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चर्चाः केसरिया ‘नीति’ की कछुआ चाल | आलोक मेहता

‘योजना भवन’ की दीवार पोतकर ‘नीति आयोग’ का बोर्ड लगाने की पहली वर्षगांठ पर रोशनी और धूमधाम की तैयारी नहीं हो रही है। ‘नीति सम्राट’ आयोग के कामकाज और अब तक की ढिलाई से अप्रसन्न हैं। नवगठित आयोग में मुख्यमंत्रियों के उपसमूहों की रिपोर्ट अवश्य बनती गई, लेकिन अफसरों-बाबुओं ने पूरे एक वर्ष में केवल एक रिपोर्ट सरकार को दी। अब एक कुशल प्रशासनिक अधिकारी अमिताभ कांति को मुख्य कार्यकारी ‌अधिकारी बनाया गया है, ताकि पूंजी निवेश और वितरण की योजना एवं व्यवस्‍था को पश्चिमी देशों की तर्ज पर आगे बढ़ाया जा सके।
चर्चाः केसरिया ‘नीति’ की कछुआ चाल | आलोक मेहता

 

अगला बजट आने में अधिक समय नहीं है। अगले महीने मोदी सरकार का तीसरा बजट संसद में पेश हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी और भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता न्यूयॉर्क, लंदन, दुबई, बीजिंग, सिंगापुर सहित एक सौ देशों में भारत के ‘क्रांतिक्रारी आर्थिक बदलाव’ की ढपली बजा रहे हैं। अपनी ढपली, अपना राग बजाने को भला कौन रोक सकता है? लेकिन अमेरिकी, यूरोपीय, चीनी अथवा अति पिछड़े अफ्रीकी देशों के राज‌नयिक, उद्यमी, निवेशक, पत्रकार भारत में सत्ता व्यवस्‍था की ‘कछुआ चाल’ से दुविधा में फंस जाते हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान विदेशी पूंजी निवेश के अरबों डॉलर की घोषणाओं, समझौतों के क्रियान्वयन की कोई झलक नहीं दिख पा रही है। विदेशी दूर रहे, देशी निवेशक ही उलझन में हैं। वहीं योजना आयोग पर काली स्याही पोतकर केसरिया रंग से ‘नीति आयोग’ लिखकर टेबल-अलमारी-कुर्सियां बदल देने के बाद विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों एवं राज्य सरकारों को उनके बजट का एक तिहाई पैसा 8 महीनों से नहीं मिल पाने के कारण छोटे-छोटे काम तक रुक गए हैं। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के एक आर्थिक सलाहकार ने पिछले दिनों अनौपचारिक बातचीत में मुझे एक दिलचस्प जानकारी दी कि हाल तक उनके पास ‘योजना आयोग’ के लेटरहेड पर लिखे पत्र दिल्ली से आ रहे हैं। मतलब ‘नीति आयोग’ के अधिकारी अब तक पुराने लेबल से खानापूर्ति कर रहे हैं। निर्णय अधर में लटके हैं। असली निर्णय वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में हो रहे हैं। अंतिम स्वीकृति के अधिकार वहीं सुरक्षित हैं। अब प्रधानमंत्री कार्यालय के बिना पत्ता नहीं हिल सकता। इसलिए ‘पतझड़’ का इंतजार लंबा ही हो सकता है।

