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किसानों को आज फिर टिकैत जैसे नेता की जरुरत

चौ. टिकैत के आन्दोलन में न तो नेताओं की भरमार थी और न पदाधिकारियों की कतार। इस आन्दोलन में शामिल हर व्‍यक्ति सिर्फ किसान था। चौ. टिकैत जनता के बीच से आए थे और अाखिरी दम तक जनता के बीच रहे। यही सादगी और खरापन उनकी पहचान बन गया। उनकी मृत्यु के बाद किसान आन्दोलन में पैदा खालीपन की भरपाई आज तक नहीं हो पाई है।
किसानों को आज फिर टिकैत जैसे नेता की जरुरत

भारत एक कृषि प्रधान देश है, ऐसा बचपन में किताबों में पढ़ा और बाद में महसूस भी होता था। लेकिन आज किसानों की हालत देखकर यह मुहावरा वाकई किताबी लगता है। अस्‍सी के दशक में जब किसानों का उत्पीडन चरम पर था और देश का किसान सरकारी तंत्र से बुरी तरह त्रस्‍त था तब उस उत्पीडन के विरुद्ध देश के तमाम हिस्सों से किसानों आवाज को कई गैर-राजनैतिक किसान नेताओं ने धार देने का काम किया। इनमें चौ. महेन्द्र सिंह टिकैत का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इसी तरह महाराष्ट्र में शरद जोशी, कर्नाटक में प्रो. नजुन्डा स्वामी और गुजरात में विपिन देसाई ने किसान आंदोलनों का नेतृत्‍व किया। पश्चिमी यूपी से के सिसौली कस्‍बे से टिकैत के रूप में उठी किसानों की आवाज को सरकारी स्तर पर दबाने के तमाम प्रयास किये गए। लेकिन ठेठ स्‍वभाव और बुलंद हौसले के धनी चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत ने सिसौली से लेकर दिल्‍ली तक किसानों को आवाज को सुनने के लिए सरकारों को मजबूर कर दिया था। 

 

15 मई को चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की चौथी पुण्‍यतिथि है। किसानों की जिन मुश्किलों के लिए वह जिंदगी भर संघर्ष करते रहे। वे चुनौतियां आज भी मौजूद हैं। जो इलाके कभी किसानों की खुशहाली का प्रतीक माने जाते थे, वहां से किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही हैं। देश भर के गन्ना किसानों का लगभग 25 हजार करोड़ रुपया कॉरपोरेट जगत पर बकाया है। कुदरत की मार और सरकारी उपेक्षा ने किसान की कमर तोड़ डाली है। औद्योगिकरण और विकास के नाम पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की कोशिशों को कानूनी मान्‍यता देने की तैयारी है। जिसका ताजा उदाहरण केंद्र सरकार की ओर से लाया गया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश है। 

 

अगर चौ. टिकैत के संघर्ष को गौर से देखें तो पाएंगे कि उनके आंदोलन का मुख्य मुद्दा फसलों के वाजिब दाम था। विभिन्न मंचों एवं आन्दोलन के माध्यम से चौ. टिकैत जीवन पर्यन्त किसानों के इस महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाते रहे। लेकिन सच तो यह है कि आज भी किसानों को उनकी फसलों का उचित और लाभकारी मूल्य नहीं मिल पा रहा है। विडंबना यह है कि किसान राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक तो है लेकिन किसी भी दल के एजेंडे में किसान के मुद्दे नहीं हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि किसान सिर्फ वोट बैंक और लैण्ड बैंक बनकर रह गया है। एक तरफ जहां किसान जीते जी मरने के कगार पर है। वहीं सरकार देश को जीडीपी समझाने में लगी हुई है। देश में गन्ना, गेहूं, धान, रबड, कपास, जूट, आलू, टमाटर और नारियल समेत कई कृषि उत्पाद को किसान लागत मूल्य से कम कीमत पर बेचने को मजबूर है। ऐसा नहीं है कि  इन सब मसलों पर सरकार अनजान है। संसद के सभी सत्रों में किसानों की बदहाली पर छोटी-छोटी चर्चा जरूरी होती है। लेकिन नीति निर्माता किसानों के लिए बनी सरकारी योजनाओं में किसानों को राहत देने के कतई मूड में नहीं हैं।  

 

