के लिए कई योजनाएं हैं। प्रबंधन के अलावा उनके प्रशंसक उन्हें 'कबीर’ के तौर पर जानते हैं। कबीर उनकी एकल नाट्य प्रस्तुति है, जो दर्शकों के बीच खासी लोकप्रिय है।
सांस्कृतिक दूत होते हैं कलाकार-सेन

संगीत नाटक अकादेमी के अध्यक्ष की जिम्मेदारी को आप कैसे देखते हैं?

किसी भी संस्थान का अध्यक्ष का पद महत्वपूर्ण होता है। हर इंसान की कल्पना और वास्तविकता की दुनिया होती है। एक कलाकार के तौर पर यह दायरा मैं समझता हूं और बड़ा होता है। मैं राजनेता नहीं हूं तो मुझे वादे या घोषणाएं करने जैसा कुछ नहीं करना है। न मुझे बढ़ा-चढ़ा कर यह कहना है कि मैं फलां-फलां काम करूंगा। मैं बातों से ज्यादा काम करने में भरोसा करता हूं। मैं ऐसा मानता हूं कि काम करने के बजाय फिजूल बातों में वक्त जाया किया जाए तो संकल्प कमजोर हो जाता है। मेरी जिम्मेदारी किसी न्यास के संन्यासी की तरह है। मैं एक कुशल माली की तरह धरा को समतल और उर्वर बना पाऊं ताकि नए कलाकारों के नए अंकुर और नई पौध विकसित और पल्लवित हो सके।

 एक कलाकार होने के नाते क्या आप कलाकारों दर्द का महसूस करते हैं?

मैं मानता हूं कि किसी भी देश के कलाकार उस देश के सांस्कृतिक दूत होते हैं। उनके हर काम, व्यवहार, बातचीत, परिधान हर गतिविधि से उनके संस्कार की खुशबू आती है। इसलिए मेरी कोशिश होगी संगीत नाटक अकादेमी के जरिये मैं ऐसा माहौल बनाऊं ताकि कलाकारों को सांस्कृतिक दूत की प्रतिष्ठा मिल सके। शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक, आदिवासी-जनजाति कलाओं की  हर विधा के कलाकार एक जुट होकर इस दिशा में काम करे सकें। मुझे लगता है कि आज भी हमारे समाज में कलाकारों को वह सम्मान और आदर नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं। क्योंकि, हमारी कलाएं सिर्फ  मनोरंजन का माध्यम भर नहीं हैं। ये हमारी अनमोल धरोहर, जीवन शैली, ऐतिहासिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक विरासत हर पक्ष की वाहक हैं। जो सदियों से हमें अपने समाज, देश, काल और वातावरण से जोड़ती रहीं हैं। वाकई, हमारा देश बहुत बड़ा है। कला संसार की इसकी परंपरा बहुत व्यापक और विशद है।

 आपको लगता है, कला अकादमियों में काम करना मुश्किल होता जा रहा है?

वास्तव में, मैं एक भावना, संवेदना, सहृदयता से भरा कलाकार हूं। मेरी कोई प्रशासनिक पृष्ठभूमि नहीं है। मेरी यात्रा तो स्वप्न और उसके साकार होने की है। वैसे भी मेरा वन मैन शो होता है। मैं अपनी पटकथा, संगीत, संवाद खुद लिखता हूं। मैं सकारात्मक सोच रखता हूं। ऐसे में राषट्रीय अकादेमी में हर कार्यकर्ता से जुडक़र काम करना मेरे लिए बहुत सुखद होगा। मैं यह नहीं चाहूंगा कि अगर, कलाकारों के हित में कोई अच्छा काम हो तो उसका सारा श्रेय मैं खुद ले लूं। यह टीम वर्क है और हर सदस्य को अच्छे काम करने की प्रेरणा मिले और श्रेय मिले ताकि उनका मनोबल ऊंचा रहे और वह अच्छे से अच्छा काम कर सकें।     

क्या अब तक हमारे यहां लोक और आदिवासी कलाकारों की उपेक्षा होती रही है?

