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चर्चाः परदेसी का दर्द जाने न कोई | आलोक मेहता

परदेसी होने का आनंद बहुत दिखाई देता है लेकिन उनके दिल का दर्द आसानी से नहीं समझा जा सकता। भारत से जाकर परदेस में बसे भारतीयों पर हमें गौरव महसूस होता है।
चर्चाः परदेसी का दर्द जाने न कोई | आलोक मेहता

ब्रिटेन और अमेरिका जैसे संपन्न देशों में भारतीय डॉक्टर न हों, तो वहां की स्वास्‍थ्य सेवाएं चौपट हो जाएं। अफ्रीका में तो ब्रिटिश शासन और रंगभेद की लड़ाई महात्मा गांधी ने शुरू की और नेहरू-इंदिरा ने आजादी के बाद अफ्रीकी देशों को अपने साथ जोड़ने के कई कदम उठाए। इसी परंपरा का नतीजा है कि अफ्रीका के विभिन्न विकासशील अथवा अविकसित एवं गरीब देशों के युवा बड़ी संख्या में भारत में शिक्षा एवं अवसर मिलने पर रोजगार के लिए आते हैं। उन्हें यूरोप के मुकाबले भारत में अधिक अपनत्व महसूस होता है। यही नहीं आर्थिक प्रगति के बाद अफ्रीकी देशों में व्यापार बढ़ाने की अपार संभावनाएं बन गई हैं। कुछ अफ्रीकी देशों में तेल और खनिज के विपुल भंडार हैं। इन देशों में पिछले वर्षों के दौरान चीन ने अपना प्रभाव बढ़ाया है। अमेरिका, ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय देश पहले से उनका शोषण करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में ‘पधारो म्हारे देस’  के विज्ञापन चलाने वाली सरकार द्वारा दिल्ली जैसी राजधानी में अफ्रीकी लोगों की सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं कर पाना दुःखद एवं शर्मनाक कहा जाएगा। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को स्वयं भारत में अफ्रीकियों पर हुए हमलों पर चिंता व्यक्त करनी पड़ी। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पश्चिम अफ्रीकी देशों की यात्रा पर हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अफ्रीकी देश भारत का साथ देते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान को आतंकवाद के मुद्दे पर घेरने में अफ्रीकी देश भारत के लिए सहायक हो सकते हैं। इस दृष्टि से भाजपा सरकार और उससे जुड़े संगठन ही नहीं सामाजिक संगठनों को भारत में बसे अफ्रीकियों के संरक्षण और उनके संबंध में जागरुकता लाने के हरसंभव प्रयास करने चाहिए।

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