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ऐ मेरे बिछड़े चमन

जलावतन अफगानों का दिल्ली में आशियाना
ऐ मेरे बिछड़े चमन

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल शहर से आए कायल कमाल बेहद परेशान हैं। उनकी पाकीजा बर्गर के नाम से चिकेन शॉप बेहतरीन कारोबार कर रही थी। तंदूरी अफगान चिकेन के शौकीन दूर-दूर से यहां चिकेन खाने आया करते थे लेकिन बिजनेस पार्टनर धोखा दे गया। अब दूकान कई दिनों से बंद है। कायल और उनके बड़े भाई नई जगह की तलाश में हैं। इसी बीच उन्हें भावना मिलीं जिनका विदेशों में चांदी के गहनों, बर्तनों और नगों का कारोबार है। भावना को विश्वास है कि अफगान होने के नाते कायल उन्हें असली नग उपलब्ध कराने में मददगार होंगे और वहीं कायल भी भावना से नगों की पहचान करना सीख रहे हैं। भावना का कहना है ‘ अफगान होने का मतलब सिर्फ तालिबानी होना नहीं है ये बेहेतरीन लोग हैं, जिनके मन में मैल नहीं। ’

कायल के परिवार में कुल 16 लोग हैं। कमाने वाले यही दो भाई हैं। कायल का कहना है ‘ नई जगह लेना आसान नहीं। हम अफगानिस्तान से अपना सब कुछ बेचकर यहां आए हैं। यहां किराया बहुत ज्यादा लिया जाता है। जब चाहे एग्रीमेंट रद्द हो जाता है।‘

यह छोटा अफगानिस्तान राजधानी दिल्ली में बसता है यहां कायल जैसे हजारों लोग अफगानिस्तान छोड़ कर भारत आ गए। यह वे अफगान हैं जिन्हें या तो वहां तालिबानियों की धमकियां मिल रहीं थीं या जिन्होंने समय रहते बिगड़ता माहौल भांप लिया और हमेशा के लिए वतन छोड़ दिया। ये वे अफगान भी हैं जो अपना इलाज ·राने भारत आए और फिर कभी अफगानिस्तान वापिस नहीं गए। ये वे अफगान भी हैं जिनके अंदर अपने बच्चों को पढ़ाने और उनका भविष्य बनाने की कसक  थी लेकिन अफगानिस्तान में ऐसा मुमकिन नहीं था। इन अफगानियों से मिलकर ऐसा लगता है कि एक अफगानिस्तान अपने बच्चों खासकर बेटियों को खूब पढ़ाना चाहता है। यह अफगानिस्तान मॉडर्न है। यह अफगानिस्तान दुनिया से कदमताल में विश्वास रखता है। लेकिन तालिबान, बम, धमाकों , धमकियों में यह मुमकिन नहीं था। लेकिन यहां भारत में भी इनके लिए जीवन आसान नहीं। मुश्किलें ही मुश्किलें हैं।

 दिल्ली में ज्यादातर अफगान लोग भोजन व्यवसाय में हैं। अलग-अलग जगह इनके रेस्तरां हैं। नॉन वेज खाने के शौकीनों का यहां तांता लगा रहता है। भावना का कहना है कि खासकर अफगान नान, चिकेन, अशक  (मैदे की मोमोज की तरह एक डिश, जिसे लोबिया के सॉस के साथ परोसा जाता है।) , काबुली (बढि़या चावल जो गाजर और किशमिश-काजू में बने होते हैं।) और गंदना का पराठा भारतीयों को भी बहुत पसंद है।

यहां के मशहूर काबुल रेस्तरां चलाने वाले मोहम्मद इब्राहिम हाल ही में भारत आए हैं। इनका कहना है कि वहां हालात बहुत खराब हो चुके हैं। इसलिए वह यहां आ गए। इब्राहिम का वहां गहनों का अच्छा-खासा कारोबार था लेकिन खराब हालातों की वजह से धीरे-धीरे वहां सब खत्म होने लगा। कुछ भी नहीं रहा। इनका कहना है कि वहां असुरक्षा और गरीबी की वजह से हालात ऐसे नहीं हैं कि वहां रहा जा सके।