मैं छत्तीसगढ़ के रायपुर में पला-बढ़ा हूं। इस प्रदेश में आदिवासी और जनजाति समूह के लोग ज्यादा रहते हैं। मुझे महसूस होता है कि छत्तीसरगढ़ जैसे बहुत से प्रदेश हमारे देश में हैं, जहां अब तक लोक कलाकारों को समुचित प्रोत्साहन की रोशनी नहीं पहुंची है। अकादेमी को बने हुए लगभग 61साल हो गए हैं। पर अभी तक कला-संस्कृति को लेकर बहुत गंभीर चिंतन नहीं हो पाया। हमारे देश के कलाकार सांस्कृतिक संपदा यानि आर्टिस्टिक कॉपी राइट जैसे अपने हक से अनभिज्ञ हैं। वे यह समझते हैं कि उनके माता-पिता या पूर्वजों ने इस कला को अपनाया था सो वह भी इसे निभा रहे हैं। उस समाज में अभी इतनी जागृति नहीं है कि यह उनकी सांस्कृतिक संपदा है। फिर आजकल तो तरह-तरह के कैमरे और संचार क्रांति तकनीक के जरिये किसी भी कला या सांस्कृतिक स्त्रोत को कोई भी संयोजित कर लेता है। इसलिए, इस दिशा में गंभीर प्रयास और काम करने की जरूरत है। हमारे समाज में आदिवासी और लोक कलाकारों की दशा और दिशा दोनों में बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है।

आप किस तरह की चुनौती महसूस कर रहे हैं?

मेरी कोशिश होगी कि मैं ईमानदारी से कलाकारों की पूरी बिरादरी का प्रतिनिधित्व कर सकूं। मेरे सामने अभी कई समितियों के गठन का दायित्व है। इन समितियों में सभी अंचल, प्रदेश, विधा और घराने के प्रतिनिधि शामिल हों। मुझे इस समय महान अर्थशास्त्री चाणक्य की एक नीति याद आ रही है कि शीर्षस्थ पद पर बैठना सुखद नहीं होता है। क्योंकि आप उस पद पर बैठकर सबको सुखी और संतुष्ट नहीं कर सकते। संस्कृति की अगरबत्ती को जलाकर हम सिर्फ दिल्ली, कोलकाता, मुंबई जैसे महानगरों को ही नहीं महकाएं। बल्कि, दूर-दराज के शहरों में भी अकादेमी के आयोजन हों। जैसा कि पिछले कुछ सालों से यह सिलसिला शुरू हुआ। यह अच्छी बात है कि अकादेमी के आयोजन विदेशों में होते रहे हैं। वह सराहनीय रहा है।

 युवा कलाकारों के लिए क्या करना चाहते हैं?   

मैंने अनुभव किया है कि वही कलाकार उन्नति कर पाए हैं, आगे बढ़े हैं, जिनके अंदर मेहनत, पराक्रम, आगे बढऩे की ललक रही है। अकादेमी के नाते मेरी कोशिश होगी कि युवा कलाकारों को सीखने और रियाज करने का अच्छा माहौल मिले। पंडित रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्ला खां, पंडित भीमसेन जोशी, लता मंगेशकर जैसे कलाकारों की कला के आगे कोई भी अकादेमी या संस्था नगण्य है। अकादेमी हर साल आठ युवा कलाकारों को उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार देती है। इन पुरस्कारों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। हम युवा कलाकारों में वह चेतनता की अग्नि प्रज्वलित करने में योगदान दे सकते हैं। करोड़ों की आबादी वाले देश में कलाकारों की विशाल फौज तैयार होनी चाहिए, जो विश्व के कोने-कोने में शांति, सौहार्द, प्रेम और विश्वास का वातावरण कायम कर सकें। इससे विश्व मानवता जो आतंकवाद, हिंसा, अलगाववाद से जूझ रही है उसे सुकून की सांसे और जिंदगी, हम कलाकार दे सकें।

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