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चर्चाः सर्जरी के लिए क्यों कांप रहे हाथ | आलोक मेहता

डॉक्टर नाजुक हालत में पहुंचे मरीज की सर्जरी के लिए कितने सप्ताह, महीने या वर्ष की प्रतीक्षा करवा सकते हैं? सरकारी मेडिकल संस्‍थान में डॉक्टरों और संसाधनों की कमी के कारण कुछ रोगों के आपरेशन के लिए मरीजों को लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।
चर्चाः सर्जरी के लिए क्यों कांप रहे हाथ | आलोक मेहता

ऐसी स्थिति में मरीज और उसके परिजन प्राइवेट अस्पतालों की शरण ले लेते हैं या बेहद साधनविहीन होने पर कुछ मरीज इंतजार के दौर में मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। इन दिनों कांग्रेस के प्रमुख नेता दिग्विजय सिंह और अन्य साथी थकी, बीमार और अर्द्ध मूर्छावस्‍था में दिख रही पार्टी की सर्जरी की आवाज उठा रहे हैं। टी.वी. चैनलों पर बहस हो रही है। भाजपा कांग्रेस काया को मुक्त करने का अभियान छेड़े हुए है। लोकतंत्र और सेक्युलर विश्वास वाले नेता अंधविश्वास की तरह न सही पिछले अनुभवों के आधार पर चमत्कार की आशा करते हैं। साथ ही यह दुहाई भी देते हैं कि सर्जरी केवल पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ही करेंगे। तब सवाल उठता है कि 2014 से आई.सी.यू. के दरवाजे पर खड़ी कांग्रेस पार्टी की सर्जरी में शीर्ष ‘डॉक्टर’ नेतृत्व के हाथ क्यों कांप रहे हैं और कब तक कांपते रहेंगे? बार-बार पूछा जाता है कि राहुल गांधी आपरेशन थिएटर के साथ राष्‍ट्रीय स्तर पर पार्टी के कायाकल्प के लिए अध्यक्ष पद कब संभालेंगे? लेकिन यह कार्यकर्ताओं, जनता का तकनीकी भ्रम ही कहा जा सकता है, क्योंकि पार्टी का एक बड़ा वर्ग जानता है कि राहुल गांधी ने अघोषित रूप से कमान संभाल रखी है। आपसी समझबूझ के साथ सोनिया गांधी और प्रियंका ने राहुल को फैसले करने की छूट दे रखी है और बैठकों में राहुल की राय पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगता है। मनमोहन सिंह राज में सरकार द्वारा बनाए जा रहे कानून का दस्तावेज सार्वजनिक रूप से फाड़ने पर पार्टी में किसी ने चूं तक नहीं की। वैसे भी भ्रष्ट और आपराधिक राजनेताओं को कानूनी राहत का विरोध उचित था और इससे पार्टी को लाभ उठाना चाहिए था। लेकिन मनमोहन राज में इतने मंत्रियों के मुंह पर कालिख लगी कि अब तक नहीं धुल पा रही है। इसलिए पार्टी की हालत खस्ता है। फिर भी 2014 की चुनावी हार के दो साल बाद सोनिया-राहुल ने कठोरता के साथ राजनीतिक चाकू-कैंची नहीं उठाई। प्रदेशों में भी कोई बदलाव नहीं किया गया। कागजी और विवादास्पद नेता अब भी पार्टी में प्रभाव जमाए हुए हैं। राहुल गांधी के इर्द-गिर्द भी ऐसे नेताओं या बाहरी टीम का वर्चस्व दिखता है, जो कंप्यूटर रिकार्ड और मात्र सोशल मीडिया के आधार पर सलाह दे रहे हैं। राहुल दरबार में पूर्व सांसदों, विधायकों, प्रदेश-जिला स्तर के पदाधिकारियों की सुनवाई बहुत कम है या सुनने पर कार्रवाई नहीं हो रही है। ऐसी स्थिति में नेतृत्व ‘सर्जरी की समय सीमा’ क्यों नहीं तय करता?

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