80 के दशक में इसी तरह सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार, बिजली के दाम में बढ़ोतरी और किसानों को उनकी फसलों का मूल्य न मिलने के खिलाफ एक गैर-राजनैतिक किसान आंदोलन खड़ा हुआ था। चौ. महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्‍व में पहला आंदोलन करमुखेडी बिजली घर पर 27 जनवरी 1987 में हुआ। किसानों के अचानक शुरू इस आन्दोलन से निपटने हेतु पुलिस ने निहत्थे किसानों पर गोलियां चलाईं, जिसमें मुजफ्फरनगर के गांव लिसाढ़ के किसान जयपाल सिंह व सिंभालका के अकबर अली पुलिस की पुलिस की गोली से मौत हो गई। इस संघर्ष में पीएसी के एक जवान की भी मौत हई। इस घटना ने शोषण पीडि़त किसानों में एक क्रांति का संचार कर दिया।इसके बाद चौ. टिकैत ने किसानों की समस्याओं को लेकर मेरठ कमिश्नरी के घेरने का ऐलान किया। 27 जनवरी 1988 को किसानों के साथ उन्‍होंने मेरठ के लिए कूच कर दिया। लाखों की संख्या में किसान मेरठ कमिश्नरी पर 19 फरवरी तक डटे रहे। यह किसानों का ऐसा अनूठा संगम था कि हर कोई राजनीतिक दल इस आन्दोलन से अपने आप को जोड़ना चाहता था। इस आन्दोलन में लोकदल के अध्यक्ष हेमवती नन्दन बहुगुणा, जनमोर्चा नेता सतपाल मलिक, वीरेन्द्र वर्मा, आरिफ बेग, कल्याण सिंह, चन्द्रजीत यादव, गायत्री देवी, वीपी सिंह, शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी, मेनका गांधी, फिल्म अभिनेता राजबब्बर आदि तमाम नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस आन्दोलन के समय मेरठ साम्प्रदायिक दंगों की आग से झुलस रहा था। लेकिन चौ. टिकैत के दिए अल्लाह हु अकबर, हर हर महादेव के नारे से लोगों को साम्प्रदायिकता से निकालकर किसान बना दिया।

 

इसके बाद चौ. टिकैत ने किसानों की आवाज को दिल्ली के हुक्मरानों तक पहुंचाने के लिए दिल्ली में किसान पंचायत की घोषणा की। 25 अक्टूबर 1988 को कई लाख किसानों के साथ चौ. टिकैत ने नई दिल्‍ली के वोट क्लब पर किसान महापंचायत का आयोजन किया। सरकार की बेरुखी के चलते इस महापंचायत को अनिश्चित कालीन धरने में बदलना पड़ा। इसी दौरान देश की पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की पुण्यतिथि का आयोजन वोट क्लब पर किया जाना था। पुलिस ने लाठियों के दम पर वोट क्लब से किसानों को हटाने का प्रयास किया, लेकिन किसानों की एकता के सामने सरकार को झुकना पड़ा। आखिरकार कांग्रेस ने आयोजन स्थान बदलना का निर्णय लिया। इसके बाद चौ. टिकैत ने देश के सभी किसान संगठनों को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू की। उनके इस प्रयास से कर्नाटक के किसान नेता नजुन्डा स्वामी, आन्ध्रप्रदेश के किसान नेता पी. शंकर रेड्डी, पंजाब के भूपेन्द्र सिंह मान, महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी, हरियाणा से घासीराम नैन, प्रेम सिंह दहिया आदि के साथ मिलकर एक किसान समन्वय समिति का गठन किया। 

 

गौर करने वाली बात यह है कि चौ. टिकैत के आन्दोलन में न तो नेताओं की भरमार थी और न पदाधिकारियों की कतार। इस आन्दोलन में शामिल हर व्‍यक्ति सिर्फ किसान था। चौ. टिकैत जनता के बीच से आए थे और अाखिरी दम तक जनता के बीच रहे। यही सादगी और खरापन उनकी पहचान बन गया। उनकी मृत्यु के बाद किसान आन्दोलन में पैदा खालीपन की भरपाई आज तक नहीं हो पाई है। दादरी में एसईजेड के नाम पर किसानों की जबरन जमीन हथियाने के बाद जिस तरह वहां चौधरी टिकैत की अगुआई में लड़ाई लड़ी गई, उसी का परिणाम था कि सरकार को अपने हाथ खींचने पड़े। उस दौरान चौधरी टिकैत ने एसईजेड को किसान विरोधी करार दिया था जिसकी बहस आज संसद में चल रही है।

 

भोला-भाला किसान नफे-नुकसान की सियासत या कारोबार जानता नहीं इसलिए जमीन लेते वक्त उसकी राय शामिल हो। और मुआवजे का उचित प्रबंध हो साथ ही नीजि कंपनियां सीधे किसान से बाजार भाव पर जमीन खरीदे तो उसे इतनी पीड़ा नहीं होगी। लेकिन उस समय भी किसानों की आवाज की अनसुनी हुई और आज भी हो रही है। सुखद ये है कि विपक्षी दलों ने किसान एजेंडे पर जिस तरह एकता दिखाई है और किसान विरोधी नीतियों को सिरे से खारिज किया है उससे लगता है कि भविष्य में किसान राजनीति के केंद्र में होंगे। इसके लिए भारतीय किसान यूनियन की भी जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। किसान नेताओं को भी यह समझना होगा कि टिकैत एक आन्दोलन से बढ़कर किसानों के लिए एक विचार हैं। टिकैत की तरह जमीन से जुड़कर ही उसकी मुसीबतों को समझा जा सकता है। चौधरी टिकैत के जीवन का उद्देश्य किसानों को इतना जागरूक करना था कि किसान की आवाज भी हुक्मरानों तक पहुंच सके। उनका यह सपना बखूबी पूरा भी हुआ, आज किसान में इतनी जागरूकता है कि उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजा सकता है। 

 

(लेखक भारतीय किसान यूनियन, उत्‍तर प्रदेश के प्रवक्‍ता हैं।) 

 

 

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