26 वर्षीय सूरइया यहां एक भारतीय की ट्रैवल कंपनी में काम करती है। उसकी बातों से लगता है कि वह बहुत ज्यादा मन मसोस कर यहां काम कर रही है। सूरइया काबुल के एक  अखबार में फायर ब्रांड रिर्पोटर रही हैं। वह बताती है कि वहां पत्रकारिता करने का सोचा भी नहीं जा सकता। अफगानिस्तान में सबसे ज्यादा खतरा ही पत्रकारों की जान को है। सूरइया कहती है ‘ आप मेरी हालत समझ सकते हैं। कहां मैं एक पत्रकार और कहां यहां ट्रैवल कंपनी की बहुत मामूली सी नौकरी। जहां सारा दिन बैठना है। मुझे सबसे ज्यादा याद आता है तो अफगानिस्तान का मौसम और अपना करिअर। ’

सूरइया ने बताया कि यहां ज्यादातर अफगानी इलाज करवाने के लिए आते हैं। अफगानिस्तान में डॉक्टर्स तो बहुत अच्छे हैं लेकिन डायग्नोसिस सुविधाएं नहीं हैं। सूरइया के परिवार में कुल 17 लोग हैं और कमाने वाली वह अकेली हैं।

काबुल की रहने वाली पखितया के हालात बहुत अच्छे नहीं। 26 वर्षीय यह लड़की और इसकी बड़ी बहन यहां अकेले रहती हैं। दोनों के ही पति जिंदा नहीं हैं। उनकी मौत कैसे हुई इसपर पखितया कुछ नहीं बताना चाहती। वह कहती है कि वह और उसकी बड़ी बहन इसलिए भारत आ गए कि वहां उनका जीवन खतरे में था। फिलहाल दोनों बहनों के पास नौकरी नहीं है। खर्चे के लिए रुपये काबुल से इनकी तीसरी बहन भेजती है। अभी पक्चितया पढ़ रही है और हिंदी-अंग्रेजी सीख रही है। उसका कहना है कि हमें यहां मकान लेने में सबसे ज्यादा दिक्कत है। मनमाने पैसे वसूले जाते हैं और जब चाहे मकान का एग्रीमेंट रद्द हो जाता है। इसके अलावा जिन्हें हिंदी नहीं आती है उनके लिए जीवन दोहरा संघर्ष वाला है। पखितया का कहना है कि स्कूल में दाखिले के लिए जिन लोगों के पास कागजात पूरे नहीं होते उन्हें दाखिला नहीं मिलता। यहां रोजी-रोटी चलाना मुश्किल है, ऐसे में अगर बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना चाहें तो नहीं पढ़ा सकते और सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। रोजगार के लिए भी छोटे से रिहाइशी इलाके से दूर निकलकर नहीं जा सकते हैं।

यहां ऐसे भी लोग हैं जो यहां पढ़ाई-लिखाई करते यहां से विदेश चले जाना चाहते हैं। फिलहाल तो इनके  पास किसी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं है। आपस में ही ये लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं। इनसे बातचीत में यह भी पता लगा कि अफगानिस्तान में भी जब किसी को यह पता लगता है कि यह परिवार अपना सब बेचकर भारत जाना चाहता है तो ऐसे में वहां भी इनकी जमीन और घर औने-पौने दामों पर खरीदे जाते हैं।

यहां कुछ लोगों ने बताया कि स्थानीय स्तर पर ये लोग व्यापारिक  राजनीति का शिकार हो रहे हैं। इनके यहां आने से पहले जो लोग यहां चिकेन का करोबार कर रहे थे उनका काम इनके आने से मंदा हो गया है। क्योंकि खाना लजीज बनाने के इनके तरीके और मसाले खासकर चिकेन बनाने के तरीके भारतीयों से एकदम अलग है। इनके आने से जिन लोगों का काम खत्म सा हो रहा है वे भारतीय इनके खिलाफ यहां राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। कुछ लोगों के तो इस व्यापारिक  राजनीति की वजह से कामकाज ठप्प हो रहे हैं। महिलाएं इनके घरों में कमाने बाहर नहीं जाती हैं और पुरुष ढाबों का कामकाज बेहतर कर लेते हैं। लेकिन व्यापारिक  राजनीति के चलते अगर इनके ढाबे भी बंद हो गए तो उनके लिए समस्यांएं ही समस्याएं हैं।

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