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चर्चाः लिबास नहीं काम देखो | आलोक मेहता

सोशल मीडिया से जागरुकता बढ़नी चाहिए अथवा संकीर्ण विचारों को फैलाया जाए? यह सवाल विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की ईरान यात्रा के दौरान राष्‍ट्रपति हसन रूहानी से मुलाकात के दौरान पहनी लिबास पर सोशल मीडिया में चली निरर्थक बहस से उठता है।
चर्चाः लिबास नहीं काम देखो | आलोक मेहता

श्रीमती सुषमा स्वराज ने साड़ी और शाल के साथ सिर ढंककर ईरानी राष्‍ट्रपति से भेंट की और यह फोटो जारी हुआ। इस सामान्य शिष्‍टाचार को ईरान में महिलाओं की वेशभूषा के लिए बनी कतिपय पाबंदियों से जोड़ना बिल्कुल अनुचित है। सुषमा स्वराज ही नहीं भारत की कई शीर्ष महिला नेता ईरान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब ही नहीं जापान-चीन जैसे देशों में भी साड़ी और पारंपरिक वेशभूषा में विदेशी राष्‍ट्राध्यक्षों अथवा नेताओं से मिलती रही हैं। ब्रिटेन, अमेरिका या जर्मनी की विदेश मंत्री या चांसलर यदि भारतीय सलवार कुर्ते अथवा साड़ी पहनकर भारत के नेताओं से मिलती हैं, तो क्या वे भारत की संस्कृति के समक्ष समर्पण करती हुई मानी जाएंगी? सुषमा स्वराज ने तो भारतीय वस्‍त्र ही पहना हुआ था। वह भारत में भी साड़ी और शाल के साथ सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाती है। आलोचकों को यह अनुमान भी नहीं है कि ईरान के राष्‍ट्रपति ही नहीं अन्य बड़े नेताओं के कार्यालय और आवास अत्याधुनिक वातानुकूलित हैं। पुरुष अतिथि भी यदि जैकेट या कोट नहीं पहने होंगे, तो ठंडा महसूस कर सकते हैं। बहरहाल, वेशभूषा की अपेक्षा इस बात को महत्व दिया जाना चाहिए कि कट्टरपंथी कहे जाने वाले इस्लामी राष्‍ट्र ईरान में भारत की महिला विदेश मंत्री ने पूरी दृढ़ता के साथ आतंकवाद, द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों पर सफलतापूर्वक वार्ता की। इस वार्ता में ईरान के राष्ट्रपति तथा अन्य नेताओं ने अन्य तेल उत्पादक देशों के रवैये से हटकर भारत की राय के अनुसार अधिक तेल उत्पादन पर सहमति दी। अधिक तेल उत्पादन होने पर भारत को तेल आयात पर अत्यधिक ऊंची दरों का बोझ भी नहीं पड़ेगा। अमेरिका के साथ गंभीर टकराव के दौर में भी भारत और ईरान के बीच अच्छे संबंध रहे हैं। इसी तरह पाकिस्तान से संबंधों के बावजूद उसने भारत के साथ रिश्तों को मजबूत किया। अंतरराष्ट्रीय गैस पाइपलाइन योजना में ईरान भारत के साथ जुड़ना चाहता है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और भारतीय हितों को ध्यान में रखकर अनावश्यक विवाद बेमानी है। 

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