मोदी सरकार के नव गठित नीति आयोग के लिए स्वीकृत 600 में से 200 स्‍थान रिक्त पड़े हैं। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012 से 2017) का अब तक का लेखा-जोखा किए जाने का काम अटका हुआ है। तेरहवीं योजना बनाने के मुद्दे पर अनिश्चितता के काले बादल हैं। दुनिया के सामने देश के नेता ‘बेसुरा’ ढोल बजाकर दावा करते हैं कि ‘हम चीन से मुकाबला करने वाले हैं। हमारी आर्थिक तरक्की चीन से बेहतर है।’ जबकि असलियत यह है कि वर्तमान गति रहने पर हमारा सपना पूरा होने में 50 वर्ष लग सकते हैं। चीन या अमेरिका जैसे देशों में अगले 20 वर्षों की आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक संभावनाओं और खतरों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं, नीतियां बनती रहती हैं। सैंकड़ों अधिकारी लगे रहते हैं। इसके अलावा गैर सरकारी स्तर पर अनेक ‘थिंक टैंक’ (शोध संस्‍थान) निरंतर दुनिया भर के देशों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकेबंदी की जाती है। इसके विपरीत ‘योजना’ का अर्थ समाजवादी-साम्यवादी निकालकर केवल राजनीतिक सत्ता के हितों को ध्यान में रखकर ‘तात्कालिक निर्णयों’ को महान बताया जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश को भारत का गौरवशाली हिस्सा कहते हुए हमें सचमुच खुशी होती है। लेकिन चालू वित्तीय वर्ष के बजट में केंद्रीय योजनाओं के तहत अरुणाचल प्रदेश के लिए हुए 3200 करोड़ रुपये के प्रावधान में से अब तक केवल 800 करोड़ रुपये प्रदेश को दिए गए हैं। इस तरह अरुणाचल की प्रगति होगी अथवा वहां आर्थिक कठिनाइयों से सामाजिक असंतोष बढ़ेगा? बिहार के बाद असम विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए संघ-भाजपा की कृपा से राज्यपाल बने आचार्यजी ने स्वयं घोषणा कर दी – ‘मुसलमान पाकिस्तान या बांग्लादेश जा सकते हैं। हिंदुस्तान हिंदुओं का है। इसलिए बांग्लादेश से हिंदू भारत आकर बस सकते हैं।’ असम में बांग्लादेश से अवैध रूप से आने वाले लोगों की समस्या रही है। लेकिन हाल के वर्षों में सुरक्षा-तंत्र की सतर्कता से बहुत कम संख्या में घुसपैठ संभव है। पचास वर्षों के दौरान आए लोग सही मायने में एक नहीं तीन पीढ़ी के परिवार बन चुके हैं। असम में आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, सिख समुदाय के लोगों की अच्छी खासी संख्या है। वास्तव में उनकी संस्कृति मिली-जुली है। राजनीतिक अथवा आपराधिक तत्वों के कारण हिंसक घटनाएं होती हैं। उग्रवादी संगठन भी सक्रिय रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में सांप्रदायिक मुद्दे से तनाव बढ़ाने का काम यदि केंद्र सरकार के संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ही करने लगेंगे, तो क्या पूर्वोत्तर क्षेत्र शांत और खुशहाल रह सकेगा? जम्मू-कश्मीर में भाजपा की गठबंधन सरकार के रहते आए दिन पाकिस्तानी झंडों के साथ प्रदर्शनों का सिलसिला बढ़ना क्या खतरे की घंटी नहीं है। पंजाब में भाजपा-अकाली राज में मादक पदार्थों (ड्रग्स) का भयावह असर बढ़ने से आर्थिक स्थिति बिगड़ती गई है और पुराने घाव ताजा करने से असंतोष बढ़ रहा है। पंजाब विधानसभा चुनाव भी सिर पर आ गए हैं। राजनीतिक-सांप्रदायिक तनाव बढ़ने से यह क्षेत्र फिर अति संवेदनशील हो जाएगा। इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक आचार संहिता पर विचार की आवश्यकता समझनी होगी। लोकतंत्र में सत्ताधारी दल और नेता बदलते रह सकते हैं, लेकिन संवैधानिक व्यवस्‍था और विकास में सामाजिक शांति और सहयोग जरुरी है। गैर भाजपा शासित प्रदेशों के नेताओं की शिकायतें एक हद तक पूर्वाग्रह प्रेरित कही जा सकती है, लेकिन भाजपा शासित राज्यों में भी तो केंद्र से आवंटित होने वाली धनराशि नहीं पहुंच पा रही है। वे सार्वजनिक रूप से बोल भी नहीं सकते। गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी में प्रदूषण का नुकसान तो सब को भुगतना होगा। इसलिए समय रहते सांप्रदायिक प्रदूषण रोकना जरूरी है, ताकि आर्थिक प्रगति का हिरण छलांग लगा सके।

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