Advertisement

सुप्रीम कोर्ट में आलोक वर्मा के वकील बोले- तबादले में नहीं हुआ नियमों का पालन

सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को सीबीआई के निदेशक आलोक कुमार वर्मा की याचिका पर सुनवाई कर रहा है। भारतीय...
सुप्रीम कोर्ट में आलोक वर्मा के वकील बोले- तबादले में नहीं हुआ नियमों का पालन

सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को सीबीआई के निदेशक आलोक कुमार वर्मा की याचिका पर सुनवाई कर रहा है। भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी वर्मा ने भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर उन्हें सीबीआई निदेशक के अधिकारों से वंचित कर अवकाश पर भेजने के सरकार के निर्णय को चुनौती दी है।

सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की ओर से उपस्थित हुए वरिष्ठ वकील फली एस नरीमन ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि उनके मुवक्किल के मामले में ट्रांसफर में नियमों का पालन नहीं किया गया। फली नरीमन ने दलील दी कि कमेटी की सिफारिश पर ही सीबीआई डायरेक्टर नियुक्त किया जाता है। डायरेक्टर का कार्यकाल न्यूनतम दो साल होता है। अगर इस दौरान असाधारण हालात में सीबीआई निदेशक का ट्रांसफर किया जाना है तो कमेटी की अनुमति लेनी होगी।

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एस के कौल और के एम जोसेफ की बेंच के समक्ष दलील देते हुए वकील ने कहा कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास छुट्टी पर भेजने की सिफारिश करने के लिए इस तरह के आदेश को पारित करने का कोई आधार नहीं था।

नरीमन ने कहा, "विनीत नारायण के फैसले की सख्त व्याख्या होनी चाहिए। यह हस्तांतरण नहीं है बल्कि वर्मा को उनकी शक्ति और कर्तव्यों से वंचित कर दिया गया है... अन्यथा नारायण के फैसले और कानून का कोई उपयोग नहीं..."

क्या है विनीत नारायण फैसला

1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विनीत नारायण के निर्णय भारत में उच्च रैंक के अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से संबंधित है।

1997 से पहले, सीबीआई निदेशक का कार्यकाल तय नहीं किया गया था और उन्हें सरकार द्वारा किसी भी तरह से हटाया जा सकता था। लेकिन विनीत नारायण के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई निदेशक के लिए अधिकारी को आजादी के साथ काम करने की अनुमति देने के लिए कम से कम दो साल का कार्यकाल निर्धारित किया।

'अदालत याचिका की सामग्री के प्रकाशन को प्रतिबंधित नहीं कर सकती'

नरीमन ने कहा कि अदालत याचिका की सामग्री के प्रकाशन को प्रतिबंधित नहीं कर सकती क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 19 सर्वोपरि है। उन्होंने कहा, "अगर मैं रजिस्ट्री में कल कुछ फाइल करता हूं तो इसे प्रकाशित किया जा सकता है।"

उन्होंने इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के 2012 के फैसले को भी संदर्भित किया।

उन्होंने कहा कि यदि सर्वोच्च न्यायालय बाद में निषिद्ध करता है तो मामला प्रकाशित नहीं किया जा सकता।

केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने वर्मा के खिलाफ प्रारंभिक जांच करके अपनी रिपोर्ट दी थी और वर्मा का इसी पर जवाब दिया गया है।  पीठ को आलोक वर्मा द्वारा सीलबंद लिफाफे में न्यायालय को सौंपे गये जवाब पर 20 नवंबर को विचार करना था। किंतु उनके खिलाफ सीवीसी के निष्कर्ष कथित रूप से मीडिया में लीक होने और जांच एजेन्सी के उपमहानिरीक्षक मनीष कुमार सिन्हा द्वारा एक अलग अर्जी में लगाये गये आरोप मीडिया में प्रकाशित होने पर न्यायालय ने कड़ी नाराजगी व्यक्त करते हुये सुनवाई स्थगित कर दी थी।

सीवीसी के निष्कर्षो पर आलोक वर्मा का गोपनीय जवाब कथित रूप से लीक होने पर नाराज न्यायालय ने कहा था कि वह जांच एजेंसी की गरिमा बनाये रखने के लिये एजेंसी के निदेशक के जवाब को गोपनीय रखना चाहता था।  

उपमहानिरीक्षक सिन्हा ने 19 नवंबर को अपने आवेदन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, केन्द्रीय मंत्री हरिभाई पी चौधरी, सीवीसी के वी चौधरी पर भी सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ जांच में हस्तक्षेप करने के प्रयास करने के आरोप लगाये थे।

इन याचिकाओं पर भी हो सकती है सुनवाई

पीठ द्वारा जांच एजेन्सी के कार्यवाहक निदेशक एम नागेश्वर राव की रिपोर्ट पर भी विचार किये जाने की संभावना है। नागेश्वर राव ने 23 से 26 अक्टूबर के दौरान उनके द्वारा लिये गये फैसलों के बारे में सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट दाखिल की है।

इसके अलावा, जांच एजेंसी के अधिकारियों के खिलाफ शीर्ष अदालत की निगरानी में स्वतंत्र जांच के अनुरोध वाली जनहित याचिका पर भी पीठ सुनवाई कर सकती है।

गैर सरकारी संगठन कामन काज ने यह याचिका दाखिल की है। न्यायालय ने 20 नवंबर के स्पष्ट किया था कि वह किसी भी पक्षकार को नहीं सुनेगी और यह उसके द्वारा उठाये गये मुद्दों तक ही सीमित रहेगी। 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad